Domestic Workers Strike Pune History: 1980 में हुए पुणे घरेलू कामगार हड़ताल की एक झलक
Domestic Workers Strike Pune History: 1980 में हुए पुणे घरेलू कामगार हड़ताल की एक झलक
Domestic Workers Strike Pune History: 16 जून 2011 को अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के "कन्वेंशन 189" पारित हुआ था और उसी आधार पर इस दिन को अंतरराष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस के रूप में मनाया जाता हैं. लेकिन इस अधिवेशन के 11 साल गुजर जाने के बाद भी भारत में राष्ट्रीय स्तर पर घरेलू कामगारों को लेकर कोई कानून नहीं बना है. आज भी घरेलू कामगार सम्मानजनक कार्य स्थिति एवं ट्रेड-यूनियन अधिकार की मांग को लेकर संघर्ष कर रहे है. इस अवसर पर आज हम महाराष्ट्र के पुणे शहर की घरेलू कामगार बहनों की कहानी आपके साथ साँझा करना चाहते है, जिन्होंने 1980 में न सिर्फ अपने अधिकारों को लेकर हड़ताल की, बल्कि संगठित संघर्ष के जरिये उन्होंने वहां, कई जगह, घरेलु कामगारों के लिए सवेतनिक छुट्टी, वेतन मे वृद्धि, बोनस और ग्रेजुटी के अधिकारों को भी हासिल किया.
1980 में पुणे शहर (महाराष्ट्र) में घरेलू कामगारों की एक हड़ताल हुई। इसमें शमिल होने वालों में अधिकांश महिलाएं थीं। बीमार होने की स्थिति में सवेतनिक छुट्टी, और वेतन मे वृद्धि की मांग के साथ यह आन्दोलन शुरू हुआ और यहीं से "पुणे शहर मोलकर्णी (घरेलू कामगार) संगठन" का गठन हुआ। इसके बाद नियोक्ताओं के साथ लंबी बातचीत हुई जिसके परिणामस्वरूप शहर में इस संघ की महत्वपूर्ण जीत हुई और व्यक्तिकेन्द्रित कार्यसंबंधों को पेशेवर, संविदात्मक कार्यसंबंधों में बदल दिया गया। यह शायद देश में पहली बार हुआ था, जब घरेलू कामगारों ने हड़ताल कर दी थी और एक शहर-व्यापी संगठन बनाया था।
सन 1980, फरवरी महीने का एक दिन। खंडारेबाई नाम की एक घरेलू कामगार,, जो पुणे शहर की करवे रोड पर एक घर में काम करती थी, अचानक बीमार पड़ गई और छुट्टी पर चली गई। जब वह काम पर वापस आई, तो उसे पता चला कि उसे नौकरी से निकाल दिया गया है। जब उसने इस बारे में पूछताछ की तो उसे मालकिन ने बताया कि उसने चार दिन की छुट्टी बोलकर वो छह दिन तक काम पर नहीं आई थी। इसलिए उन्होंने उसकी जगह किसी अन्य घरेलू कामगार को काम पर रख लिया। खंडारेबाई ने इस बारे में अन्य घरेलू कामगारों, जैसे पद्माताई सुतार और सुभद्राताई कंडारे से बातचीत की। तीनों ने फैसला लिया कि वें इस बारें में इलाके की सभी घरेलू कामगारों से चर्चा करेंगे। खंडारेबाई के साथ हुए बर्ताव को देखकर अन्य घरेलू कामगारों को काफी गुस्सा आया, क्योंकि उनका अनुभव भी खंडारेबाई जैसा ही रहा था। मजदूरों के समूह ने सबसे पहले उस महिला को घेरा, जिसने खंडारेबाई की जगह ली थी और सभी ने उसे काफी खरी-खोटी सुनाई। वे उसे दुसरों के दुखों का फ़ायदा उठाने वाली के रूप में देख रहे थे। इस समूह की एकमात्र जीवित महिला "कंदारे" घटना को याद करते हुए बताती हैं:
पड़ोस में एक मोलकर्णी [खंडारेबाई] काम करती थी। अगले घर की एक और मोलकर्णी ने उसका काम ले लिया। फिर हमने उससे पूछा, "तुमने उसका काम क्यों ले लिया?" उसने बड़ी रुखाई से जवाब देते हुए कहा कि, "इससे तुम्हें क्या दिक्कत है?" उसके इस वर्ताव पर मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने उससे कहा कि वह अभद्र भाषा का प्रयोग न करे। मैंने कहा, "तुमने उसका काम लिया, अब उसे उसका काम वापस दे दो और वह घर छोड़ दो।" पर उसने कहा कि वह घर नहीं छोड़ेगी और वहीं काम करती रहेगी। फिर हम उससे लड़े। मैंने उसे एक हाथ से पकड़ा और काफी मारा। उसके बाद हम बाहर आए और वाड़ा के गेट पर शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की। वहां एक व्यक्ति ने कहा कि घटना घर के अंदर हुई और इसलिए कोई शिकायत दर्ज नहीं की जायगी। इसके बाद हम सभी परिसर से बाहर आ गए। एक तरफ कई अन्य मोलकर्णियां खड़ी थीं, उन्होंने हमसे पूछा, "क्या हुआ?" हमने उन्हें बताया कि एक दूसरी मोलकर्णी ने हमारी सहेली का काम ले लिया है और हमारा उससे झगड़ा हुआ। तभी हमने विरोध में एक जुलूस निकालने का फैसला लिया, और हमारे साथ कुछ अन्य लोग भी शामिल हो गए।
फिर हम चर्चा करने लगे कि आगे क्या करना है? हम सभी फिर वहां गए जहां खंडारेबाई काम करती थी। घर की मालकिन से हमने खंडारेबाई को नौकरी वापस देने की अपील की। लेकिन जब हमारी अपील को नही सुना गया, तो हम सब वहां से बाहर निकल आए और रास्ते में मिलने वाली सभी घरेलू कामगारों को घटना के बारे में बताया। यह भी बताया कि हम सब हड़ताल पर हैं। देखते ही देखते एक घंटे के भीतर करवे रोड की तक़रीबन 150 महिलाओं ने अचानक काम बंद कर दिया। यह काम से बर्खास्तगी के खिलाफ एक स्वतःस्फूर्त हड़ताल थी।
पुणे शहर में घरेलू कामगारों की हड़ताल और संगठन के बारे में बताने वाली यह महिला - कंदारे अब तक़रीबन 60 साल की हो गई है और अभी भी घरेलू कामगार के रुप में काम करती हैं। कंदारे जी पुणे शहर मोलकर्णी संगठन के सबसे पुराने स्थायी सदस्यों में से एक है। इस संगठन को इसी हड़ताल के परिणामस्वरूप बनाया गया था। इस बीच, खंडारेबाई का निधन हो गया।
पहली नजर में ऐसा लगता है कि बर्खास्तगी की एक ही घटना के जवाब में महिलाएं हड़ताल पर चली गईं थी। लेकिन अगर इसको ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि घरेलू कामगारों का यह क्षेत्र लम्बे समय से उपेक्षित रहा है। किरण मोगे, जो अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ (एडवा) से संबंधित एक नारीवादी कार्यकर्त्ता एवं पुणे के घरेलू कामगारों के अधिकारों को लेकर मुखर रही हैं, उन्होंने हड़ताल के सामाजिक और आर्थिक संदर्भ पर चर्चा करते हुए बताया हैं कि: "मुझे लगता है कि इस "स्वतःस्फूर्त हड़ताल" को उस समय के आर्थिक संकट के सन्दर्भों में देखा जाना चाहिए । वे (घरेलू कामगार) खुद को बहुत शोषित महसूस कर रहीं थीं, और हालांकि उन्होंने इस मुद्दे को सीधे कम वेतन से नहीं जोड़ा, लेकिन उन्हें लगने लगा था कि उनकी मजदूरी उनके अपने जीवन को चलाने के लिए पर्याप्त नहीं है ... उसी से यह चेतना पैदा हुआ।"
बढ़ती महंगाई के बावजूद वर्षों से मजदूरी में खास वृद्धि नहीं हुई थी और श्रमिकों को सवेतनिक छुट्टी का कोई अधिकार नहीं था। मजदूरों ने महसूस किया कि उनके साथ बहुत अपमानजनक व्यवहार किया जा रहा है। इसके बावजूद कि इन महिलाओं को राजनीतिक संगठन का कोई पूर्व अनुभव नहीं था, उन्होंने खुद की ताकत को पहचाना और हड़ताल करने का फैसला किया। उस समय पुणे के औद्योगिक कर्मचारियों ने भी ऐसी हड़ताल कई बार की हुई थी, उनको देखते हुए इन महिलाओं को पता था कि हड़ताल के परिणामस्वरूप वेतन में वृद्धि हो सकती है। लेकिन उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि आंदोलन कैसे करना है या हड़ताल के तौर पर आगे कैसे बढ़ना है? इसे कब तक जारी रखना होगा, एवं इसके क्या परिणाम होंगे ? वे जानती थीं कि न केवल कारखाने के कर्मचारी बल्कि डॉक्टर, नर्स, अधिकारी और अन्य भी अपनी मांगों को मनवाने के लिए हड़ताल करते हैं, जुलूस निकलतें हैं. जब उनका जुलूस लक्ष्यहीन रूप से आगे बढ़ रहा था, तब वे महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के कुछ अन्य हिस्सों में सक्रिय लाल निशान पार्टी से जुड़े एक यूनियन कार्यकर्ता भालचंद्र केरकर से मिलीं। कंदारे के शब्दों में, "हम चलते रहे और फिर हम केरकर से मिले। उन्होंने हमको रोका और पूछा कि क्या हुआ? हमने उन्हें घटना के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि हम चिंता न करें और काम पर वापस न जाएं। फिर हमारा ग्रुप प्रभात रोड, और फिर कर्वे रोड गया, और फिर हमने एक बैठक की। कुछ समय बाद भोसलेताई और उनके दोस्त भी हमारे साथ हो गए। इसके बाद, हमने हर दिन अपना विरोध और जुलूस शुरू किया … इस तरह यह सब शुरू हुआ।"
पुणे शहर मोलकर्णी संगठन और श्रमिक महिला मोर्चा की वर्तमान महासचिव एवं वकील मेधा थत्ते ने याद करते हुए बताया - कैसे हड़ताली घरेलू कामगारों को एक संगठन की आवश्यकता महसूस हुई। "पहली हड़ताल के बाद हमने इसपर चर्चा की और महसूस किया कि ऐसे तो यह आंदोलन नहीं चलेगा, हमें पहले कुछ ठोस मांगें रखनी पड़ेगी। हड़ताल इसलिए हुई क्योंकि खंडारेबाई को काम से निकाल दिया गया था, मजदूरी बहुत कम थी: यह सब आंदोलन के लिए पर्याप्त कारण है। लेकिन सवाल यह था कि नियोक्ताओं तक कैसे पहुंचा जाए? हमने महसूस किया कि हमें यह तय करने के लिए नियमित रूप से मिलना चाहिए और चर्चा करनी चाहिए कि हम क्या चाहतें है, हमारी मांगें क्या हैं? और हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं? बात यह भी थी कि अगर हम नियमित रूप से मिलते हैं, तो इसका मतलब हैं कि हम एक संगठन के रुप में हैं। जब हमने खुद से पूछा कि क्या हमें खुद को संगठित करना चाहिए, तो हम सभी लोग सहमत हो गए। लाल निशान पार्टी की भागीदारी के साथ, स्थानीय निर्वाचित प्रशासक के घर पर हर शाम सैकड़ों घरेलू कामगारों की बैठकें आयोजित होती थीं। मजदूर बहनों ने शारीरिक श्रम के तनाव, अपर्याप्त मजदूरी, काम से निकाले जाने, अवैतनिक मजदूरी के कष्ट, जीवन यापन की बढ़ती लागत से उत्पन्न होने वाली परेशानी और घरेलू कठिनाइया आदि के बारें में अपने अनुभवों को साझा करना शुरू कर दिया।
ऐसी ही एक कहानी एक घरेलू कामगार की थी जो लगभग पच्चीस वर्षों से एक वकील के परिवार में काम कर रही थी। वकील एक छात्र से एक विवाहित व्यक्ति, फिर एक पिता और अंत में दादा बन गया। लेकिन इस पूरी अवधि में घरेलू कामगार महिला का वेतन 10 रुपये से 12 रुपये प्रति माह ही रहा। इन बैठकों में भाग लेने वाले कई महिलाएं बहुत बूढी थीं और लम्बें समय से दूसरों के घरों में काम कर रही थी और उनके पास जीवन में और कोई विकल्प नहीं था और वे बहुत कम वेतन के बावजूद अपनी नौकरी पर लम्बे समय से बनीं ही थीं। कईयों ने बासी भोजन दिए जाने की बात बताई, मानों मकान मालिक ऐहसान कर रहा हैं। साथ ही नियमित रूप से मिलने वाले अपमान के बारें में भी बात होतीं थीं। कई घरेलू कामगार महिलाओं ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि किसी -किसी घर में काम करते वक्त अगर एक भी शीशे का ग्लास टूट जाता है तो उन्हें बहुत बुरे तरीके से डांटा और प्रताड़ित किया जाता था। मजदूरों को छुट्टी कर लेनें पर उस दिन के लिए भुगतान नहीं मिलता था। यानी कोई बीमारी की हालत में या किसी इमरजेंसी की हालत में काम पर नहीं जा पाए तो उस दिन की तनख्वाह महीने में काट के दी जाती थी।
बहुत सी महिलाये जो घरेलु कामगार के रूप में काम करती थी, या तो विधवा थी या फिर ऐसी महिलाये थी जिनके पति उन्हें अपने हाल पर छोड़ गए थे। कुछ महिलाये ऐसी भी थी जिनके वेतन से पूरा परिवार चल रहा था और उनके पति भी उनके वेतन पर निर्भर थे। यह महिलाये झोपड़पट्टी में रह रही थी, जहाँ न तो बिजली थी और न ही पानी। इन महिलाओं को अपने घर के भीतर और बाहर, दोनों जगह काम करना पड़ता था। ऐसे में बहुत सी महिलाओ की बेटियां भी उनके साथ काम पर आने लगी। गरीबी की हालत में होने का मतलब यह भी था कि अगर घरेलु कामगार अपनी मांगो के लिए किसी हड़ताल पर जाते भी है, तो वह हड़ताल छोटी और सफल होनी चाहिए, क्यूंकि आस पास के माहौल से यह स्पष्ट था कि उनकी जगह अन्य कामगार रखने में मालिक/ मालकिन को ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा । कुछ इलाके ऐसे भी थे जहाँ महिलाओ ने २० दिन तक जोश में हड़ताल करी, जब तक उनकी मांगे पूरी नहीं करी गयी। आखिर में इन महिलाओ को काम पर दुबारा बुलाया गया और इनकी नयी और ज़्यादा वेतन की मांग को पूरा किया गया। यह अद्द्भुत था क्यूंकि भारत में मालिक/ मालकिन और कामगार के बीच का रिश्ता इस प्रकार है कि मालिक/ मालकिन झुकने को तैयार नहीं होते। उनकी दृष्टि से देखा जाए तो घरेलु काम ऐसा काम है जो मालिक/ मालकिन खुद नहीं करना चाहते और न ही इस काम को इज़्ज़तदार मानते है। मालिक -मालकिन खुद बाहर काम करने जाते है और उनके बच्चे स्कूल जाते है। इस संघर्ष की पीड़ा और परेशानी के दौरान मजदूरों के गीत भी पैदा हुएं, जो आक्रोश और विद्रोह की भावना से भरे हुए थे। ऐसे ही एक गीत था:
आओ रे हीरा, आओ रे मीरा।
जवाब दो हमारे सवालों का, ओ इंदिरा की सरकार।
ओ वेणुबाई, क्यों हो तुम इतनी परेशान?
आओ हमारे साथ, उठाये मिलकर हम आवाज़!
इस संघर्ष और विरोध की खबर पुणे और मुंबई के सकाळ , केसरी और प्रभात जैसे मशहूर अखबारों में भी देखने को मिली । इन खबरों के बारें में बात करते हुए किरण मोगे ने कहा, " घरेलु कामगार समाज का वो हिस्सा है जिन पर आम तौर पर मीडिया का ध्यान नहीं जाता । इसलिए जब महिलाएं सार्वजनीक रूप से हड़ताल पर चली गयी, तो मीडिया में भी एक उत्सुकता पैदा हुईं। अचानक ही वो महिलाये जिनको कभी कामगार माना ही नहीं जाता था, सड़को पर आ गयी और अपने काम, अधिकारों और हक़ की बात करने लगी।" इन् महिलाओ ने खुद को "मोलकर्णी" बोलना शुरू कर दिया। पुणे शहर के अन्य इलाको के घरेलु कामगार - जैसे की मीरा सोसाइटी , नारायण पेठ , सहकारनगर , शिवाजीनगर और गुलटेकडी के कामगार, उन्होंने भी तय किया कि वें भी हड़ताल पर जाएंगी। किसी ने उन्हें हड़ताल करने के लिए नहीं कहा था, करवे रोड पर हुई हड़ताल और संघर्ष के बारे में सुनकर उन्होंने खुद ही यह तय किया था।
इस दौरान केवल दो मांगे थी, बीमार पड़ने पर छुट्टी और वेतन में वृद्धि । लेकिन जब पुणे शहर मोलकर्णी संघठन बना तो रोज़ाना चर्चा और विचार विमर्श करने से महिला कामगारों की समझ भी बढ़ती गयी। इस हड़ताल के बाद उनको अंदाजा लग गया कि श्रम क़ानून नहीं होने से उन्हें मालिक के दया पर ही निर्भर होना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने मांगों की एक सूची और एक वेतन का ढांचा भी प्रस्तावित किया।
वेतन का ढांचा प्रस्तुत करते समय गौर किया गया कि वेतन हर घर से एक समान नहीं मिलता। हर घर की आर्थिक स्थिति, घर में कितने लोग रहते है, काम का बोझ कितना रहता है , इनको भी हिसाब में लिया गया और इन सबके मद्देनजर एक वेतन का ढांचा बनाया गया। संगठन की तरफ से समय-समय पर जो मांगे रखी गयी, वें थी : वेतन में तुरंत वृद्धि, दिवाली का बोनस -जो कि एक महीने के वेतन के बराबर होगा, हर महीने में वेतन का 15 फीसदी भविष्य निधि (प्रोविडेंट फण्ड ) के लियें योगदान देना, सवेतन बीमारी की छुट्टी देना, महीने में दो छुट्टी देना और अगर मालिक-मालकिन शहर से बाहर है तो कामगार का वेतन न काटना। इस प्रस्ताव को पर्ची के रूप में छापा गया और सभी घरों में बांटा गया। मालिकों ने वेतन वृद्धि की मांग को माना, लेकिन उसके बदले ज़्यादा काम की मांग की। लेकिन घरेलु कामगार भी पीछे नहीं हटें, और उन्होंने कहा कि अब अतिरिक्त काम करवाने पर पैसा भी एक्स्ट्रा लगेगा।
1980 की हड़ताल और पुणे शहर मोलकर्णी संगठन की स्थापना के बाद, पुणे में दो और घरेलू कामगार संगठनों की स्थापना की गई। एक अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ द्वारा बनाई गई और इसे पुणे जिला घरमगार संगठन कहा जाता था, जबकि दूसरे को बाबा आढाव ने बनाया जिसे मोलकर्णी पंचायत कहा जाता था। इन वर्षों में तीनों संगठनों ने कई मौकों पर अलग अलग मुद्दों पर संयुक्त रूप से काम किया है। इस हड़ताल के बाद 1984 से 1996 तक शहर के विभिन्न इलाकों में कई और हड़तालें हुईं, जिनमें से ज्यादातर वेतन वृद्धि के लिए थीं। 1995 के आंदोलन में पुणे के नए हिस्सों जैसे दपड़ी, औंध, पिंपरी, कोथरुड, सालुंके विहार, खड़की, की घरेलु कामगार भी शामिल थी।
इन सामूहिक कार्रवाइयों के माध्यम से कई सुधार हासिल किये गए। महिला कामगारों ने अपने वेतन और कार्य-शर्तों पर बातचीत की। सवेतन साप्ताहिक अवकाश का मिलना एक महत्वपूर्ण जीत थी। वेतन संशोधन एक रेट कार्ड के माध्यम से लागू किया गया । इस रेट कार्ड के जरिये बर्तन साफ करने, फर्श पर झाडू लगाने, कपड़े धोने आदि अलग अलग कामों के लिए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित किया गया । रेट निर्धारित करते समय मालिक परिवार का आकार, सदस्यों का संख्या, घर कितना बड़ा हैं – इत्यादि पहलुओं को भी हिसाब में लिया गया। इन दरों को अब हर चार साल में संशोधित किया जाता है। वार्षिक बोनस, सेवानिवृत्ति ग्रेच्युटी आदि अन्य लाभ भी निर्धारित किए जाते हैं और संगठनों के माध्यम से स्थानीय बैंकों में "भविष्य निधि" एकत्र की जाती है। पुणे में घरेलू कामगार अब प्रति माह दो सवेतन अवकाश लेने के हकदार हैं। नियोक्ताओं से भी अपेक्षा की जाती है कि वे अगर कभी बदली मजदुर को काम पर लगाते हैं तो उन्हें भुगतान भी अलग से करना होगा। चोरी के झूठे आरोप, बर्तन टूटने पर मजदूरी काटना – ये सब चीजें भी कम हो गई है। कामगार संगठनों के कार्यवाही एवं महिला कामगारों की हिस्सेदारी से ही यह सब मुमकिन हुआ हैं।
लेकिन इस संघर्ष की सबसे बड़ी उपलब्धि थी – मजदूरों में एकता की भावना विकसित कर पाना । मजदूर बहनों ने महसूस किया कि एक-दूसरे के काम छीनने की कोशिश करना सभी कामगार साथियों के लिए हानिकारक है। अब जब मालिक किसी नयी घरेलु कामगार को काम में लगाता हैं तो वो नयी कामगार पहली वाली कामगार से ज्यादा वेतन की मांग करती है। पिछली कामगार से बातचीत किये बिना कोई कामगार किसी भी घर में काम स्वीकार नहीं करती है। नियोक्ता नए घरेलू कामगारों को नियुक्त करने का प्रयास जारी रखते हैं, लेकिन संगठित घरेलू कामगारों के एकता ने इन कोशिशों को निरस्त किया है।
अक्सर राजनीतिक कार्यकर्त्ता ही इन घरेलू कामगार संगठनों का नेतृत्व प्रदान करती हैं। लेकिन फिर भी यह एकदम स्पष्ट है कि घरेलू कामगार बहनों के सक्रिय समर्थन ने ही इन संगठनों को जीवित रखा हुआ हैं । संगठन के स्थानीय नेतृत्वकारी सदस्य स्वयं ही घरेलू कामगार हैं और वें अलग अलग घरों में अपना काम पूरा करने के बाद स्वेच्छा से संगठन में काम करती हैं। अधिकांश शाम उन्हें संगठन के कार्यालयों में देखा जा सकता हैं । ये स्थानीय नेता बैठकें आयोजित करती हैं, सहकर्मियों के साथ मांगों पर चर्चा करती हैं, संगठन के निर्णयों के बारे में अन्य सदस्यों को सूचित करती हैं, सदस्यों की राय पूछती हैं, अन्य इलाकों में बैठकों में भाग लेती हैं। वे व्यक्तिगत मामलों में सदस्यों का मार्गदर्शन भी करती हैं और उनके बीच वाली प्रतिद्वंद्विता को सुलझाती हैं। वे सदस्यों के साथ पुलिस स्टेशन जाती हैं और नियोक्ताओं द्वारा शारीरिक हमले के मामलों की रिपोर्ट करती हैं और अपने संगठन के सदस्यों की ओर से नियोक्ताओं के साथ बातचीत भी करती हैं। स्वयं घरेलू कामगार होने के कारण, उन्हें उन समस्याओं का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, जो उन्हें संभालने में बहुत प्रभावी साबित होती हैं।
हड़ताल के दौरान मालिक पक्ष ने अपना असली चेहरा उजागर कर दिया था। आज भी ये संगठित घरेलु कामगार मालिक के साथ दिखावती भावनात्मक लगाव के चक्कर में नहीं पड़ते, और वें अपने अधिकारों को बखूबी जानते हैं। एक कप चाय और कुछेक बासी भोजन देकर मालिक या मालकिन इन संगठित घरेलु मजदूरों को धोखें में नहीं रख सकते |
यह लेख, लोकेश द्वारा लिखित "मेकिंग द पर्सनल पॉलिटिकल: द फर्स्ट डोमेस्टिक वर्कर्स स्ट्राइक इन पुणे, महाराष्ट्र" शीर्षक निबंध का संक्षिप्त एवं अनुवादित रूप हैं। मूल लेख "टुवर्ड्स ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ डोमेस्टिक एंड केयर गिविंग वर्कर्स" शीर्षक पुस्तक में प्रकाशित हुई थी।