हिंदी में बहुत कम ऐसे लेखक हैं जो लिखने के साथ साथ सामाजिक लड़ाई में भी आगे रहते हैं। उनकी प्रतिबद्धता उनके लेखन और उनके व्यक्तित्व में भी दिखाई देती है। निवेदिता शकील ऐसी ही एक एक्टिविस्ट लेखिका हैं। पेशे से पत्रकार और रंगकर्मी निवेदिता की पहचान एक कवयित्री के रूप में है। बिहार के मुजफ्फरपुर अनाथालय कांड में उनके कानूनी हस्तक्षेप से लड़ाई को एक अंजाम मिला, जिसके कारण वे आजकल सुर्खियों में है। बहुआयामी व्यक्तिव की निवेदिता कहानियां भी लिखती हैं। यहाँ प्रस्तुत है दंगे पर उनकी एक कहानी। देश में दंगे पर कई लेखकों ने कहानियां लिखी हैं। कांग्रेस के कार्यकाल से लेकर मोदी के कार्यकाल में गुजरात के दंगे हुए और उनमें सत्ता और दंगाइयों की साठगांठ ने इस क्रूरता को जन्म दिया। निवेदिता की दृष्टि बहुत साफ रहती है और वह अपने जीवन तथा लेखन में अन्याय और दमन के खिलाफ रहती हैं। आइए पढ़ते हैं निवेदिता शकील की कहानी 'अलगाव'—विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार और कवि
अलगाव
निवेदिता शकील
करीब तीन बजे उसकी फ्लाईट लैंड करेगी। भाभी ने बताया था कि वह इडियन एयरलाईन्स से आ रहा है। खुशी से उसकी आवाज गले में अटक गयी... उसने अपने पर काबू करते हुए पूछा... भाभी उसे पहचानेंगे कैसे? उसकी कोई तस्वीर भेज देती। भाभी ने हंसते हुए कहा पहचान जाओगी एकदम तुम्हारे भाई की तरह दिखता है। फ्लाईट आने में अभी वक्त है। वह हड़बडा कर आ गयी थी। मन बैचेन था। 20 साल हो गये। भाई जब गया था तब आयान की उम्र 2 वर्ष रही होगी। उसकी आंखों में उसका वही गोल-मटोल चेहरा घूम रहा था। उसके चेहरे पर स्मृति की पुरानी छाया उतर आयी। अंतिम बार भाई को अस्पताल के बेड़ पर देखा था।
एक कंगाल देह के भीतर धंसी आंखें अगर नहीं हंसती तो क्या वो पहचान पाती भाई को। अमेरिका से वह अपनी जिद पर आया था। अपने देश में, अपने लोगों के बीच। उसे मालूम था बचेगा नहीं पर अपने लोगों के बीच मरना चाहता था। वह सारी रात उसका हाथ थामें बैठी रही थी।
कमरे में धीरे-धीरे अंधेरा धिर आया था। बहुत दिनों से दाढ़ी न बनाने के कारण उसका चेहरा बेतरतीब बालों से भर गया था। उसकी पतली सुतवा नाक एक नंगी हड्डी सी उपर उठी दिखायी देती थी। उसकी आंखें बार बार जैसे कुछ कहना चाह रही थी। पर वह बोल नहीं पा रहा था। अजीब सी खामोशी थी। अस्पताल के पीछे फैले जंगल के नीले श्याम वृक्षों से टकराकर सुन्न सन्नाटे की आहटें सुनायी दे रही थी। मन के भीतर के हर अंधेरे कोने चीरता हुआ जैसे वह कह रहा था बचा लो मुझे! बचा लो मुझे! दुख से बचना मुश्किल है, पर सुख को खो देना कितना आसान है।
भाई का इस तरह आना हमसब को भीतर से तोड़ दिया था। वे गर्मियों के दिन थे। सारा शहर दिन भर धूप के बुखार में तपता रहता था। अस्पताल के बगीचे में लगे फूल-पौधे सूख गये थे। लॉन के धास जगह जगह झुलस गये थे। अस्पताल के कमरे में वह शांत चित्त लेटा हुआ था। शाम की पीली धूप उसके चेहरे पर पड़ रही थी।
उसने हाथ के इशारे से मुझे पास बुलाया। और धीरे-धीरे मेरे पास झुक गया, कुछ कहने के लिए - मुझे सिर्फ उनकी खंखारती सांस सुनायी पड़ी और वह निढाल होकर विस्तर पर लुढ़क गया। मैं देख रही थी। निस्तब्ध अपने भाई के आखरी सांस को छूटते हुए। मेरी आंखों में बादल उमड़ आये।
मैंने महसूस किया कई आंखें मुझे देख रही हैं। मैंने खुद को संभाला। फ्लाईट आने का समय हो गया है। अपने मन को तैयार कर रही थी। वर्षों छूटे रिश्ते की ताजा गंध के लिए। मैंने दूर से आयान को पहचान लिया। जैसे मेरे सामने साबूत भाई खड़ा हो। वैसी ही आंखें। काली घनेरी पलकें। सांवला रंग। नीली कमीज पर मेरी नजरें टिक गयीं। आयान ने मुझे बांहों में भर लिया। बुआ आपने पहचान लिया मुझे। वह उसके सीने से लगी सुबकती रही। उसने भर्रायी आवाज में कहा- बुआ आप रोती रहेंगी या हमें घर ले चलेंगी। फिर हंसते हुए कहा आपने ये नीली कमीज पहचान लिया? ये वही कमीज है जो आपने पापा को अमेरिका आते वक्त दी थी। पापा की जान बसती थी इस कमीज में। मैं सुन रही थी उसे। वह इस तरह से बात कर रहा था जैसे हम मिलते रहे हों।
आयान ने खिड़की के शाीशे खोल दिए। उसने हुलसते हुए कहा बुआ ये जामा मस्जिद है ना। पापा ने मुझे बताया था कि वे अपने दोस्तों के संग हर शाम यहां आते थे। यहां कोई बनियों की गली है।
वह हंसने लगी। अरे नहीं तुम्हारे पापा ने जामा मस्जिद की गली का नाम दिया था। उस समय यह जगह इतनी आबाद थी कि यहां खूब जमावड़ा लगता था। बुआ यहां कोई पीपल का पेड़ था क्या? जाने कितने पीपल के पेड़ थे। तुम्हें पता है, इस देश में सारे पीपल के पेड़ मंदिर में तब्दील हो जाते हैं। यहां रातोंरात देवता प्रगट हो जाते हैं। पीपल की भी हमारी जिंदगियों में अजीबो-गरीब अहमियत है। तुम्हारी दादी कहती थीं पीपल में चुडैलें रहतीं हैं। हम लोगों को रात में पीपल के पेड़ के पास से गुजरना मना था। मां कभी उसके नीचे नहीं जाने देती थी कि साया ना हो जाय। वह हंसने लगा। सूरज की पीली-निबोली छाया उसके चेहरे पर पड़ रही थी। सड़क पर कतार से लगे दरख्तों पर शाम की धूप ढ़लने लगी थी।
उसने गहरी नजर से मुझे देखा। बुआ एक बात पूछें? मैंने सर हिलाया। पापा कभी लौटकर क्यों नहीं आये? मैं चुप हो गयी। लगा वर्षों से भीतर जो राज जमा है वह लावा की तरह फूट न पड़े। मैंने हंसकर बात टाल दी। पता है भाई को एक जगह से दूसरे जगह रहना कभी पसंद नहीं था। जब हम बच्चे थे, तो हर साल पिताजी का ट्रांसफर होता था। हमलोग एक शहर से दूसरे षहर बसते उजड़ते रहते थे। भाई को पुराने जगह को छोड़ना बुरा लगता था। पर एक बार अमेरिका गया तो वहीं रम गया। आया जब उसकी सांस की डोर छूट रही थी। उसकी आवाज जज्बाती हो गयी। आयान ने धीरे से उसका हाथ अपने हाथों में लिया। बात बदल दी।
घर पर अभी कौन-कौन होंगे बुआ? मैं हंसने लगी। ओह बातों-बातों में मैंने तुम्हें बताया नहीं, सुमि तुम्हारा सुबह से इंतजार कर रही है। और तुम्हारे फूफा ने आज छुट्टी ले ली है।
घर पहुंचते ही सुमि उसके गले से लिपट गयी। ओह तो ये तुम ही हो! मेरे हैंडसम भाई! अपनी बहन से 20 साल बाद मिल रहे हो, है न हैरानी की बात। तुम अब तक आये क्यों नहीं आयान? सुमि बच्चों की तरह ठुनकने लगी। वो हंसा! आना चाहता था,पर आ नहीं पाया। उसका सिर झुक गया और चेहरे पर दुख का भाव उभर आये। फिर उसने सुमि को गहरी नजर से देखते हुए कहा-मैं तुमसे मिलने को बहुत ही उत्सुक था। तो आओ, हमारे कमरे में चलें, सुमि उसका हाथ थाम कर अपने पीछे-पीछे ऐसे ले चली मानो उसे खतरों के बीच से बचाकर ले जा रही है।
आयान और सुमि लगभग एक उम्र के ही हैं। आयान एक साल बड़ा है। स्वभावों व रुचियों के अंतर के बावजूद वे एक दूसरे को वैसे ही प्यार करते हैं, जैसा चढ़ती जवानी के दिनों मिल जाने वाले लोगों के बीच होता है। सुमि ने कहा पता है तुम्हें, मैं कब से राह देख रही थी तुम्हारी! बहुत अच्छा लगा तुम्हारे आने से, वह कहती गयी।
तो तुम कैसे हो? क्या हाल है तुम्हारा?, उसने सुमि का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा सुमि क्या तुम मेरी मदद करोगी मैं अपने पिता को जानने आया हूं। ये कैसी अजीब बात है न, बीस सालों तक जिस पिता के साथ रहा, उसके साये से भी डरता रहा आज जब वो वहीं है जो उसके लिए तड़प रहा हूं...उसकी आंखें आंसुओं से तर हो गयी।
पता है अंतिम दिनों में वे मुझे कैसे खाली-खाली निगाहों से देखते थे। मुझे इशाारे से बुलाते थे। जैसे वे मुझसे कुछ कहना चाहते हों। मैं नफरत से भर जाता था। उनके कमरे में सिर्फ शराब की गंध थी। अंधेरे कमरे में शराब की बोतलें और कांच के गिलास के अलावा कोई आवाज नहीं थी। बीस साल तक वे शराब में डूबे रहे। कैसी विचित्र बात है न! पत्नी और बच्चों के रहते एक आदमी एकदम अकेला था। यह कहते-कहते आयान फफक कर रो पड़ा। सुमि हम चाहते तो उन्हें बचा सकते थे। हम सबनें उन्हें मरने छोड़ दिया। उन्होंने भी मरना तय कर लिया था।
उसकी आंखों में पुराने दिन तैर आये। मुझे याद है सुमि...वो फरवरी का माह था। मैं फुटबॉल खेलकर घर आया तो देखा पापा को लेने अस्पताल से एंबुलेंस आया है। उन्होंने कातर निगाहों से मुझे देखा पास बुलाया। मैं समझ नहीं पा रहा था वे क्या कहना चाह रहे हैं। उनकी आवाज का एक सिरा पकड़ता तो दूसरा छूट जाता। मैं पास गया। पापा खामोश से देखते रहे। मेरे हाथों को अपने हाथ में लेना चाहा। मैंने अपना हाथ उनके हाथों में छोड़ दिया। उनकी आंखों में आंसू रुके हुए थे। भीगे चेहरे पर उजली सी मुस्कुराहट चमक रही थी, जैसे कोई पुरानी बात याद आ रही हो। मैं उनके चेहरे को देखता रहा। चौड़ा माथा जिस पर फैले उनके काले बाल बहती लहरों की तरह उमड़ रहे थे। उस दिन उन्होंने पीले ऊन की बुनी स्वेटर पहनी थी, जो मां ने कभी मुहब्बत के दिनों में बनाया था उनके लिए।
एम्बुलेंस में काका थे उनके साथ। हममें से कोई नहीं गया उन्हें छोड़ने। यह कहते हुए उसके चेहरे पर अजीब सा खालीपन चला आया। तुम्हें पता है सुमि मैं कितनी रातों से सोया नहीं। आंखें बंद होते ही पापा की कातर निगाहें मुझे देखने लगती हैं। उसका चेहरा पीला पड़ गया। उसकी आवाज ऐसी, जैसे किसी अंधेरे कुंए से निकल रही हो।
ओह आयान! सुमी ने उसका सिर सहलाया। स्मृति की रस्सी को खींचा, ताकि वह बाहर निकल आये। भाई चलो मां बुला रही है नीचे। उसकी आवाज भरभरा गयी। उसने अपने आंसू पोछे। भाई पता है मां ने आज बेसन की बड़ी बनायी है, करेला का भरवा, तिलकोरा के पत्ते को चावल के आटे में लपेटकर तला है। रहर की दाल में देसी शुद्ध घी की खुशबू ने उसकी भूख बढ़ा दी।
उसने आयान का हाथ थामा और आवाज लगायी। मां! क्या आज रसोइ से निकलोगी नहीं! विदेशी भतीजे के लिए इतनी तैयारी। अरे इसे ये सब पसंद आयेगा? मां ने आंख तरेरी। आयान को खिलाने लगी। उसे पता था मां अपना सारा प्यार खाने पर ही उड़ेलेगी। एक-एक चीज आयान चांव से खा रहा था। बुआ ये कैसे बनता है? मैं हंस रही थी क्यों तुम क्या वहां जाकर शुद्ध देहाती होटल खोलने वाले हो। गोपाल का देहाती होटल कैसा नाम है? हाहाहा....सुमि तुम्हारा दिमाग चलता है। कुछ क्षण ऐसे होते हैं जो बिला वजह खुशी देते हैं।
आज आयान को दिल्ली दिखाना था। वह उन सारी जगहों से गुजरना चाहता था जहां-जहां मामा गये थे। गाड़ी शाहजहां रोड से होते हुए मंड़ी हाउस के पास हमने रोक दिया। पता नहीं कैसी-कैसी यादें इस सड़क पर बिछी हैं। हम सब धरती में से बीती हुई सभ्यता के निशान खोज रहे हैं।
आयान खामोश था। बार-बार उसका दिल पूछ रहा है कि आखिर क्या हुआ कि पापा फिर कभी लौट कर नहीं आये। खुद को शराब में डूबो दिया। कभी-कभी हम अपने बीते हिस्से को याद नहीं करना चाहते। दुख अगर बीते नहीं तो जीना मुश्किल है। आज वर्षों बाद ताले में बंद सारे राज खुल गये थे। मां स्मृतियों को अंधेरे से बाहर निकाल रही थी। ओह मां रुको! रुको! जैसे उस पर हाल आया था - दिल्ली, 1984।
रात के ग्यारह बजे होंगे। जस्टिस इमतियाज हुसैन के घर आज बड़ी रौनक थी। बेटी का निकाह था। मेहमानों और बच्चों के दोस्तों से महफिल गुलजार थी। जस्टिस इमतियाज हुसैन के दो बच्चे थे। शहजाद और फातिमा। शहजाद और मेरे भाई में गहरी छनती थी। दोनों ने कलकत्ता से एम.ए. साथ किया था। कई सालां तक दोनों कोलकाता में थे, जो पहले कलकत्ता के नाम से जाना जाता था। भाई को अभिनय का बेहद शौक था।
शहजाद भाई नाटक के निर्देशन में थे। बाद में दोनों ने फिल्मों में भी काम किया। कोई फिल्म चली नहीं। उर्दू, बंगला और अंगेजी में शायरी भी किया। पर कहीं दाल नहीं गली। हारकर चचा जान ने कहा कि तुम्हारी मर्जी बहुत चली अब हमारी चलेगी और उन्हें अमेरिका भेज दिया कानून की पढाई करने।
आज सारे पुराने दोस्त फातिमा के निकाह में आये। हैं। फातिमा बी सबकी दुलारी थी। शहजाद भाई से ज्यादा उनके सारे दोस्तों की मुंहबोली बहन आज रुखसत हो रही है। शहजाद भाई गले लग के जार-जार रो रहे हैं। बड़े भैया की आंखें बार-बार डबडबा रही है। मीरासीनें गा-गा कर थक गयीं हैं।
मेहमान जब रुखसत हो गये तो सारे दोस्तों की महफिल सजी। घुंघराले बाल, बड़ी बड़ी आंखों में काजल नाक में हीरे की लोंग पहने एक लड़की गुजरी। शहजाद ने परिचय कराया मीट मायी फ्रेड़-अमृत कौर। फिर भाई की तरफ देखकर कहा मियां जल तो नहीं रहे हो, तुम्हारे बदले हमने ही परिचय करा दिया। भाई के चेहरे पर प्यारी सी हंसी तैर गयी। मैंने हंसते हुए कहा -शहजाद भाई मुझे कुर्रतुल एन हैदर की कहानी सीता याद आयी। दरख्तों के कुंज से सीता ने राम पर निगाह डाली और उनकी नजरें रात पर ऐसी जमीं जैसे चकोर खिंजा के चांद को देखता है। उन्होंने राम को आंखों के जरिये दिल में दाखिल कर के पलकों के किवाड़ बंद कर लिये। हो हो कर सब हंस पड़े। भाई ने मेरे सर पर चपत मारी। शैतान की बच्ची!
रात काफी हो गयी थी। चचाजान ने कहा तुमसब आज यहीं रुक जाना, अभी जाना ठीक नहीं। इन दिनों शहर के हालात कुछ ठीक नहीं। हमसब वहीं रुक गये थे, पर अमृत ने कहा कि उसे जाना होगा। घर में कह कर आयी नहीं है। भाई ने कहा हम छोड़ कर आते हैं।
शहजाद भाई ने मजा लिया...अरे जाओ मियां चांदनी रात है...भाई रवाना हो गये। सड़क के दोनों किनारे दरखतों के घने झुंड थे। हवा में पहाड़ी गुलाबों की तेज महक थी। दरखतों के नीचे दो तीन मोटरें खड़ी थी। अचानक भाई ने देखा तीन चार लोग मोटरसायकिल से उन्हें घेरने की कोशिश कर रहे हैं। वे जब तक कुछ समझते एक मोटरसाइकिल सामने आ गयी। उन्होंने जोर से ब्रेक मारा। अमृत को उन चारों ने दबोच लिया। भाई उसके पीछे भागे। उन्होंने उनके पैर में गोली मारी। खून से भीगे भाई घिसटते हुए भागे थे उनके पीछे। रात भर पागलों की तरह उसे खोजते रहे। सुबह अमृत की लाश मिली थी। बदन पर से जगह-जगह मांस नुचा हुआ था। अमृत को मारकर इंदिरा गांधी की मौत का बदला ले लिया गया था। यह कहकर मां फफक फफक कर रो पड़ी।
उसकी स्मृतियों में आंकड़े तैर गये। अखबार में आया था कि अब तक हजारों लोग मारे जा चुके हैं। विशाल श्मशान जिससे आसमान तक सड़ांध उठ रही थी। हर जगह दर्द भरे चिर-क्रदंन से आंक्रात रातें और दिन। फिर भी ये दहशत अभी इतनी नजदीक नहीं पहुंची थी। शहर में ऐसी आकस्मिक विचारहीन शांति छायी थी कि यह समझना मुश्किल था कि राजनीतिक हत्याओं के लिए आम आदमी पर कहर क्यों टूट रहा है। बच्चे और बूढ़े भी नहीं छोड़े गये। ये मौतें क्या होती हैं? इतिहास में हजारों लोगों के शवों की घोषणा को अगर आप ठीक-ठीक समझना चाहते हैं लाशों की भीड़ में कुछ अपने प्रियजनों के चेहरे जोड़ दें।
मां की आंखों में चिताओं से उठने वाली रौशनी चारों दिशाओं में फैल गयी। आसमान की ओर उठने वाले घने और संड़ांध भरे धुएं की एक तस्वीर कौंध गयी। उसने झटका देकर अपने को संभाला। बाहर बसंत के शीतल आकाश की शांत आभा फैली थी। उसका चेहरा आंसुओं से भीगा था। आयान ने उसका हाथ अपने हाथों में लिया और देर तक हम तीनों रोते रहे।