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विमर्श

न्यूज़ीलैण्ड में कृषि भूमि पर सरकारी दखलंदाजी के खिलाफ किसानों का चल रहा बड़ा आंदोलन, अबतक 51 शहरों में हो चुके प्रदर्शन

Janjwar Desk
19 July 2021 4:35 PM IST
न्यूज़ीलैण्ड में कृषि भूमि पर सरकारी दखलंदाजी के खिलाफ किसानों का चल रहा बड़ा आंदोलन, अबतक 51 शहरों में हो चुके प्रदर्शन
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(किसानों का सबसे अधिक विरोध नए पर्यावरण कानूनों से है।)

किसानों का सबसे अधिक विरोध नए पर्यावरण कानूनों से है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों से वहां के पर्यावरण से सम्बंधित जितनी भी सरकारी या गैर-सरकारी रिपोर्ट प्रकाशित की गयी है, हरेक ऐसी रिपोर्ट तेजी से नष्ट होते पर्यावरण की स्थिति को उजागर करती है.....

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। नए और सख्त पर्यावरण कानूनों, बढ़ती कीमतों, और कृषि भूमि पर सरकारी दखलंदाजी से तंग किसान न्यूज़ीलैण्ड में हरेक शहर और कसबे में ट्रैक्टर रैली का आयोजन कर रहे हैं। ऐसे आन्दोलन न्यूज़ीलैण्ड के 51 से अधिक शहरों और कस्बों में आयोजित किये जा चुके हैं, पर राजधानी वेलिंगटन को किसानों ने अपने आन्दोलन से दूर रखा है। यह एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का हिस्सा है, और इसका आयोजन छोटे किसानों, श्रमिकों और छोटे व्यापारियों के एक संगठन, ग्राउंड्सवेल न्यूज़ीलैण्ड ने किया है।

माना जा रहा है कि शांत से माने जाने वाले न्यूज़ीलैण्ड में यह किसी भी किस्म का सबसे बड़ा आन्दोलन है। ऑकलैंड में किसान शहर के मध्य में स्थित सिटी सेंटर तक पहुँच गए, वैन्गेरी में किसानों ने एक बड़े स्टेडियम में डेरा डाल दिया और डूनेडीन में किसानों ने पांच किलोमीटर लंबा ट्रैक्टर मार्च निकाला।

किसानों का सबसे अधिक विरोध नए पर्यावरण कानूनों से है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों से वहां के पर्यावरण से सम्बंधित जितनी भी सरकारी या गैर-सरकारी रिपोर्ट प्रकाशित की गयी है, हरेक ऐसी रिपोर्ट तेजी से नष्ट होते पर्यावरण की स्थिति को उजागर करती है। वहां जल-संसाधन प्रदूषित हो चुके हैं, जैव-विविधता का तेजी से विनाश हो रहा है, कृषि और उद्योगों के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन कम करने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी बढ़ता जा रहा है।

वर्ष 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार 4000 से अधिक स्थानिक प्रजातियाँ विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रही हैं, दो-तिहाई से अधिक संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो रहा है और पहले जितना दलदली क्षेत्र था अब उसका महज 10 प्रतिशत ही बचा है। न्यूज़ीलैण्ड में नदियों का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा तैरने लायक नहीं रहा गया है क्योंकि नदियों में खेतों से और उद्योगों से पानी पहुंचता है। जलवायु परिवर्तन रोकने के मामले में न्यूज़ीलैण्ड बहुत पीछे है और जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित इंडेक्स में इसका स्थान 28वां है। हाल में ही न्यूज़ीलैण्ड ने नए पर्यावरण संरक्षण क़ानून बनाए हैं जिसका विरोध किसान कर रहे हैं।

ग्राउंड्सवेल के ब्राइस मैकेंजी के अनुसार किसानों को पर्यावरण संरक्षण का महत्त्व पता है, और अधिकतर किसान इस दिशा में काम भी करते हैं। पर, एक ही क़ानून से बढे और छोटे किसानों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, इसीलिए छोटे किसान इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के साथ ही बहुत सारे संस्थाओं की रिपोर्ट के अनुसार छोटे किसानों से पर्यावरण का विनाश बहुत कम हूट है, क्योंकि वे संसाधनों की कमी से जूझते हैं और पानी, खाद और कीटनाशकों का उपयोग केवल उतना ही करते हैं जितने की वाकई में जरूरत है।

पर्यावरण और जैव-विविधता को नुकसान पहुंचाने वाले बहुत बड़े किसान हैं जो औद्योगिक खेती कर रहे हैं| दूसरी बड़ी समस्या है, इन कानूनों के तहत छोटे किसानों को इससे सम्बंधित तैयारी के लिए कोई समय नहीं दिया गया है, और छोटे किसान इतनी जल्दी बहुत बड़ा बोझ उठाने को तैयार नहीं हैं। किसानों की एक महत्वपूर्ण मांग यह भी है कि जो भी क़ानून लागू हों उनकी जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन को सौप दी जाए क्योंकि स्थानीय प्रशासन अपने क्षेत्र की समस्याओं को अच्छी तरह जानता है और इससे जुडी किसानों की समस्याओं को भी।

न्यूज़ीलैण्ड में सभी प्रकार के वाहनों के लिए, क्लीन कार पॅकेज, भी लागू किया गया है, जिसके तहत कम प्रदूषण वाले वाहनों को खरीदने के लिए सरकारी रियायत होगी और अधिक प्रदूषण वाले वाहनों पर भारी टैक्स लादा जाएगा। किसानों का कहना है कि इस क़ानून से सबसे अधिक नुकसान उन्हें होगा क्योंकि ट्रैक्टर, थ्रेशर और दूसरे कृषि उपकरण भारी वाहन होते हैं, जिसमें कम प्रदूषण का विकल्प भी नहीं है, इसलिए सरकार इन यंत्रों और वाहनों को बहुत महंगा कर देगी।

छोटे किसानों की समस्याएं केवल भारत या न्यूज़ीलैण्ड में ही नहीं है, बल्कि दुनियभर में है। सबसे उपेक्षित और समस्याग्रस्त किसानों का तबका यही है, जबकि दुनिया से भूखमरी कम करने और संकट के समय छोटे किसान ही काम आते हैं। हाल में ही फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन समेत संयुक्त राष्ट्र के 6 संस्थाओं की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कोविड 19 के दौर में दुनिया में भुखमरी और कुपोषण की समस्या बड़ी है, पर यह समस्या और भी विकराल होती यदि छोटे किसानों ने अन्न उत्पादन और स्थानीय स्तर पर इसके वितरण में मदद नहीं की होती।

दुनियाभर में औद्योगिक पैमाने पर की जाने वाली खेती का विरोध किया जाने लगा है, हमारे देश में भी किसान आन्दोलनों की बुनियाद यहीं से शुरू होती है। अमेरिका में 1980 और 1990 के दशक में किसानों ने बड़े आन्दोलन किये, पर नतीजा कुछ नहीं निकला। अधिकतर छोटे और मझोले किसान अब अमेरिका में खेती छोड़ चुके हैं। वर्ष 2019 में यूरोप के अनेक देशों, जिनमें जर्मनी, फ्रांस, आयरलैंड और नीदरलैंड प्रमुख हैं, में किसानों ने बड़े प्रदर्शन किया।

जर्मनी के बर्लिन में लगभग 8600 ट्रेक्टर पर 40 हजार किसानों ने प्रदर्शन किया था, फ्रांस की राजधानी पेरिस में 1000 ट्रेक्टर सडकों पर उतारे गए थे। ऐसे हरेक प्रदर्शन में छोटे किसानों ने हिस्सा लिया था, जिनकी मांग थी कि कृषि से सम्बंधित नीतियाँ छोटे किसानों को ध्यान में रखकर बनाई जाएँ, ना की केवल बड़ो किसानों के हितों को धान में रखकर। उन्मुक्त बाजार का भी विरोध था, जिसके चलते किसानों को फसलों की उचित कीमत नहीं मिल पाती है। बड़ी मांगों में एक मांग पर्यावरण से सम्बंधित थी कि पर्यावरण विनाश के लिए किसानों को जिम्मेदार नहीं बताया जाए।

इन मांगों पर जब आप गहराई से विचार करेंगें तो पायेंगें कि हमारे देश के किसानों की समस्याएं भी यही हैं। यहाँ पर भी वायु प्रदूषण का एकलौता स्त्रोत खेतों में जलाई जाने वाली पराली को ठहरा दिया जाता है, और सरकारें और न्यायालय इसके लिए जुर्माना भी वसूलते हैं। फसलों की उचित कीमत यहाँ भी नहीं मिलाती और ना ही इसकी कोई योजना है। सरकार ने जिन कृषि कानूनों को लागू किया है, उसके अनुसार फसलों की खरीद और सस्ती दरों पर की जायेगी, जिससे किसानों को और अधिक घाटा होने की आशंका है।

फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में दुनिया में 83 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम कृषि भूमि है, यह कृषि भूमि सम्मिलित तौर पर दुनिया की कुल कृषि भूमि का 12 प्रतिशत है फिर भी छोटे किसान दुनिया के कुल अन्न उत्पादन में 35 प्रतिशत से अधिक का योगदान करते हैं, हमारे देश में छोटे किसानों के पास सम्मिलित तौर पर कुल 46 प्रतिशत कृषि भूमि है, पर अन्न उत्पादन में इनका योगदान 51 प्रतिशत से अधिक है। हमारे देश में 70 प्रतिशत से अधिक महंगी फसलों का उत्पादन छोटे किसान ही करते हैं।

छोटे किसान और खेत पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाते हैं, फिर भी हरेक नियम क़ानून सभी किसानों पर एक साथ थोपे जाते हैं। समस्या यह है कि दुनियाभर में नीति निर्धारक कृषि के बारे में जानते नहीं, इसकी समस्याओं को नहीं जानते और विमर्श भी केवल बहुत बड़े किसानों से ही करते हैं – नतीजा स्पष्ट है, छोटे किसान हरेक देश में उपेक्षित रह जाते हैं।

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