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विमर्श

असमानता के रहते नहीं की जा सकती सामाजिक भाईचारे की कल्पना, दो विरोधी छोरों पर खड़े हैं हिंदुत्व और लोकतंत्र

Janjwar Desk
14 April 2021 2:22 PM GMT
असमानता के रहते नहीं की जा सकती सामाजिक भाईचारे की कल्पना, दो विरोधी छोरों पर खड़े हैं हिंदुत्व और लोकतंत्र
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file photo

डा. आंबेडकर ने 1940 में ही धर्म आधारित राष्ट्र पाकिस्तान की मांग पर आगाह करते हुए कहा था अगर हिन्दू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए एक भारी खतरा पैदा हो जायेगा। हिन्दू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए खतरा है....

ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता एस.आर.दारापुरी का विश्लेषण

आज 14 अप्रैल है जिसे पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी डा. आंबेडकर जन्म दिवस अर्थात डा. आंबेडकर जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस दिन जहाँ सरकारी तौर पर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है तथा उनका गुणगान किया जाता है, वहीं उनके श्रद्धालु भी उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। यह सब आयोजन ज्यादातर एक उत्सव एवं कर्मकांड का रूप लेकर ही रह जाते हैं। बहुत कम आयोजन ऐसे होते हैं जहाँ इस दिन डा. आंबेडकर के जीवन दर्शन तथा उसकी वर्तमान में प्रासंगिकता के बारे में गंभीर चर्चा होती है। इसके उत्सव के रूप का अपना महत्व है। परन्तु डा.आंबेडकर के दर्शन की वर्तमान परिदृश्य में प्रासंगिकता पर चर्चा अधिक उपयोगी हो सकती है। अतः डा. आंबेडकर के दर्शन एवं विचारधारा के आलोक में वर्तमान राजनीतिक एवं आर्थिक परिदृश्य का मूल्याङ्कन करना अधिक समीचीन होगा।

आइये सबसे पहले वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखें। जैसा कि सब अवगत हैं कि इस समय केंद्र तथा काफी राज्यों में भाजपा की सरकार है जिसका मुख्य एजंडा हिंदुत्व तथा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है। यह अवधारणा धर्म निरपेक्षता, बाहुल्यवाद एवं अनेकता में एकता के संवैधानिक मूल्यों में विश्वास नहीं रखती है जबकि डा. आंबेडकर इन सबके प्रबल समर्थक थे। आरएसएस समर्थित भाजपा सरकार हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए कटिबद्ध है।

डा. आंबेडकर ने 1940 में ही धर्म आधारित राष्ट्र पाकिस्तान की मांग पर आगाह करते हुए कहा था, 'अगर हिन्दू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए एक भारी खतरा पैदा हो जायेगा। हिन्दू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए खतरा है। इस आधार पर यह लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है, हिन्दू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।' आज से लगभग 80 साल पहले जिस खतरे के बारे में डा. आंबेडकर ने आगाह किया था, वह आज हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। फिलहाल भले ही संविधान न बदला गया हो और भारत अभी भी, औपचारिक तौर पर धर्म निरपेक्ष हो, लेकिन वास्तविक जीवन में हिन्दुत्ववादी शक्तियां समाज-संस्कृति के साथ राजसत्ता पर भी प्रभावी नियंत्रण कायम कर चुकी हैं।

आंबेडकर हर हालत में हिन्दू राष्ट्र बनने से रोकना चाहते थे क्योंकि वे हिन्दू जीवन संहिता को पूरी तरह स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व का विरोधी मानते थे। उनके द्वारा हिन्दू राष्ट्र के विरोध का कारण केवल हिन्दुओं की मुसलमानों के प्रति नफरत तक ही सीमित नहीं था। सच तो यह है कि वे हिन्दू राष्ट्र को मुसलमानों की तुलना में हिन्दुओं के लिए ज्यादा खतरनाक मानते थे। वे हिन्दू राष्ट्र को दलितों और महिलाओं के खिलाफ मानते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि जाति व्यवस्था को बनाये रखने की ज़रूरी शर्त है कि महिलाओं को अंतरजातीय विवाह करने से रोका जाये।

उनका मानना था कि इस असमानता के रहते किसी भी सामाजिक भाईचारे की कल्पना नहीं की जा सकती। जातिवादी असमानता हिंदुत्व का प्राणतत्व है। यही बात उन्हें इस नतीजे पर पहुंचाती थी कि 'हिंदुत्व और लोकतंत्र दो विरोधी छोरों पर खड़े हैं।' सारे तथ्य यही बताते हैं कि हिन्दू सबकुछ छोड़ सकते हैं, लेकिन जाति नहीं जो उनका मूल आधार है और आंबेडकर इसके खात्मे के बिना लोकतान्त्रिक समाज की कल्पना नहीं करते थे।

अतः आज डा.आंबेडकर की विचारधारा तथा संविधान में विश्वास रखने वाले सभी देशवासियों का कर्तव्य है कि वे आरएसएस/ भाजपा की हिन्दुत्ववादी सरकार के हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के एजंडे के विरुद्ध लामबंद हों तथा इसे विफल बनाएं।

अब अगर वर्तमान भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों को देखें तो यह कार्पोरेटपरस्त वित्तीय पूँजी आधारित जनविरोधी नीतियाँ हैं जबकि डा. आंबेडकर राजकीय समाजवाद के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने संविधान के अपने मसौदे, जो उन्होंने शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की तरफ से संविधान सभा के सदस्यों को भेजा था तथा जो बाद में "राज्य एवं अल्पसंख्यक" नामक पुस्तक के रूप में छपी थी, में कृषि भूमि के राष्ट्रीयकरण, अधिग्रहीत भूमि को उचित आकार के फार्मों में विभाजित करके ग्रामीण परिवार समूहों को इकाई मान कर उत्पादन करने हेतु आवंटित करना, उन पर सामूहिक खेती, खेती को उद्योग का दर्जा दिया जाना आदि क्रांतिकारी सुझाव थे।

इसके साथ ही वे सभी प्रमुख उद्योगों को सरकारी नियंत्रण में रखने, वे उद्योग जो प्रमुख नहीं हैं किन्तु आधारभूत हैं, सरकार अथवा सरकारी उद्यमों द्वारा चलाने जाने के पक्ष में थे। वे बीमा को केवल सरकार के हाथ में रखने तथा हरेक व्यक्ति के लिए बीमा पॉलिसी अनिवार्य रूप से होने के पक्ष में थे। वे सभी प्रकार के खनन के भी सरकारी हाथ में रखने के पक्ष में थे। वास्तव में वे अबाध पूंजीवाद के स्थान पर राजकीय समाजवाद के प्रबल समर्थक थे।

इसके विपरीत आज हम देख रहे हैं कि वर्तमान मोदी सरकार निजीकरण एवं भूमंडलीकरण की नीति को कठोरता के साथ लागू कर रही है। सहकारी खेती के माध्यम से खेती को लाभकारी बनाने की बजाये नये कृषि कानून बना कर खेती को अलाभकारी बनाकर उसे बड़ी कम्पनियों एवं कार्पोरेट्स को सौंपने की व्यवस्था कर रही है जिसके विरोध में देशव्यापी किसान आन्दोलन लम्बे समय से चल रहा है। बीमा क्षेत्र में निजी कम्पनियों का प्रवेश हो चुका है तथा सरकारी बीमा कंपनी बेची जा रही है। जनता के पैसे से बने सरकारी उपक्रम कौड़ियों के भाव बेचे जा रहे है। डा. आंबेडकर द्वारा स्थापित बिजली व्यवस्था का नया कानून बना कर निजीकरण किया जा रहा है। खनन का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। आज़ादी के बाद देश में लागू की गयी मिश्रित अर्थ व्यवस्था को ख़त्म करके ग्लोबल वित्तीय पूँजी से चालित कार्पोरेट्स के हाथों में सौंपी जा रही है और खुले बाज़ार को बढ़ावा दिया जा रहा है जो आम नागरिक के हित में नहीं है।

संविधान में राष्ट्रीय संपत्ति के न्यायपूर्ण वितरण को सुनिश्चित करने एवं उसके कुछ हाथों में केंद्रीकरण को रोकने की बजाये सभी राष्ट्रीय संपत्ति कुछ हाथों में बेचीं जा रही है। खनन का तेजी से निजीकरण हो रहा है जिससे खनन संपदा की लूट हो रही है। मोदी सरकार कार्पोरेट समर्थित सरकार है जो उन्हें लाभ पहुँचाने में संविधान में निहित समाजवादी प्रावधानों/कानूनों को पूरी तरह से पलट रही है। इसका राष्ट्रहित में विरोध किया जाना चाहिए।

यह सर्वविदित है कि स्वतंत्रता पूर्व वायसराय की कार्यकारिणी के लेबर सदस्य के रूप में डा. आंबेडकर नें श्रमिकों के कल्याण एवं संरक्षण के लिए बहुत सरे श्रम कानून बनाये थे जो अब तक लागू थे। इनमें काम के 8 घंटे, कर्मचारी बीमा योजना, प्रसूति अवकाश, समान काम के लिए समान वेतन, आवासीय सुविधा, ईपीएफ, हड़ताल का अधिकार, प्रबंधन में मजदूरों का प्रतिनिधित्व, ट्रेड यूनियन अधिकार आदि प्रमुख हैं। वास्तव में भारत में मजदूरों को जितने अधिकार बाबासाहेब ने चार साल की अवधि (1942 से 1946) में दिलवाए वे दुनियां के दूसरे देशों में बहुत लम्बे संघर्ष के बाद मिल पाए थे।

इसके विपरीत वर्तमान मोदी सरकार ने उन सभी कानूनों को ख़त्म करके जो चार लेबर कोड बनाये हैं वे घोर मजदूर विरोधी हैं। यह वास्तव में श्रमिकों की गुलामी का दस्तावेज़ हैं। इसमें काम के घंटे 12 कर दिए गए है, टेक होम सेलरी घटा दी गयी है, ठेका मजदूरों के परमानेंट होने के अधिकार को छीन लिया गया है। साप्ताहिक अवकाश ख़त्म कर दिया गया है, ठेकेदारों को पंजीकरण से छूट दे दी गयी है और मालिकों के मजदूरों की सामाजिक व जीवन की सुरक्षा सम्बन्धी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया है। मोदी सरकार यह सब उद्योगों को सुविधा से चलाने के नाम पर कर रही है। मोदी सरकार का यह कार्य घोर मजदूर विरोधी तथा उनके शोषण को बढ़ावा देने वाला है। यह डा. आंबेडकर द्वारा श्रम कल्याण हेतु बनाये गए कानूनों का निषेध है।

अतः उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि वर्तमान मोदी सरकार का हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का प्रयास, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण को तेज़ी से लागू करने एवं देश की अर्थव्यवस्था को ग्लोबल वित्तीय पूँजी के अधीन करने, खेती, बाज़ार, उद्योग, खनन एवं बीमा को कार्पोरेट्स को सौंपने, श्रम कानूनों का खात्मा करने आदि जनविरोधी नीतियों का तेज़ी से अनुसरण कर रही है जोकि डा. आंबेडकर के दर्शन एवं विचारधारा के विपरीत है। आज आंबेडकर जयंती के अवसर पर वर्तमान आर्थिक नीतियों एवं देश को एक धर्म निरपेक्ष राज्य की जगह एक धर्म आधारित हिन्दू राष्ट्र बनाने के प्रयासों का विवेचन तथा विरोध किया जाना चाहिए जो डा. आंबेडकर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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