पिछले कुछ वर्षों में जिन युवा कहानीकारों ने अपनी कहानियों से लोगों का ध्यान आकर्षित किया है उनमें एक सपना सिंह भी है। यूं तो वह लंबे समय से लिखती रही हैं, पर अनियमित लेखन करने के कारण उनका कहानी संग्रह बहुत देर से यानी एक साल पहले आया। इससे पहले उनका एक उपन्यास भी आ चुका है। उनकी कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय स्त्री की मुश्किलों की चिंताएं अधिक रहती हैं। ऐसी स्त्री को छोटे शहरों और कस्बों में पली बढ़ी हुई है। उनकी कहानियों की स्त्री पत्रों में प्रेम और जीवन की तलाश रहती है। वे अपने पात्रों के मनोभावों को व्यक्त करते हुए कहानियां लिखती हैं। वे अपनी कहानियों में यथार्थ के दवाबों को कहानी के भीतर ही व्यक्त करती हैं, उसे पैबंद की तरह सतही ढंग से पेश नहीं करतीं। उनकी वैचारिक दृढ़ता कहानी के भीतर दिखाई देती है, जिसमें एक चिंता का भाव रहता है। डर उनकी ऐसी ही कहानी है जिसमें स्त्री की सामाजिक सुरक्षा की चिंता व्यक्त की गई है। हमारा समाज जिस तरह से हिंसक बनता जा रहा और स्त्रियों के खिलाफ जिस तरह यौन हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रहीं, उससे यह डर स्वाभाविक है।आइए पढ़ते हैं सपना सिंह की कहानी-विमल कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और कवि
डर
सपना सिंह
लड़की के साथ गैंग रेप। भीगा तैलिया आंगन में फैलाते हुये उसके कानों में टी.वी. पर आती आवाज टकराई लॉबी में रखा टी.वी. लगातार आमंत्रित करता है। ब्रेकिंग न्यूज। किचन की ओर जाते उसकी निगाह टी.वी. पर पड़ती है न्यूज रीडर लगातार पूरे एक्साइटमेंट के साथ बोल रहा है, एम.बी.ए. की छात्रा पढ़कर लौटते वक्त कार में लिफ्ट ले लेना आफत न्यौतना ही तो है।
'सुमि, कहां खोई हो... मेरे मोजे कहां हैं...? कितनी बार कहा, जूतों के साथ ही रखा करो...’ पतिदेव का कर्कश स्वर कानों से टकराया।
वह आटा माड़ना छोड़ मोजे ढूंढ़ने लपकी। हर बार इसी सबके लिये झाड़ पाती है। मोजे, जूते, रूमाल, मोबाइल। यही तीन कमरों का घर... वही दो एक मेज... वही अलमारियां...फिर भी वहीं सब चीजों के लिये कच-कच। उसका बड़बड़ाना एक बार शुरू होता है तो जल्दी खत्म होने पर नहीं आता। मेरी चड्डी बनियाइन... सही जगह पर क्यों नहीं रखती?
अब वह तो अपने हिसाब से सही जगह पर ही रखती है, पर उसकी सही जगह अक्सर पतिदेव के लिये गलत ही होती है अब तो, इसी बात पर मूड ऑफ। ये मर्द और इनका मूड़... इनकी बड़-बड़ से क्या हमारा मूड नहीं बिगड़ता? पर जतायें किसे...? चुप रहो तो कहेंगे घर पर रहना बेकार बोलो तो सुनेंगे ही नहीं... जैसे उनसे नहीं दीवार से कह रहे हो.... थोड़ा तेज बोलो तो, कहेंगे चिल्लाती क्यों रहती हो हर वक्त, ब्लडप्रेशर बढ़ जायेगा, गिर पडो़सी किसी दिन भट्ट से।
'मम्मी... चोटी करो...।; बेटी कंघा लेकर खड़ी है।’
'करती हूँ... पहले दूध खत्म करो।’
‘पहले चोटी करो...' वही तुनकता उद्दंडी स्वर जो उसे भीतर तक खदबदा डालता है, उसने उस स्वर को नजरअंदाज किया और दूध में बोर्नविटा मिलाने लगी।
‘मम्मी जल्दी करो, ऑटो आ जायेगा...।’ बेटी बेसब्र हो रही है। मुंह से निकलते ही बात पूरी हो जानी चाहिये। वह भुनभुनाते हुये बेटी के बाल बनाने लगी।
'कस के करो...’
'तुम ठीक से... सीधे खड़ी रहो...।’ उसने बेटी को डपटा....
'ढीला कर रही हो...’ बेटी तुनकी और अपने बाल छुड़ाकर शीशे के सामने खड़ी हो खुद से चोटी बनाने लगी।
'जब मेरा किया पसंद नही आता तो खुद ही किया करो... अब से मत आना मेरे पास...' कहते हुये कुछ याद आ गया। बहुत पहले का कोई दृश्य, इतनी बड़ी लड़की अपनी मां से भी लम्बी... मां से अपनी दो चुटिया गुंथवाती, इसी तरह मां को टोकती झुझंलाती...। क्या दुनिया में किसी लड़की को अपनी मां की गुंथी चोटी पसंद नहीं आती...?
पतिदेव का स्पेशल कमेंट है, 'तुम मां- बेटी की पटती नहीं...।’
'मम्मी पिन लगा दो...’ वो स्कूल का दुपट्टा लिये खडी़ है... अब इसमें भी झिक-पिक। इस वर्ष आठवीं से ही सलवार कुर्ता चल गया है... तर्क है लड़के सीढि़यों के नीचे खड़े हो झांकते हैं स्कर्ट खतरनाक है... निचली क्लास की स्कर्ट भी डिवाइडर टाइप की हो गई है। कुछ भी देख पाने पर पूरा अंकुश।
उसकी आंखें बेटे के मासूम चेहरे पर अटक जाती है, ये चेहरे... कैसे शैतान चेहरों में तब्दील हो जाते हैं। उसे याद आता है वो चचेरा भाई, उससे 6-7 साल छोटा, वह पूरी तरह बड़ी और वो बड़े होने की प्रक्रिया से गुजरता हुआ। इस दोपहर नॉवल पढ़ते-पढ़ते वह नींद में जा पहुंची थी। गले में सरसराहट, उनींदी आंखों में कौंध सा गया चेहरा, जैसा किसी रहस्य लोक में घुसने की चोरी करते पकड़ा गया हो। उसने किसी को बताया नहीं, पर दिनों तक अपने उस भाई से नजरे चुराती रही थी।
टी.वी. पर विज्ञापन चल रहा है किसी सैनेटरी पैड का, हवा की तरह हल्की फुल्की लड़की, कुछ ज्यादा फुदक रही है। पीरियड्स में उतना घूमना फिरना? पर उसे तो दुनिया की सेाच बदलती है न, जैसे सिर्फ स्राव ही परेशानी का सबब हो जिससे बेतरीन पैड बैड लगाकर छुटकारा पाया जा सके....
उन दिनों की खिन्नरता, दर्द असुविधा.... ये सब इनका क्या करे? अब बाजार में ये, ये चीज भी मौजूद हैं, जिसका इस्तेमाल तुम्हें पूरी स्वच्छता देगा। ‘मम्मी ये क्या है?’ बेटे की सहज जिज्ञासा।
‘ये-ये लड़कियों का ड्रायपर है...’ पांच साढ़े साल पांच साल के बच्चे को और क्या बताये? जैसे तुम छोटे थे तो पहनते थे न वैसे ये बड़ी लड़कियों का...।
'दीदी का भी’
'
हां...।’
‘दीदी... क्या शू शू करती हैं...’ इतने में दीदी ने एक चपत उसके सिर में लगाई, मम्मी की ओर रोष से देखते हुये। भुनभुनाई, मम्मी... कुछ भी बताती रहती हो।’ बड़ी होती बेटी उससे संबंधित हर बात में सकुचाई रहती है, पैड छुपाकर लाया करो ऐसे क्यों लाती हो... पापा से क्यों मंगाती हो।
वो भी तो थी इस उम्र में ऐसी ही, कपड़ा फाड़ते हुये लगता अदृश्य हो जाये, कपड़े की चिर्र किसी कानों तक न पहुंचे और फिर गंदे कपड़े को अखबार में लपेटकर बाउंडरी के उस पार उछालना...ऐसे कि वह इधर न गिरकर उस पार पानी भरे प्लॅाट में गिरे... और ये सब होते बीतते कोई देख न ले... आंगन में चारपाई पर लेटे धूप सेंकते पापा या फिर वहीं चटाई पर बैठ स्वेटर बुनती मां... या फिर छोटे भाई बहन या बगिया की घास निकालता चपरासी, वो छोटे छोटे पल कितने भारी होकर गुजरते थे, अब ये पैड बैड होने से कितनी सहूलियत हो गई है तब कहां मिलते थे छोटे कस्बों शहरों में...।
नयी पत्रिका आई है, फुरसत में वह इन हल्कीि फुल्की पत्रिकाओं को पढ़ना पसंद करती है सबकुछ तो होता हो इनमें ड्रांइंग रूम से लेकर बेडरूम तक में एक औरत को कैसे होना रहना चाहिये, खुद से लेकर घर और आस पड़ोस सब सुन्दर साफ और व्यवस्थित,सबसे पहले सवाल-जवाब के कॉलम पढ़ती है वो विशेषज्ञों द्वारा दिये... गये जवाब, कितने बदल गये हैं। आजकल के सवाल पहले जहां इन कॉलमों में पति द्वारा उत्पीड़न, बचपन में हुये यौन उत्पीड़न से उपजे अपराधबोध, विवाह पूर्व प्रेम प्रसंग को लेकर उपजा अंतरद्वंद्व आदि से संबंधित सवाल होते थे, वहीं अब सवाल चौकाते हैं। ज्यादातर सवाल रिलेशनशिप से जुडे़ होते हैं।
एम.बी.ए. की छात्रा का सवाल है- अपने ब्वा़यफ्रेण्ड के सांथ उसके सेक्सुअली रिलेशन है... क्या ये गलत है? दूसरा सवाल है- क्या शादी से पहले अपने पार्टनर के सांथ सेक्स एंजॉय करना गलत है? पर जब मेरी उम्र की लड़कियां शादी करके सेक्स एंजॉय कर रही है तो मैं क्यों नहीं...।
ऐसे सवाल और उनके वैसे ही जवाब इंगित करते हैं वक्त बहुत तेजी से बदला है... अब सेक्स टैबू नहीं रहा... शायद छोटे शहरों कस्बों में अब भी हो... पर बड़े शहरों में सेक्स पिज्जा, बर्गर की तरह तेजी से नयी पीढ़ी द्वारा स्वीकार्य हो रहा है। शायद प्रेम या रिलेशनशिप की अनिवार्यता भी पीछे छूट जाये। एक भूख जिसे पूरा किया जाना जरूरी हो! कहीं पढ़ा था, अमेरिका, यूरोप में सेक्सी अनुभव लेने की औसत उम्र सोलह वर्ष है। ऐसे आंकड़े सर्वे आजकल प्रतिष्ठित पत्रिकायें खूब करती हैं, उनके रिजल्ट भी चौकाने वाले होते हैं।
यह सब पढ़-सुन देख डरती है वो। डर तो और भी बहुत सारे हैं। बचपन से आज तक ये डर साथ-साथ रहा है हर वक्त हर कहीं बहुत बचपन की घटनायें, वर्षों डराती रहीं। जाने कौन था वो... जो रात के अंधेरे में 6-7 साल की बच्ची की पीठ पर अपने शरीर की रगड़ देता। अब तक डरावनी यादों की तरह सिहरा देती है।
पापा के ऑफिस के सभी लोग मेला देखने जा रहे हैं, वो भाई बहन भी कालोनी के अन्य बच्चों की तरह जीप में ठूंस लिये जाते हैं। भाई आगे पापा की गोद में वो पीछे छोटे कर्मचारी चपरासियों के साथ कुछ और बच्चे भी वह किसी की गोद में थी। सारी राह कुछ चुभता सा.. नीचे की ओर... दर्द चुभन से बेहाल। वह उठना चाहती, पर बुरी तरह ठुंसी जीप लौटते में वह जिदिया गई थी आगे बैठेगी पापा के पास, भाई को पीछे जाना पड़ा था। क्या उसे भी वैसे ही कुछ चुभा होगा?
और ये आजकल की लड़कियां जानबूझकर जोखिम मोल लेती किसी से भी लिफ्ट ले लेना, ब्वायफ्रेड से अकेले में मिलना, शार्टकट के चक्कर में सुनसान रास्ते जाना... ये सब आफत को न्यौता देना ही तो है। अखबार चैनल सनसनी वारदात, सारे दिन ब्रेकिंग न्यूज। आरूषि—रूचिका शिवानी... डर...डर... डर। ढेरों घटनायें... देर तक सोचती है वो, कैसे, क्या करने पे बचा जा सकता था.. किसने किया होगा। आरूषि का कत्ल? क्यों की होगी रूचिका ने आत्महत्या...?
और वह हाई प्रोफाइल पत्रकार शिवानी भटनागर! कितने अनुत्तरित सवाल। एक लड़की का जन्म लिया है तो उम्र भर सिर्फ ‘बचने’ की सोचो, अपने आपको सुरक्षित रखने की जुगत इतनी बड़ी बन जाती है कि बाकी हर संभावना इसके आगे बौनी।
'मम्मी! मैं जा रही हूँ... देर हो रही है...' बेटी का स्वर झुंझलाया हुआ.... मतलब इरा अभी नहीं आई, थोड़ी दूर पर रहने वाले मौसेरे भाई की बेटी की क्लास में है। दोनों साथ ट्यूशन जाती हैं, सुविधा भी सुरक्षा भी एक से भले दो...। पर उसे दो मिनट भी देर हुई नहीं कि इनका झुझलाना शुरू। 'मम्मी... फोन करो मामी को इरा चली का नहीं...'
'आती होगी...।'
'कल से मैं नहीं रुकूंगी... उसकी वजह से हमेशा लेट होते हैं...। पीछे बैठना पड़ता है... जगह नहीं मिलती....।'
बेटी की आवाज तल्ख है। मम्मी की ये सब बातें उसकी समझ में नहीं आतीं। इसके साथ आओ.... अकेले मत जाओ... सुनसान रास्ते से मत जाओ...। लेकिन, क्या वो चाहती है ये सब करना कहना... कितनी मन्नतों से मांगी थी बेटी, पर बेटी की मां बनते ही कैसे तो एक डर भी भीतर पैदा हो गया। न ये सामान्य मातृत्व का डर नहीं था जो अपने बच्चे की सुरक्षा को लेकर हरदम सचेत रहता है, वह गिर न जाये... कोई चोट न लगा बैठे.... कुछ नुकसान न कर ले अपना।
इन सब डरों के साथ-साथ एक और अदृश्य सा डर जो प्रत्यक्षत: कहीं नहीं दिखता था... पर था... और दिन ब दिन बेटी के बढ़ने के साथ ही वह भी बढ़ रहा था। डगमग चलते पांव कब का स्थिर, मजबूत चाल चलने लगे, गिरने पड़ने, चोट खाने का कोई भय नहीं, फिर भी, आंखों के दायरे से बाहर नहीं जाने देना चाहती वो उसे। कब मुक्त होगी वह इन डरों से। क्या कभी ये दुनिया वैसी होगी, जहां कोई लड़की अपनी पूरी उम्र बगैर डरे जी पाये।
ईश्वर ने सृष्टि रचते हुये ये जो इतने सारे तरह तरह के जीव—जंतु बनाये, उन सबमें उसके जैसा बिल्कुल उसका दूसरा कम उसका पूरक उसी की नस्ल का...। क्या एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव है...? फिर, क्यों और कैसे एक की सत्ता दिन ब दिन और और मजबूत होती गयी और दूसरा सिर्फ दासनुमा भूमिका भूमिका में उतरता गया, कैसी बिडंबना है- डर भी उसी से है और डर भगाने के लिये सहारा भी उसी का है। औरताना जिंदगी के उम्र का कोई पड़ाव इस... डर से अछूता बचा है क्याा?
छोटी बच्चियों से लेकर दादी, नानी की उम्र तक की औरत तभी एक सलामत जब तक सामने पड़ने वाले पुरुष के भीतर का पिशाच जाग न जाये... और पिशाच को जगने न देने के लिये तमाम एहतियात... न ऐसे न रहो...ये न पहनो...यों न बैठो... न चलो... यूं न देखो .... बंदिशें, सलाहें, सहूलियतें, समझाइशें...।
वह उतान पड़ी है कमरे में, स्कूल बैग, ड्रेस, बोतल, जूता, मोजा सब बिखरे पड़े हैं। कितनी बार कमरे को व्यस्थित रखने को कह चुकी है... पर वह सुनती नहीं... ज्यादा बोलने पर झुंझला जाती है। पतिदेव का कहना है तुम कुछ सिखाती नहीं। अब वो न सुने उसके कहे को तो? यूं भी स्कूल से थके मांदे आये बच्चों पर कड़कडाना उसे अच्छा नहीं लगता। दो बजे तक उसकी अपनी बैटरी भी डिस्चार्ज हो चुकी होती है, जैसे-तैसे बच्चों का खाना परोस उसे खुद भी बिस्तर ही दिखता है। देखो, कैसी तो बेहोश सी सो रही है। सोचते हुये वह इधर उधर बिखरी चीजों को समेटने लगी है। उसकी आहट ने बेफिक्र सोई बेटी को शायद नींद में ही झिंझोड दिया है... फैले पैर को सिकोड़ करवट ले उनींदी आंखें खोलती है, बेटी का यों पैर सिकोड़ना पता नहीं क्यों उसे भीतर तक मथ देता है ।आहटें, बेटियों को ही पैर सिकोड़ना पर क्यों मजबूर कर देती हैं?
'कोई नहीं... मैं हूं...।' वह आश्वस्त सी करती कहती है और फिर चीजों को समेटने में जुट जाती है। उफ! ये टयूशन वाला बैग। कल से चेन खुली है इसकी, सोचते हुये बैग उठाती है, खुली चेन को बंद करते भीतर कुछ चमकता है। ये क्या है...? अरे, ये यहां... इसके बैग में कितने दिनों से वह इसे किचन में ढूढ़ रही थी पर, इसे इसने बैग में क्योंस रक्खाे है...? हाथ में पकड़े फल काटने के चाकू पर उसकी नजरें जम सी गई हैं, उसे चक्कर सा महसूस होता है... जाने कब, कैसे उसके भीतर का डर उसकी बेटी के भीतर प्रत्यारोपित हो गया... कब कैसे...?