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संस्कृति

'जय श्री राम' से बड़ी अ-कविता भला क्या होगी!!

Prema Negi
27 Sept 2019 9:58 PM IST
जय श्री राम से बड़ी अ-कविता भला क्या होगी!!
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जय श्री राम

मरा-मरा की

रट लगाते हुए

राम राम के जप तक

पहुँचे वाल्मीकि,

प्रभु से भी प्रभुतर

नश्वरता के बोध से

उपजी रामायण

जप से तप और तप से

मृत्यु की लय तक

जो रचा राम था

जो अनरचा रह गया

वह भी राम,

पर कभी 'जय श्री राम' नहीं

कह पाए वाल्मीकि,

आराध्य का अवसाद

पुरुषोत्तम के पौरुष से

गुरुतर था

प्रभु की पीड़ा ही पूज्य थी

जीवन का मर्म ही मूल्य था,

फ़िर रामायण तो तर्पण थी,

क्रौंच-वध का महान प्रायश्चित,

भक्ति जब प्रायश्चित का विस्तार पाती है

तभी काव्य बनती है

ऐसे में 'जय श्री राम' से बड़ी

अ-कविता भला क्या होगी!!

जहाँ केवल जय है

पराजित और पराश्रयी,

एक

महा-अकाव्य लोकतंत्र का

जहाँ रूपक

अपने चमत्कार के लिए

अर्थों का लहू माँगते हैं,

एक कवि का राम

'मरा' की बारम्बारता से अनुस्यूत हो सकता है

ग़रीब नवाज़ भी हो सकता है

और एक मिस्कीन आदमी की आह भी,

पर, जय श्री राम

इसमें मृत्यु नहीं

हत्या ध्वनित है

एक छद्म नायकत्व का उद्घोष

किसी आत्मजयी की

अम्लान आभा नहीं,

मरा मरा की रटन्त

जब मारो मारो के शोर में तब्दील होती है तो

इस लोमहर्षक दोहराव से जो निष्काषित होता है

वह राम ही है,

इस बार

सरयू की जगह

उसके हृदय में

जल समाधि लेता हुआ

जिसने एक उन्मत्त और रक्तपिपाशु भीड़ को सामने

देखते हुए भी

जय श्री राम कहने से

इंकार कर दिया था।

घर एक नामुमक़िन जगह है

घर एक नामुमक़िन जगह है

जिसे लोग-बाग अपना घर मान बैठते हैं

वह देर-सबेर खटक जाता है किसी की नज़रों में

कभी कोई मुल्क़ जिसे अपने काग़ज़ याद हो आते हैं

कभी कोई मज़हब जिसे अपने ख़ुदा की फ़िक्र हो आती है

तंज़ीमें जिन्हें अपने-परायों का फ़र्क़ बेचैन कर देता है

तरक़्क़ी के रास्ते जो आँगनों से होकर गुज़र जाते हैं

कुछ लोग अपने घरों में ऊँची आवाज़ में टीवी देखते हैं

बाज़ ऊँची ख़ामोशी में सुक़ून पाते हैं

कुछ की मुराद जीनों के नीचे डिज़ाइनर पौधे लगाने की होती है

दीवारों को सादा ही छोड़ देते हैं कुछ और फ़र्श को कालीनों से भर देते हैं

अपने घरों के पते वे बाँट देते हैं सब जगह

जाने क्या इत्मीनान होता है उन्हें

घर उनके लिए यक़ीन का नाम होता है

वे नामुमक़िन लोग होते हैं

मुमक़िन लोग घर का दरवाज़ा खोलकर घर में दाख़िल नहीं होते

कभी पानी, कभी सड़क, कभी रेलगाड़ी

कभी सबकुछ में क़तरा-क़तरा

अपने दालान, सहन, हाते, छतें, रसोइयां और ग़ुसलख़ाने लिए

जहाँ अपनी गठरी खोल देते हैं वहीं घर हो जाता है

ज़मीन थाम लेती है आशियाने

आसमान कुछ नीचे आ जाता है

बस्तियों की ख़्वाहिश फैलना नहीं आबाद होना होती है

धीमे-धीमे बसाहटें घर बन जाती हैं

नस्लें पैदा होती हैं, मरती हैं

खण्डहर घर हो जाते हैं

घर खण्डहर,

कभी खण्डहरों से रेलगाड़ियों की आवाज़ आती है

तो लोग देहरियों पर दिए रख आते हैं

फिर उर्स-मेले-मज़में-नशिस्तें

खण्डहर भी बस्तियों से बेदख़ल नहीं होते!

उनमें रहते हैं वे जो ना मुमक़िन होते हैं ना नामुमक़िन

पेड़ों की गवाही में यूँ धरती कागज़ों से आज़ाद होती है

सदियों-दर-सदियों वाक़ई लगता है कुछ मुक़म्मल होता सा

पर फ़िर वही पसीने की बू घरबदर होती है

उभरने लगते हैं सादा-शक़्ल कमीज़ों पर ख़ून के छींटे

सोते समय भी जो अपनी टाई नहीं खोलते

ऐसे डरे हुए बलवाई पहचान पत्र माँगने लगते हैं

बिना पलटे ही पलट जाते हैं समय के सफ़े

खिसक जाता है घर चाँद की परली तरफ़

फ़िरोज़ी रंग के दुपट्टों की उड़ती रंगत

बटलोईयों की दुआयें, नमक का स्वाद, बच्चों की हँसी और सूरज

पहुँच जाते हैं शरणार्थी शिविरों में

रसद की लम्बी लाइन में सुई की नोक बराबर जगह से

बाहर झाँक रही दूब की एक कनी पर भी बेज़मीनियत के छाले पड़ जाते हैं !

जो नामुमक़िन है वह ज़िन्दगी नहीं, मौत नहीं, मामूलियत नहीं, मोजज़ा नहीं

घर के हिस्से की जगह है!

जो फुटपाथों से भी कम है और समन्दरों में डूबी हुई है

जिसे भाटे की उतरती लहरों ने कभी ऊपर फेंक दिया था

और छत ढूंढ़ रहे लोगों ने जिसे नस्ले-आदम की इंसानियत के नाम पर ज़हन में नस्ब कर लिया था

पर कब ये शै कँटीले तारों में उलझ कर नापैद हो जाती है

कब अँधेरे की नदी में

सहमे हुए चप्पुओं से फ़िसलकर

सर्द पानी में खो जाती है

कब पुराने बदशक़्ल पीले कागज़ों की सूरत ग़ैरकानूनी हो जाती है

छूट जाती है, छोड़ देती है, पता नहीं चलता!

घर एक नामुमक़िन जगह है

क्योंकि कभी-कभी ख़ुद घर ही खदेड़ देता है बेघरी के सेहरा में

जो हमवतन होते हैं क़ौम के क़ामिल हो जाते हैं

पड़ोसी सरकारी फ़ाइलों में शामिल हो जाते हैं

दोस्त-अहबाब वतन परस्ती में गाफ़िल हो जाते हैं

घर कट-फट जाता है दौड़ते-भागते

बदल जाता है किसी नामुमक़िन से पैरहन में

कितना रवायती लगता है ये सब

मानो होना ही था!

जिनके घरों के आगे वाले दरवाज़े को पता नहीं की पीछे वाला दरवाज़ा किधर खुलता है

वे सरहदों की दुहाई देते हैं

हर साल दस्तानों की माँग पर मोज़े भिजवाते हैं

और अपने ड्रॉइंग रूमों में बैठ ठंडी आहें भरते हैं

सचमुच कितने नामुमक़िन होते हैं वो लोग जिनके घर मुमक़िन होते हैं

बर्फ़ानी तूफानों में जब कुछ की कब्रें भी उघड़ जाती हैं

तब उनके दरवाज़ों की साँकल भी नहीं गिरती

क्या वो वाक़ई घरों में रहते हैं?

वो किसकी याद करते हैं?

किसे बचाते, किसे छुपाते, किसके ख़्वाब देखते हैं

क्या वो जानते नहीं की तमाम इंतज़ामों के बाद भी घर छूटता ही है

और दिल में धड़कती हुई

एक तक़रीबन घर जैसी जगह रह जाती है

जिस पर अगर एक गिलहरी उचक कर अखरोट खा सके तो उतना ही बहुत है!

विज़िटिंग कार्ड पर घर का पता नहीं

नींद की धुंध में झिलमिला रहा

घर का सपना ही बहुत है!

बहुत है, बहुत है की जो मुमक़िन हुआ है वो छीना ना जाए

जब तक रूह की आरज़ू है, रूह है, इस चाक बदन का सफ़ीना ना जाए

वर्ना घर तो फिर एक नामुमक़िन जगह है

और ज़िन्दगी,

ज़िन्दगी तो एक नामुमक़िन समय है।

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