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विमर्श

आजादी के बाद भी आदिवासी नायकों और उनकी विरासत के साथ खूब हुआ खिलवाड़

Janjwar Desk
19 Jun 2025 10:58 AM IST
आजादी के बाद भी आदिवासी नायकों और उनकी विरासत के साथ खूब हुआ खिलवाड़
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आजादी के बाद आदिवासियों के साथ न्याय की उम्मीद थी, लेकिन इसके बजाय उनके वंशजों को नक्सली, उग्रवादी और देशद्रोही जैसे लेबल देकर उनका दमन किया जाता है। संविधान की पांचवीं अनुसूची जो आदिवासी क्षेत्रों की रक्षा के लिए बनायी गई थी, आज कॉर्पोरेट और पूंजीपतियों की लूट का शिकार हो रही है....

आदिवासी समन्वय समिति के संयोजक लक्ष्मीनारायण मुंडा की टिप्पणी

रांची। भारत का इतिहास केवल राजवंशों, साम्राज्यों और सैन्य अभियानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन अनगिनत आदिवासी विद्रोहों की गाथा भी है, जिन्हें तथाकथित मनुवादी इतिहासकारों ने जानबूझकर हाशिए पर धकेल दिया है। इनमें चुआड़ विद्रोह 1769.1834द्ध भूमिज विद्रोह और संथाल विद्रोह (1855-56) बिरसा उलगुलान (1895.1900) जैसे ऐतिहासिक संघर्ष शामिल हैं। इन्होंने उपनिवेशवादी अंग्रेजों और शोषक साहूकारों के खिलाफ आदिवासियों की एकजुटता और साहस को दर्शाया है। इन विद्रोहों को इतिहास के पन्नों से मिटाने का प्रयास आजादी के बाद आदिवासियों के साथ हो रहा व्यवहार भारत के मूलनिवासियों के साथ विश्वासघात का प्रतीक है।

चुआड़ और भूमिज विद्रोह : आदिवासियों का प्रारंभिक प्रतिरोध

1769 से शुरू हुआ चुआड़ विद्रोह, जिसका नेतृत्व रघुनाथ सिंह भूमिज जैसे भूमिज मुंडा नेताओं ने किया और 1834 तक चला भूमिज विद्रोह जिसे गंगा नारायण सिंह ने आगे बढ़ाया, उपनिवेशवादी अंग्रेजों और स्थानीय साहूकारों के खिलाफ आदिवासियों की पहली संगठित लड़ाई थी। ये विद्रोह केवल आर्थिक शोषण के खिलाफ नही थे, बल्कि आदिवासियों की जमीन, संस्कृति और स्वायत्तता को बचाने की लड़ाई थी। चुआड़ और भूमिज विद्रोहों में सैकड़ों आदिवासी योद्धाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी, लेकिन इन संघर्षों को इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे।

संथाल विद्रोह : स्वतंत्रता का प्रथम बिगुल

1855-56 में संथाल विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी। सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो और झानो जैसे नेताओं, वीरांगनाओं ने संथाल आदिवासियों को संगठित कर अंग्रेजों और साहूकारों के खिलाफ युद्ध छेड़ा था। यह विद्रोह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले का सबसे बड़ा आदिवासी विद्रोह था, जो न केवल आर्थिक शोषण, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दमन के खिलाफ भी था। लेकिन दुखद यह है कि इससे इतिहास में एक स्थानीय बगावत के रूप में ही दर्शाया गया और इसके नायकों को भुला दिया गया।

बिरसा उलगुलान

बिरसा उलगुलान, जिसे महान विद्रोह के रूप में जाना जाता है। 19वीं सदी के अंत में झारखंड के मुंडा आदिवासियों द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ किया गया एक ऐतिहासिक विद्रोह था। इस विद्रोह का नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया, जो एक युवा आदिवासी नेता और धार्मिक सुधारक थे। 1870 के दशक में छोटानागपुर क्षेत्र (वर्तमान झारखंड) में मुंडा आदिवासियों की जमीनों को जमींदारों और ब्रिटिश प्रशासन द्वारा हड़प लिया जा रहा था। बाहरी लोगों ;दिकुद्ध द्वारा शोषण, भारी कर और आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों का हनन बढ़ता जा रहा था। बिरसा मुंडा ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और आदिवासियों को संगठित किया। इसके खिलाफ 1895 में बिरसा ने ‘बिरसाइत धर्म’ की स्थापना की, जिसमें उन्होंने आदिवासियों को एकजुट होकर अपनी संस्कृति और जमीन की रक्षा करने का आह्वान किया।

उन्होंने ब्रिटिश शासन और जमींदारों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया, जिसे ‘उलगुलान’ कहा गया। यह विद्रोह 1899-1900 में चरम पर था, जिसमें मुंडा आदिवासियों ने जमींदारों और ब्रिटिश अधिकारियों पर हमले किए। यह हकीकत है कि ब्रिटिश सेना की सैन्य शक्ति के सामने यह विद्रोह दबा दिया गया। 1900 में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में उनकी मृत्यु हो गई। फिर भी इस उलगुलान ने आदिवासी समुदायों में स्वतंत्रता और आत्मसम्मान की चेतना जगाई। यह विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। बिरसा मुंडा आज भी ‘धरती आबा’ के रुप में पूजे जाते हैं। उनकी बहादुरी और बलिदान आदिवासी आंदोलनों और सामाजिक न्याय के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह उलगुलान न केवल शोषण के खिलाफ एक विद्रोह था, बल्कि यह आदिवासी संस्कृति और पहचान को संरक्षित करने का प्रतीक भी बन गया। बिरसा उलगुलान आदिवासी इतिहास में एक गौरवपूर्ण अध्याय है, जो अन्याय के खिलाफ एकता और साहस का प्रतीक है। यह विद्रोह आज भी सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता की लड़ाई में प्रासंगिक है।

आजादी के बाद का विश्वासघात

भारत की आजादी के बाद आदिवासियों के साथ न्याय की उम्मीद थी, लेकिन इसके बजाय उनके वंशजों को नक्सली, उग्रवादी और देशद्रोही जैसे लेबल देकर उनका दमन किया जाता है। संविधान की पांचवीं अनुसूची जो आदिवासी क्षेत्रों की रक्षा के लिए बनायी गई थी, आज कॉर्पोरेट और पूंजीपतियों की लूट का शिकार हो रही है। खनन, औद्योगीकरण और विकास के नाम पर आदिवासियों की जल, जंगल और जमीनें छीनी जा रही हैं। पर्यावरण को नष्ट कर जंगल और पहाड़ उजाड़े जा रहे हैं, जिससे आदिवासी इलाके आज नर्क जैसी स्थिति में तब्दील हो गए हैं। आदिवासियों को उनके घरों-गांवों से विस्थापित किया जा रहा है और जब वे अपने अधिकारों के लिए आंदोलन करते हैं तो उन्हें जेलों में डाला जाता है, फर्जी मुकदमों में फंसाया जाता है। यहाँ तक कि फर्जी एनकाउंटर में मारा जाता है। यह सब केवल चंद पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए हो रहा है। क्या यह भारत के मूलनिवासियों को उनके ही देश से उजाड़ने का षडयंत्र नहीं है?

आदिवासी विद्रोह : स्वाभाविक और अपरिहार्य

आदिवासियों का विद्रोही स्वभाव उनकी प्रकृति और संस्कृति का हिस्सा है। वे प्रकृति के रक्षक हैं और जब उनकी जमीन, जंगल और जल पर हमला होता है, तो वे चुप नहीं रह सकते हैं। आदिवासियों का विद्रोह कायरता का परिचय नहीं, बल्कि उनके साहस और आत्मसम्मान का प्रतीक है। इतिहास गवाह है कि जब-जब अत्याचार और शोषण हुआ, आदिवासियों ने विद्रोह किया है। चुआड़ विद्रोह, भूमिज विद्रोह संथाल विद्रोह और बिरसा उलगुलान इसका प्रमाण है। आज भी जब उनकी धरोहर खतरे में है, वे संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन उन्हें देशद्रोही कहकर दबाने की कोशिश की जा रही है।

पर्यावरणीय विनाश और कॉर्पोरेट लूट

पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर खनन और औद्योगीकरण ने पर्यावरण को तहस-नहस कर दिया है। जंगल कट रहे हैं, नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं और पहाड़ खोखले किए जा रहे हैं। यह सब केवल कॉर्पोरेट मुनाफे के लिए हो रहा है, जिसका खामियाजा आदिवासियों को भुगतना पड़ रहा है। उनके जीवन का आधार जल, जंगल और जमीन छीना जा रहा है और उन्हें विस्थापन के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह अन्याय नहीं तो और क्या है?

एकजुटता : बदलाव की कुंजी

आदिवासियों के साथ हो रहे इस ऐतिहासिक और वर्तमान अन्याय को रोकने का एकमात्र रास्ता उनकी एकजुटता है। जब तक वे बिखरे रहेंगे, शोषक ताकतें उनका दमन करती रहेंगी, लेकिन जिस दिन भारत के आदिवासी एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए खड़े होंगे, कोई भी उनकी ताकत को नही रोक पाएगा। सरकार और समाज को चाहिए कि वे आदिवासियों के संघर्ष को समझें, उनके संघर्षशील इतिहास को सम्मान दें और उनकी धरोहरों की रक्षा करें।

चुआड़ विद्रोह, भूमिज विद्रोह, संथाल विद्रोह और बिरसा उलगुलान से लेकर आज तक आदिवासियों ने बार.बार साबित किया है कि वे अपने हक के लिए लड़ सकते हैं। उनके साथ किया गया विश्वासघात केवल एक समुदाय का अपमान नहीं, बल्कि पूरे भारत की आत्मा पर चोट है। हमें चाहिए कि हम उनके गौरवशाली ऐतिहासिक संघर्ष को स्वीकार करें और उनके जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए उनके साथ खड़े हों, क्योंकि आदिवासी भारत के मूल निवासी ही नहीं, बल्कि इस देश की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय धरोहर के संरक्षक हैं। आदिवासियों की जीत, देश के लोगों की जीत होगी।

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