Agricultural Bill Repealed : न खुशी और न गम, पीएम मोदी की घोषणा के बाद से किसान नेता चुप क्यों?
निर्णायक मोड़ पर किसान आंदोलन।
किसान आंदोलन पर धीरेंद्र मिश्र का विश्लेषण
नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ( Prime Minister Narendra Modi ) ने 19 नवंबर की सुबह जैसे ही तीनों कृषि बिलों के वापसी ( Agriculture Bill Repealed ) की घोषणा की, सोशल मीडिया से लेकर खबरिया चैनलों और पोर्टलों पर हलचल तेज हो गई। हाई वोल्टेज ड्रामे की धमक दुनियाभर में दिखाई दी। चारों तरफ से सियासी बयानों की बाढ़ आई गई। सुबह से देर रात तक खबररिया चैनलों पर यही छाया रहा। इन सबके बीच एक सवाल बार-बार उठने लगा कि साल भर के आंदोलन ( Kisan Andolan ) के बीच एक समय कदम पीछे न खींचने की जिद पर अड़ी मोदी सरकार ( Modi Government ) आखिर अचानक तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए राजी कैसे हो गई?
पिछले तीन दिनों में स्थितियां बदल गई हैं। मिठाई बांटने वाले किसान नेता आज चुप हैं। 'किसान स्वाभिमान और टूटा अभिमान' का नारा देने वाले भी शांत होने लगे हैं। इस बीच किसान संगठनों के नेताओं का 'धर्म संकट' समझ से परे है। वो न तो इसकी खुशी मना पा रहे हैं न ही पीएम के ऐलान पर रो रहे हैं। न खुशी न गम के 'द्वंद्व' में किसान ( अन्नदाता ) 'मौन' हो गए हैं। पर क्यों, आज यही अहम सवाल है। आइए, आज हम इसी पर चर्चा करते हैं।
जानिए, 'मौन की वजह...
दरअसल, तीनों कृषि कानूनों की वापसी को लेकर जारी किसान आंदोलन के पीछे कई 'ध्येय' थे। लेकिन इनमें से एक भी ध्येय पीएम मोदी की घोषणा से पूरी नहीं हुई है। अगर शीतकालीन सत्र के दौरान संसद से तीनों किसान बिल वापस ले भी लिए गए तो भी किसानों के लिए स्थितियां 'पुनर्मुशिकों भव', वाली ही होगी। यानि किसान एक बार फिर वहीं पहुंच जाएंगे, जिस स्थिति में कांग्रेस के राज या फिर यूं कहें कि 2014 से पहले थे। यह स्थिति किसनों के लिए 'विन-विन' की नहीं है।
अब आप कहेंगे कि किसान 'रो' क्यों नहीं रहे हैं, तो इसका जवाब यह है कि किसान संगठनों के नेता मांगें न माने जाने की स्थिति में 2024 तक आंदोलन को चलाने की जिद पर अड़ गए थे। हकीकत यह है कि वो 'आंदोलन' चला भी रहे थे। दुनिया भर में मैसेज गया कि भारत का किसान झुकने वाला नहीं है। इस तरह से उन्होंने अपने लिए खुद एक 'लक्ष्मण रेखा' खींच ली थी। इस रेखा की वजह से किसान नेता 'सियासी चक्रव्यूह' में फंस गए थे, और चाहते हुए बाहर नहीं निकल पा रहे थे। पीएम मोदी ने बिलों की वापसी की घोषणा कर किसानों को 'चक्रव्यूह' से बाहर तो निकाल लिया, पर नया कुछ देने का ऐलान भी नहीं किया है। बस, यही वो 'परिस्थिति' है, जिसकी वजह से किसान नेता 'मौन' हैं। आखिर वो करें तो क्या करें?
फैसला कब?
किसान नेता यही कह रहे हैं कि बिलों की वापसी के ऐलान के बाद न तो मुझे खुशी है न ही गम। बाकी जो भी संयुक्त किसान मोर्चा कमेटी फैसला लेगी, वह फैसला हम लोगों को मंजूर होगा। अब यहां पर 'पेंच' फंसा है। तीन दिन बाद भी संयुक्त किसान मोर्चा की आधिकारिक बैठक नहीं हुई, न ही आंदोलन को लेकर कोई अंतिम फैसला सामने आया है।
किसान नेताओं के सामने यक्ष प्रश्न
पीएम मोदी की ओर से कृषि कानून वापसी की घोषणा के बाद किसान नेता इस 'दुविधा' में हैं कि यहां घर लौटने के बाद वे अपने—अपने किसानों को जवाब क्या देंगे? अगर उन्होंने पूछ लिया एक साल के आंदोलन से क्या मिला। इस सवाल का जवाब किसान नेताओं के पास वर्तमान में कुछ नहीं है। केवल इतना कि 700 किसान शहीद हो गए। यही वजह है कि अब तीन मुद्दों पर सबसे ज्यादा किसान नेता मंथन कर रहे हैं। पहला सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि MSP पर लिखित में कानून बनाए, दूसरा देशभर के किसानों पर दर्ज 10 हजार से अधिक मुकदमों को बिना किसी लाग लपेट के वापस ले और तीसरा ये कि 700 शहीद किसानों के परिवार के एक सदस्यों को सरकारी नौकरी दे। अगर केंद्र सरकार ये बात मान लेती है तो किसान जैसे-तैसे साख बचा ले जाएंगे।
पीएम के ऐलान के पीछे का 'कानूनी सच'
ये बात सही है कि पीएम मोदी ने प्रकाश पर्व पर तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी है, लेकिन इसका दूसरा स्याह पक्ष यह है कि इसका कानूनी या संवधानिक वजूद अभी नहीं है। केवल इतना भर है कि पीएम ने आश्वासन दिया है तो उस पर अमल जरूर होगा। ऐसा इसलिए कि कोई भी पहलू कानून या विभागीय रूल्स बनने के तीन आधार होते हैं। संसद के दोनों सदन में संबंधित प्रस्ताव पास हो जाएं और राष्ट्रपति उस पर अपनी मुहर लगा देंं। दूसरा पहलू यह है कि मंत्रिमंडल सामूहिक तौर पर इसका फैसला ले। ऐसी स्थिति में कार्यकारी आदेश के तहत उसे कानून मान लिया जाता है। तीसरा पहलू यह है कि अदालत ने अपना फैसला सुनाया हो। पीएम मोदी के ऐलान को इनमें से किसी भी दायरे में नहीं आता। यानि किसानों को अभी भरोसा मिला है, वो इसे कानूनी हक के रूप में नहीं ले सकते।
आंदोलन के सियासी 'निहितार्थ'
अगर किसान अपना आंदोलन वापस ले लेते हैं तो आगामी पांच राज्यों में विपक्ष को इसका नुकसान होगा। ऐसा इसलिए कि सरकार के पास किसानों को अपने पक्ष में करने के लिए अभी समय है। भाजपा सत्ताधारी पार्टी होने की वजह से इसका लाभ उठा सकती है। पंजाब में अकाली दल से फिर गठबंधन हो सकता है। अकाली दल की मांग यही थी कि मोदी सरकार कृषि कानूनों को वापस ले। वेस्ट यूपी में किसानों की नाराजगी का बीजेपी के चुनावी प्रदर्शन पर असर कम होगा।
दूसरी तरफ विपक्ष का कुनबा बिखरेगा। हालांकि, कृषि बिलों की वापसी का विपक्ष अपनी जीत के रूप में दावे के साथ रख सकता है, लेकिन आंदोलन वापस होते ही सियासी रुख बदलेगा। इस बात की जानकारी विपक्ष को भी है। इसका लाभ सीधे बीजेपी व उनके सहयोगी दल उठा सकते हैं। विपक्ष के साथ समस्या यह है कि अगर यूपी में असर नहीं छोड़ पाए तो नवंबर, 2021 में गुजरात और हिमाचल चुनाव में बीजेपी को दबाव में लेना होगा मुश्किल होगा। साथ ही 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी मजबूती से चुनाव लड़ेंगी। फिर विपक्ष के पास किसान असंतोष ही सबसे बड़ा सियासी 'हथियार' है। पिछले एक साल से विपक्ष ने इसे भुनाया भी है। इसी हथियार को विपक्ष ने 'तूनीर' से निकाल फेंक दिया तो उसके पास मोदी सरकार पर 'वार' करने के लिए प्रभावी हथियार ही नहीं होंगे।
चूको मत 'किसान'
अगर ऐसी स्थिति बनीं तो किसानों को नए सिरे से मोदी सरकार के खिलाफ दम दिखाने होंगे। हालांकि, ऐसा होना आसान नहीं है। किसानों के हाथ में अभी भी मौका है। देखना है कि वो इसका इस्तेमाल अपने हित में कर पाते हैं या नहीं।