विधवा पुनर्विवाह की मान्यता के 165 साल बाद भी भारत में 4 करोड़ विधवायें
भारतीय समाज में विधवाओं की हालत बहुत खराब, जीती हैं दयनीय जिंदगी (photo : twittter)
हिमांशु जोशी की टिप्पणी
जनज्वार। सन् 1857 की क्रांति तो सबको याद होगी पर गुलाम भारत में सन् 1856 में भी एक क्रांति हुई थी, जिसे भारत का समाज शायद याद नहीं रखना चाहता। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (Ishwar Chandra Vidyasagar) के प्रयत्नों से पास हुए सन् 1856 के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (Hindu Widow Remarriage Act) से विधवा विवाह को वैध घोषित कर दिया गया था, पर दुख की बात यह है कि इस विषय में पूरे भारतवर्ष में न तब बात की गई थी, न अब की जाती है।
कहा जाता है कि हम भारतीय अपनी संस्कृति, धर्म का पालन सदियों से करते आ रहे हैं और यह विरासत अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी देते आये हैं। होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस सभी त्योहार हम सब साथ मिलकर मनाते आये हैं जो भारतीयता की निशानी हैं, पर भारतीय समाज में ऐसे रूढ़िवादियों की भी कमी नहीं है जो समाज को अपने फ़ायदे के अनुसार चलाना चाहते हैं।
धर्म या समाज से हटकर किए काम को समाज के यह लोग अब भी मान्यता नहीं देते। शादी किसी व्यक्ति का निजी मामला होता है, पर अगर कोई युगल अलग-अलग धर्म से हैं, शादी करना चाहते हैं तो भारतीय समाज का यह रूढ़िवादी वर्ग उनके पीछे डंडा लेकर दौड़ पड़ता है। ऐसी शादियों को धर्म की प्रतिष्ठा से जोड़ अपनी राजनीति चमकाने वालों की भी कमी नहीं है।
यही कारण रहा है कि विधवा पुनर्विवाह पर एक क़ानून बनने के बाद भी हम आज वर्षों बाद भी अब तक उस मानसिकता से बाहर नहीं आ पाये हैं जिसमें एक विधवा विवाह को सम्मानित नज़रों से देखा जाए। कमला फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक अभी हमारे देश में लगभग 4 करोड़ महिलायें विधवा हैं, जोकि कुल महिलाओं की जनसंख्या का लगभग 10 प्रतिशत है।
अपने फ़ायदे के लिए बने सामाजिक ठेकेदार और विधवाओं की समस्या
धर्म के ठेकेदारों की नज़रों में उनके बनाए नियम कायदे ही सर्वश्रेष्ठ हैं। यह बात सही है कि सामाजिक नियमों के बन्धन में रहकर आचरण करने से किसी भी समाज में एक अनुशासन बना रहता है।
हर देश की अलग-अलग संस्कृति व सामाजिक नियम क़ानून होते हैं और वहां के नागरिक उन्हीं के अनुसार अपना जीवन जीते हैं पर नियम वह अच्छे होते हैं जो सामाजिक विकास में सहयोग करें, भारत की संस्कृति में बचपन से माता-पिता के साथ रहकर शिक्षा ग्रहण करना, विवाह करना व प्रौढ़ अवस्था में अपने बुज़ुर्ग माता पिता की सेवा करने की परम्परा वह सामाजिक नियम हैं, जो समाज का निर्माण सही तरीके से करते हैं।
विधवाओं की बारे में कभी भी इन सामाजिक ठेकेदारों ने सही तरीके से नहीं सोचा है, विवाह के बाद यदि पत्नी की मृत्यु हो जाये और दम्पती की संतान हैं तो पति को बच्चों की देखभाल के लिये समाज विवाह की अनुमति दे देता है। पुरुषों के लिये यह भी कहा जाता है कि यह अकेले कैसे जीवन यापन करेगा।
वहीं अगर नवविवाहित जोड़ा हो और पति की मृत्यु हो जाये तो महिला को तरह-तरह की बातें कही जाती हैं, उस पर अशुभ होने का ठप्पा लगा दिया जाता है और उससे शादी के लिये कोई तैयार नही होता है।
ऐसी घरेलू युवा महिलाओं को जिनके बच्चें न हुए हों, विधवा होने पर ससुराल से निकाल दिया जाता है। रोज़गार वाली महिलाओं को उनके कार्यक्षेत्र में अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता है। ऐसी विधवाएं जिनके बच्चे छोटे होते हैं, उन्हें अपने ससुराल वालों से बच्चों के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है और ऐसी उम्रदराज़ विधवाएं जिनके बच्चे बड़े होते हैं उन्हें घर से निकाल दिया जाता है।
विधवा महिलाओं को पति की मौत के बाद संपत्ति की दावेदारी से भी बेदखल करने के कई मामले सामने आते रहते हैं। पति की मौत के बाद धार्मिक आडंबर करने वाले या फिर तांत्रिक समाज भी ऐसी महिलाओं को अपना निशाना बनाता है और उन्हें आसानी से डायन ठहरा दिया जाता है। आये दिन कई ऐसे मामले सामने आते हैं जब किसी विधवा महिला को डायन ठहरा मौत के घाट उतार दिया गया हो।
एक ओर जहां समाज में व्याप्त अन्य कुरीतियां समाप्त हो रही हैं जैसे दहेज प्रथा, बाल विवाह अब पहले की तुलना कम हो गये हैं, वहीं आश्चर्य की बात यह है कि विधवा विवाह की समस्या वैसी ही बनी हुई है।
महिलाओं में है दम और युवा ला सकते हैं बदलाव
आज महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के प्रबंधन की बात हो या राजनीति में भागीदारी महिलाओं के योगदान को कम करके नही आंका जा सकता है। महिलाएं अब पहले से अधिक आत्मनिर्भर हो गयी हैं और विधवा पुनर्विवाह समाज में स्वीकार किया जाए उसका यही सबसे उपयुक्त समय है।
युवा वर्ग किसी भी क्रांति को लाने में सक्षम है फिर वह चाहे सामाजिक हो या राजनीतिक। अपने युवा पुत्र का विवाह एक विधवा से कराने का उदाहरण देने के बाद ही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर विधवा पुनर्विवाह पर समाज में अपनी बात मजबूती से रख पाए।
भारत में महिलाओं को देवी का दर्जा दिया गया है। एकल परिवार में जीवनसाथी अगर साथ दे तो पति-पत्नी दोनों कमा कर अपने परिवार की अर्थिक स्थिति मजबूत कर सकते हैं और अब एकल परिवारों का ही अधिक चलन है। विधवा महिला यदि समझदार, शिक्षित है तो यह कहीं नहीं लिखा है कि वह अच्छी जीवनसंगिनी नही बन सकती। यदि हम ऐसी विधवा महिला की बात करें जिसकी कोई संतान है तो परिवार नियोजन के इस जमाने में वह महिला विवाह के लिये सबसे उपयुक्त है।
अफगानिस्तान में तालिबान राज को लेकर सबसे बड़ा डर उसके द्वारा अपने पुराने राज में वहां की महिलाओं के साथ किए गए दुर्व्यवहार को लेकर है, तालिबान ने अफगानिस्तान में स्वतंत्र जीवन जीने वाली महिलाओं के अधिकार खत्म कर दिए गए। उनको दिए गए शिक्षा, रोज़गार के अवसर समाप्त हुए अब सवाल यह है कि हम भारतवासी लोकतांत्रिक देश होने का डंका तो बजाते हैं पर हमने अपने यहां महिलाओं को कितने अधिकार दिए हैं।
कपड़ों को मनमर्जी से पहनने या सोशल मीडिया चलाने भर को स्वतंत्र जीवन जीना समझने वाली युवा पीढ़ी को वास्तविक स्वतंत्रता का मतलब समझना होगा। यदि हम सिर्फ विधवा शब्द की मानसिक बाधा को दूर कर दें तो शायद किसी बीस वर्ष की बेवा को अपना बाकी बचा जीवन अकेले समाज की तिरस्कृत नज़रों के बीच न बिताना पड़े।