कोर्ट के आदेश के बावजूद पर्यावरण मंत्रालय ने किया वन कानूनों का उल्लंघन, परियोजनाओं के लिए सौंपी आदिवासियों की हजारों हेक्टेयर जमीन
(राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान वन डायवर्सन के लिए सौ से अधिक परियोजनाओं को स्वीकृति दी गयी थी।)
राज कुमार सिन्हा का विश्लेषण
जनज्वार। 6 जुलाई 2021 को पर्यावरण व वन मंत्रालय और जनजातीय कार्य मंत्रालय ने वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन पर सभी राज्य सरकारों को संयुक्त वक्तव्य जारी किया है। यह संयुक्त वक्तव्य इस महत्वपूर्ण कानून को और भी कमजोर कर सकता है क्या? जबसे वन अधिकार अधिनियम 2006 पारित हुआ है उस समय से वन विभाग उसको कमज़ोर करने के प्रयास में रहा है।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस कानून का बचाव गंभीर रूप से नहीं किया था। जिसकी वजह से फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक आदेश जारी हुआ कि जिनका दावा निरस्त हुआ है उसे अपात्र मानकर वनभूमि से बेदखल किया जाए।
जिसके परिणामस्वरूप लाखों परिवारों को बेदखल कर दिया गया होता। आदिवासी और अन्य जंगलवासियो के राष्ट्रव्यापी विरोध के बाद सरकार ने न्यायालय को अपने आदेश पर रोक लगाने में सफलता हासिल की लेकिन तबसे सरकार ने उस मामले में या कानून के कार्यान्वयन और अधिकारों की मान्यता सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी नहीं किया है। इसके बजाय अधिकांश प्रमुख राज्यों में इस कानून का कार्यान्वयन लगभग शून्य हो गया है।
केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय ने केवल अस्वीकृत दावों की समीक्षा पर ध्यान केंद्रित किया है। इस बीच पर्यावरण मंत्रालय उन नीतियों को आगे बढ़ा रहा है और लागू कर रहा है जो वन अधिकार अधिनियम की अनदेखा करता है या सीधे उल्लंघन करते है। जिसमें क्षतिपूर्ति वनीकरण निधि अधिनियम 2016 पारित करना शामिल है जो वन अधिकारों को ले कर एक शब्द भी नही कहता है।
2019 में भारतीय वन कानून 1927 को और जनविरोधी - दमनकारी बनाने की मनसा से संशोधन हेतु प्रस्ताव करना, बार-बार वनों को वनीकरण के लिए निजी कंपनियों को सौंपना , वनीकरण के नाम पर आदिवासियों और अन्य जंगलवासियों द्वारा उपयोग की जाने वाली ज़मीन तथा खेती की जानेवाली ज़मीन पर ज़बरन पेड़ लगाना और उस जमीन से बेदखल करना शामिल है।
बार-बार कानून की स्पष्ट आदेश के बावजूद विकास परियोजनाओं और निजी कंपनियों के लिए जंगलों को डाइवर्ट करने से पहले वन समुदायों की सहमति का अनिवार्यता को पर्यावरण मंत्रालय ने उलंघन किया और हजारों हेक्टेयर भूमि को परियोजनाओं के लिए सौंप दिया है। हाल ही में राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान वन डायवर्सन के लिए सौ से अधिक परियोजनाओं को स्वीकृति दी गयी थी। ऐसे समय में जब वन अधिकारियों के पास आदिवासियों और जंगलवासियों के ग्राम सभाओं की सहमति लेने का कोई तरीका नहीं था, जैसा कि कानून द्वारा आवश्यक था।
उदासीनता और अवैधता की इस परिस्थिति के बीच नया संयुक्त वक्तव्य आया है। पहली नज़र में यह सालों की खामोशी के बाद एक योग्य बदलाव जैसा लगता है। लेकिन यह शुरुवात में ही घोषणा करता है कि "वन अधिकार कानून के कानूनी ढांचे के संबंध में कोई टकराव नहीं रही है" (पैरा 3) – एक बयान जो तथ्यो से बिलकुल परे है। और इसमे वन अधिकार समिति एवं महिला की भूमिका के बारे में भी कुछ नही कहा गया है।
संयुक्त वक्तव्य वास्तव में तीन महत्वपूर्ण तरीकों से वन अधिकारों को कमजोर कर सकता है:
सामुदायिक वन प्रबंधन: –
सदियों से वन -अतिक्रमणकारी माने जाने वाले आदिवासी और जंगलवासियों को पहली बार वन अधिकार अधिनियम वनों की रक्षा और प्रबंधन का कानूनी अधिकार से सशक्त करता है । यह अधिकार एक कानूनी अधिकार है जो किसी वन विभाग द्वारा नियंत्रित व्यवस्था का स्थान लेता है। लेकिन इसकी अमल बहुत कम क्षेत्रों में हुई है, और अब नया संयुक्त वक्तव्य कहता है कि वन अधिकारियों को योजना तैयार करने में ग्राम सभाओं की सहायता करनी चाहिए और संयुक्त वन प्रबंधन जो पूरी तरह से वन विभाग का नियंत्रित योजना है, उससे हुई लाभों का उपयोग किया जाना चाहिए।
इस पत्र का पैराग्राफ (6) में इससे भी अधिक चिंताजनक बात है। नियमों और यहां तक कि जनजातीय कार्य मंत्रालय के दिशा निर्देशों के अनुसार वन संरक्षण के लिए ग्राम सभा द्वारा लिए गए निर्णय और योजनाएं वन विभाग द्वारा नियंत्रित संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम का स्थान लेगी जो वन अधिकारियों पर तथा अन्य संस्थानों पर बाध्यकारी होंगी । इसलिए ये पैराग्राफ वन विभाग के लिए एक बार फिर से अपने फरमानों को लागू करने का प्रयास करने का लाइसेंस बन सकता है।
2019 में जो भारतीय वन कानून 1927 के संशोधन का जो प्रस्ताव था उसमें भी इसी तरह की मंशा थी कि वनों को निजि कंपनियों के हाथों दे दिया जाये जिससे खनिजों का दोहन, उर्जा, विकास परियोजना, पर्यटन एवं जलवायु परिवर्तन पर काम किया जा सके।
आदिवासियों और जंगलवासियों के लिए आय का केंद्रीय स्रोतों में से एक लघु वनोपज अधिनियम के अनुसार स्थानीय समुदायों की संपत्ति है। अधिकांश प्रमुख राज्यों ने इस प्रावधान को नजरअंदाज किया है और वन विभाग के अधिकारियों को लघु वनोपज पर एकाधिकार की अनुमति देना जारी रखा है। यह संयुक्त वक्तव्य परोक्ष रूप से राज्य के वन विभाग को निरंकुश अधिकार को और संबृद्ध करता है।जैसा कि पैरा 8 (i) में वनोपज मूल्य श्रृंखला वृद्धि के लिए परियोजनाओं को शुरू करने का निर्देश देकर इस प्रथा को मजबूत करता है।
अधिनियम कहता है कि जनजातीय कार्य मंत्रालय वन अधिकारों पर दिशा-निर्देश जारी करने के लिए नोडल एजेंसी होगी, और वास्तव में अधिनियम के पारित होने के समय केंद्र सरकार अपनी बिज़नेस-रूल्स (विभागों की ज़िम्मेदारी )को संशोधित किया था । वन अधिकार संबंधित कार्य के क्रियान्वयन हेतु जनजातीय कार्य मंत्रालय को इस क्षेत्र में लाया गया था। ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वन विभाग कानून को हाईजैक करने का प्रयास न करें।
लेकिन नया संयुक्त वक्तव्य कहता है कि राज्य सरकारों को केंद्र सरकार से वन-अधिकार संबंधित कोई स्पष्टीकरण मांगे जाएंगे तब पर्यावरण व वन मंत्रालय और जनजाति मंत्रालय दोनों मिलकर निर्देशित करेंगे। इस तरह केंद्र सरकार के तरफ से वन विभाग के लिए कानून का कार्यान्वयन को नियंत्रित करने के लिए एक और रास्ता खुल गया जबकी कानून स्वयं विशेष रूप से उन्हें उस भूमिका से इनकार करता है।
आदिवासी मंत्रालय की मदद से वन विभाग एवं अन्य सम्बंधित विभाग क्षमतावर्धन के कार्यक्रम करेंगे। जिससे संसाधनों के उपयुक्त उपयोग एवं रख रखाव व संरक्षण सुनिश्चित हो सके। लेकिन वन अधिकार कानून के अतर्गत वन आधिकार समिति को शामिल करते हुये महिला सदस्यों के क्षमतावर्धन पर विशेष प्रयास किये जाने चाहिए जिस से वनों का उचित प्रबंधन व देख रेख हो सके।
वन अधिकार कानून की मूल भावना के अनुरूप आदिवासी समुदायो एवं गैर परम्परागत वन आश्रित समुदायो के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों की पहचान करके उन्हें मान्यता दिये जाने की कार्यवाही में तेजी लाया जाना चाहिए। कल्याण केन्द्रित अभिकरण सभी दावों पर प्रक्रिया , लंबित व अस्वीकृत दावों की समीक्षा करके लोगों के अधिकार सुनिचित करे। साथ ही साथ इन समुदायो की सभी विकास , ओधोगिक व संरक्षण परियोजनाओ के लिए बेदखली पर रोक लगा दी जाये। जब तक की हकों के सुचारू निपटारे की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।
(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हैं।)