DNA टेस्ट मामले में सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला, पारिवारिक विवाद में जांच के लिए नहीं कर सकते बाध्य
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Supreme Court On DNA Test : सुप्रीम कोर्ट ने एक केस की सुनवाई में अहम फैसला सुनाया है। फैसले में कहा गया है कि अदालतें अपने भाई-बहनों में से किसी एक को डीएनए (DNA) परीक्षण के लिए बाध्य नहीं कर सकती हैं, जो कि दीवानी मुकदमे में लिप्त हैं। विरासत के मामले में ऐसा करना व्यक्ति के निजता के अधिकार का उल्लंघन है।
कोर्ट का मानना है कि इसमें किसी व्यक्ति को "अवैध संतान" के रूप में घोषित करने की संभावना है। एक व्यस्क नागरिक के साथ यदि ऐसी कोई घटना घटित होती है, तो नागरिक की मानसिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वह खुद को समाज में असहज महसूस करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपना यह निर्णय हाईकोर्ट द्वारा डीएनए परीक्षण पर दिए गए एक फैसले के खिलाफ़ एक आवेदन की सुनवाई के दौरान दिया है। बता दें कि हिमाचल प्रदेश के एक दिवंगत दंपति की तीन बेटियाँ निचली अदालत की एक केस में हार जाती हैं, जहां उनके भाई ने यह दावा करने के लिए एक मुकदमा दायर किया था कि वह उनके माता-पिता की संपत्ति का एकमात्र उत्तराधिकारी है। बाद में बहनें यह मामला हाईकोर्ट में ले जाती हैं, जिसमें वह भाई के डीएनए परीक्षण की मांग करतीं हैं, यह कहते हुए कि वह उनके माता-पिता का जैविक पुत्र नहीं था, जिसने उन्हें अपने माता-पिता की संपत्ति विरासत में देने से वंचित कर दिया। हाई कोर्ट ने बेटियों के हक़ में फैसला देते हुए एक आदेश ज़ारी कर दिया। युवक ने डीएनए टेस्ट कराने से इनकार कर दिया और निचली अदालत ने यह कहते हुए अर्जी खारिज कर दी कि उन्हें रक्त परीक्षण के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। लेकिन, हाई कोर्ट ने फैसला पलट दिया और उस युवक से डीएनए टेस्ट कराने को कहा।
इसी मामले की सुनवाई करते हुए, जस्टिस आर एस रेड्डी (R S Reddy) और हृषिकेश रॉय (Hrishikesh Roy) की पीठ ने कहा कि "वर्तमान जैसे मामले में, अदालत का फैसला पार्टियों के हितों, यानी सत्य की खोज और उसमें शामिल सामाजिक और सांस्कृतिक निहितार्थों को संतुलित करने के बाद ही दिया जाना चाहिए। एक व्यक्ति को अवैध के रूप में घोषित करने की संभावना, वह अपमान है जो एक वयस्क के जीवन से जुड़ जाता है। यदि व्यक्ति को अपने जीवन के परिपक्व वर्षों में अपने माता-पिता के जैविक पुत्र नहीं होने के रूप में दिखाया जाता है, तो न केवल उसके मानसिक संतुलन को बिगाड़ देता है, बल्कि उसके निजता के अधिकार पर भी आघात करता है।"
सुप्रीम कोर्ट ने मामले में पाया कि याचिकाकर्ता ने अपने आवेदन को सही साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत पेश किए हैं। अदालत ने कहा कि ऐसी परिस्थिति में उसे डीएनए परीक्षण के लिए मजबूर करना उसके नीजी जीवन आधार का उल्लंघन होगा। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए निचली अदालत के फैसले को बहाल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ऐसे मामलों में अदालत को वैध कारणों की जांच करनी चाहिए कि क्या वे केवल किसी की जिद्द का नतीजा तो नहीं हैं। जिस व्यक्ति का डीएनए परीक्षण कराया जाना है उसके मानसिक परिस्थिति पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।