Mukti Newspaper : मुक्ति : ऐतिहासिक गुलामी की पड़ताल करता महिलाओं का अपना अखबार
(मुक्ति : ऐतिहासिक गुलामी की पड़ताल करता महिलाओं का अपना अखबार। प्रतीकात्मक चित्र)
सविता पाठक की टिप्पणी
Mukti Newspaper : किसी अखबार का नाम लेते ही हमारे दिमाग में क्या रूप उभरता है। अमूमन कई सारी खबरों का जिक्र जिसमें घटना दुर्घटना की सूचना देना मूल मकसद होता है लेकिन कल्पना कीजिए ऐसे अखबार (Newspaper) की जिसमें घटना या दुर्घटना की सूचना ही मकसद न हो वह उसकी तह में जाकर उस घटना के कारणों की पड़ताल करना हो। ज्यादातर अखबार में न तो इसके लिए जगह होती है और न ही ऐसा करना उनकी प्राथमिकता है। 'मुक्ति' (Mukti) का अंक मुझे हाल में ही मिला है और यह एक ऐसा अखबार है जो मुख्यत महिलाओं (Womens) के लिए निकाला जाता है। अखबार को पढ़ते हुए जो बातें दिमाग में उभरी वही सांझा करना चाहती हूं।
किसी पत्र पत्रिका या अखबार को विशिष्ट तौर पर महिलाओं के लिए कहते ही ज्यादातर के दिमाग में पारम्परिक पत्रिकाओं की छवि उभर जाती है। महिलाओं को क्या पहनना चाहिए, कैसे उठना बैठना चाहिए यही उसकी विषयवस्तु होती है। इन पत्रिकाओं में दिन में क्या पहनें, रात में क्या पहनें, किस तरह चालीस के बाद भी तीस की दिखें, यही प्रमुख समस्या चिन्हित की जाती हैं। थोड़ा आधुनिक हुईं तो यह बताएंगी कि किस तरह आधुनिक गैजेट का इस्तेमाल करके जीवन का सरल बनाया जा सकता है या किस तरह पति का मिजाज ठीक किया जा सकता है।
महिलाओं की मूल समस्या के तौर यह स्थापित किया जाता है कि ज्यादातर औरतें लिपस्टिक के शेड को लेकर चिन्तित हैं इसलिए लिपस्टिक के सारे शेड पत्रिकाओं में जरूर उपलब्ध रहेंगे। कभी-कभार रोजगार की चर्चा हुई तब भी यही बात होती है कि वर्कप्लेस पर क्या पहनें। कुल मिलाकर ये पत्र-पत्रिकाएं स्त्री की पारम्परिक छवि या डेकोरेटिव छवि से बाहर ही नहीं निकलना चाहते या ठीक से कहें तो स्त्री को उसकी पारम्परिक छवि से बाहर ही नहीं निकलने देना चाहते हैं।
उनके लिए मंहगाई, बेरोजगारी, बढ़ते अपराध, पर्यावरण कोई मुद्दा नहीं है। उनके लिए समाज में बढ़ती कट्टरता कोई मुद्दा नहीं है। भले ही बढ़ती साम्प्रदायिकता और कट्टरता ने पढ़े लिखे लोगों के दिमाग को गला दिया हो। पढ़ा लिखा समाज अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल मुसलमान स्त्रियों या प्रगतिशील स्त्रियों को गाली देने उनकी बोली लगाने में इस्तेमाल कर रहा है। जबकि साप्रदायिकता, युद्धोन्माद की शिकार सबसे पहले महिलायें होती हैं। यह पूरे समाज को किस गर्त में लेकर जा रहा है इस पर एक लेख नहीं होगा न ही तथाकथित महिला पत्रिकाओं में इस पर चर्चा होगी।
आर्थिक आजादी (Economic Freedom) स्त्री की आजादी की पहली सीढी है जब बेरोजगारी बढ़ेगी तो औरत किस तरह मजबूर होकर रहती है इसका कोई जिक्र तक इनमें नहीं होगा। इन पत्रिकाओं में स्त्री के रोजगार चुनने की आजादी और जीवनसाथी चुनने की आजादी पर भी कोई लेख शायद ही मिले। ऑनर किलिंग हो या तलाक इस तरह की तमाम प्रताड़ना झेलती स्त्री के लिए कानूनी सहायता का शायद ही कोई पन्ना हो। महिलाओं से जुड़े राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय विषय तो स्वप्न सरीखा है। यह मुद्दे पत्रिकाओं के इन्डेक्स से बाहर के हैं।
'मुक्ति' का पहला अंक जब मिला तो सबसे पहले यही लगा कि ये पारम्परिक छवि से इतर औरतों के मुद्दे रखती है। वह मुद्दे क्या हैं। पितृसत्तात्मक समाज में घुटती औरत, अपनी पहचान के लिए जद्दोजहद करती औरत, अपनी पढ़ाई अपने रोजगार के लिए लड़ती औरत, छेड़खानी-बलात्कार के खिलाफ खड़ी औरत, कानून के दुहरे और दोगले रवैये से जूझती औरत है। खेतों में काम करती औरत इसका मुद्दा है। यहां यह समझाने की जरूरत नहीं पड़ती है कि खेतों में मेहनत करती औरत सिर्फ औरत नहीं है ठीक वैसे ही जैसे खेतों में काम करता पुरूष सिर्फ पुरूष नहीं वह किसान है ठीक इसीतरह वह किसान औरत है, लेकिन समाज और राजनेताओं की नजर में वह सिर्फ औरत है किसान नहीं।
इसलिए जब किसानों के संघर्ष और उनकी आत्महत्या जैसी खबरें आती है तो महिला किसान का जिक्र तक नहीं होता है। पत्रिका सिर्फ मध्यमवर्गीय स्त्रियों के मुद्दे नहीं उठाती है वह खेत मजदूर औरतें, कारखानों में काम करती औरतों का मुद्दा उठाती है। वह जल, जंगल, जमीन के लिए संघर्ष करती स्त्री को हाशिये पर नहीं ठेलती है वह उसे मुख्य मुद्दों में से एक मानती है। वह विभिन्न क्षेत्रों में मेहनत करती स्त्री से सरोकार रखती है।
इसी तरह उसके विभिन्न लेख स्त्री की ऐतिहासिक गुलामी की भी पड़ताल करते हैं, वह उस धारणा के खिलाफ भी खड़ी होती है जिसका कहना है कि औरत आदम की पसली से बनी है या फिर स्त्रियों को कोई भी बरगला सकता है। वह धर्म के उस स्त्रीद्वेषी मूल स्वभाव पर भी विचार करती है जिसमें स्त्री को तमाम तरीके से नियन्त्रित रखने की विधियां बतायी गयी है, उसकी दोयम दर्जे की स्थिति को महिमामंडित किया गया है।
इन सबके अलावा 'मुक्ति' के दूसरे अंक में एक ऐसी स्त्री का डायरी छपी जो अब भी तथाकथित आम लोगों की सोच से बहुत दूर है। कुमकुम दीदी की डायरी को प्रकाशित करके 'मुक्ति' ने अपना बहुत विस्तार किया है। सड़क, दुकान, मकान, उत्सव से लेकर हंसी मजाक तक में शारीरिक रूप से चुनौती झेल रहे लोगों की सुविधा और संवेदना का ख्याल नहीं रखा जाता है। पूरा समाज इनको लेकर सामूहिक भुलक्ड़पने का शिकार है और उस पर शर्मिन्दा तक नहीं है।
सरकार ने दिव्यांग कहकर महिमामंडित करके अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है। कुमकुम दीदी की डायरी एक शारीरिक रूप से चुनौती झेल रही स्त्री की नजर से दुनिया को दिखाती है। किस तरह समाज किसी की शारीरिक कमजोरी का जाने अनजाने फायदा उठाता है। यह सच है कि कोई अपनी बायोलोजिकल हालत को नहीं बदल सकता है आप कहां पैदा हुए है किसके यहां पैदा हुए है उसे बदल नहीं सकते हैं लेकिन कोई भी सोचने के ढर्रे में बदलाव कर सकता है। वह शारीरिक बदलाव भले ही न कर सके लेकिन अपना सांस्कृतिक बदलाव तो कर ही सकता है।
यह तभी संभव है जब वह किन्ही न किन्ही माध्यम से अपनी भौगोलिक, जातीय, धार्मिक, लैंगिक सीमाओं से बाहर निकल पाये। इन्ही माध्यमों में सबसे जरूरी है उनका कहा और लिखा सुना और पढ़ा जाय जो हमसे इतर समाज के हैं। जो समाज के हाशिये पर ठेल दिये गये लोग है। जिनके जीवन को चालाकी से उनका प्रारब्ध बताया जाता है। वो दुनिया को कैसे देखते हैं उनके लिए किसी का व्यवहार कैसे तकलीफ देने वाला होता है यह समझना जरूरी है। उनकी नजर से ही कानून,धर्म,लोक व्यवहार और परम्पराओं को समझने की जरूरत है।
सामाजिक राजनीतिक एक्टिविस्ट अमिता शीरीन ने इस अखबार की शुरूआत की है। वह और उनकी टीम का प्रयास साफ दिखता है। अखबार की शालीन भाषा,कविता कहानी और अनुभव का कोना उसका सौन्दर्य बढ़ाते हैं। अखबार महीने में एकबार निकलता है। अखबार की विषयवस्तु की विविधता देखने के बाद सद्इच्छा होती है कि काश यह पत्रिका के रूप में आये।