महिला दिवस सोशल मीडिया तक सीमित रहा तो कई आयशाएं ऐसे ही तोड़ेंगी दम, दोहराये जायेंगे हाथरस
सुनील मौर्य की रिपोर्ट
जनज्वार। दुख की घड़ी वाली ये महज दो तस्वीरें नहीं हैं। ये हमारे समाज का आइना हैं। वो चेहरा हैं, जिसे हम रोज देखते हैं। कई बार महसूस भी करते हैं। लेकिन शायद ही इस पर आवाज उठाते हैं। एक आवाज उत्तर प्रदेश से है तो दूसरी गुजरात से। एक हिंदू है, तो दूसरा मुसलमान।
लेकिन सच तो यही है कि दोनों हैं इंसान। नफरतों ने हमें बांट दिया। बाकी रही-सही कसर हमारे नेताओं ने पूरी कर दी। एक हिंदू बेटी। वो जिंदा है, लेकिन इसने कंधे पर उस पिता की अर्थी उठाई है जिस पिता ने बेटी की डोली उठाने का सपना देखा था। दूसरे में पिता की आंखों में आंसू हैं। चेहरे पर दर्द है। हाथों में बेटी की तस्वीरें हैं। इसने डोली में बेटी को विदा तो किया... लेकिन अब उन्हीं हाथों से जनाजा उठाने को मजबूर है।
ये एक बेबस पिता नहीं हैं। और न ही लाचार। हर बाप अपनी बेटी को खुश रखना चाहता है, लेकिन समाज में छुपी हैवानियत ने आज उस बेटी की जान ले ली। वो बेटी जो कभी हंसती थी। मुस्कुराती थी। वो किसी से लड़ना नहीं, बस प्यार करना जानती थी। और आखिर में जब दुनिया को अलविदा कहा तो भी चेहरे पर मुस्कुराहट ही थी। प्यार की दुआ ही दे रही थी, लेकिन हम इंसान शायद ही उसे परख सके। तभी तो आयशा कहती है कि ऐ खुदा फिर कभी इंसानों से सामना न कराना। और हमें दुआओं में याद करना।
आयशा के पिता जानते हैं कि कुछ भी हो जाए बेटी तो नहीं आएगी। वो बेटी जिसे गोद में खिलाया। प्यार से उसकी शादी कराई। विदा किया, लेकिन अब मेरी आयशा चली गई। वो नहीं आएगी। लेकिन फिर भी वो दिल में जिंदा है। क्योंकि अब इस जहान की सारी बेटियां ही मेरी आयशा हैं। उन्हीं में मेरा अक्स छुपा है। हम बहुत लड़ लिए, हिंदू-मुसलमान के नाम पर। अब और नहीं। अब और नहीं लड़ना, अगर लड़ना ही है तो बेटियों के लिए लड़ो। कब तक आपस में लड़ते रहोगे। बचा लो, बचा लो मेरी दूसरी आयशा को। जो आज कहीं भी, किसी भी घर में ऐसे मुश्किल हालात में हों। काश, वाकई हम ऐसा कर पाते।
वक्त आ गया है। 8 मार्च यानी महिला दिवस भी नजदीक है। सोशल मीडिया पर महिलाओं से जुड़े मुद्दे फिर से ट्रेंड करेंगे। जिन घरों में आज भी दूसरी आयशा परेशान हैं, मरने की सोच रही है, उन्हें इस हालात में लाने वाले भी सोशल मीडिया पर महिला सुरक्षा की कसमें जरूर देंगे। महिलाओं के लिए आवाज बनते नजर आएंगे, लेकिन काश ये आवाजें दिल से उठतीं। सही जगह से उठतीं। तो उत्तर प्रदेश के हाथरस में फिर एक बेटी के सिर से पिता का छाया नहीं छीन जाता। वो बेटी आज.. पिता की अर्थी को कांधा नहीं देती।
वो बेटी ये भी सोच रही होगी हम क्यों पैदा हुए। न मेरे साथ छेड़खानी होती, न पुलिस केस होता। और न ही मेरे पिता को गोली मारी जाती। जब उससे छेड़छाड़ हुई, तब शायद अकेले पिता ने ही आवाज उठाई होगी। क्या वो गांव की बेटी नहीं थी? जिसने छेड़ा क्या वो सिर्फ एक लड़की का दुश्मन था? तब क्या महिला दिवस कभी नहीं आया। महिला अधिकार की आवाजें नहीं उठी। सब उठी होंगी, लेकिन सिर्फ अखबार के पन्नों की दो लाइनों में सिमट गईं होंगी। फेसबुक पर फोटो और कैप्शन में वायरल हुए होंगे, लेकिन बेटियों को ऐसी हालात में लाने वालों पर शायद ही किसी ने चुप्पी तोड़ी होगी, वो बेटी चिखती रही। रोती रही। आवाज उठाती रही। लेकिन हम चुप रहे। खामोश रहे। क्योंकि हम आवाज तभी उठाते हैं जब सामने कैमरे की चमक हो, लेकिन कब तक।
जब तक हम किसी आयशा और हाथरस की बेटी का दर्द को, अपना नहीं समझेंगे। आवाज नहीं उठाएंगे। तब तक समाज में एक और आयशा आएगी। छलांग लगाने के लिए नदी नहीं मिली तो बिल्डिंग से कूद जाएगी। एक और बेटी की अस्मिता लूटी जाएगी और पिता की हत्या हो जाएगी। अगर वाकई में हम नए समाज को चाहते हैं तो आवाज उठानी ही होगी। सोशल मीडिया में नहीं। अखबार के पन्नों पर भी नहीं।
सही मायनों में अपने घर से, अपने पडोस से और गांव या शहर से, ताकि वो पिता को सुकून मिले। उसकी जुबां से ये निकल सकें कि अब हमने दूसरी आयशा को नहीं खोया। उसे डूबने से पहले ही बचा लिया। तभी बेसहारे हो चुके उस पिता को सहारा मिलेगा। और तभी उस बेटी के कंधे को भी सहारा मिलेगा, जिस पर अपनी पिता के खोने का बोझ है। तभी सही मायनों में महिला दिवस मनाने पर गर्व महसूस होगा।
वरना जिंदगी का क्या ऐसे ही सोशल मीडिया तक सिमटी रहेगी। और आए दिन आयशा और हाथरस की बेटी यूं ही आंसू बहाती रहेंगी। और हम हिंदू-मुस्लमान में उलझकर ही एक दूसरे से लड़ते रहेंगे। और वो राजनीतिक रोटियां सेंकते रहेंगे।