पृथ्वी पर जैव-विविधता संरक्षित करने के आधे-अधूरे प्रयास, रेड लिस्ट में विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ती जा रही प्रजातियों की संख्या
(वर्ष 2070 तक 20 प्रतिशत से अधिक प्रजातियाँ हो जाएंगी विलुप्त)
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय विश्लेषण
दुनियाभर में पारिस्थितिकी तंत्र का लगातार विनाश इस दौर की सबसे गंभीर समस्या है, पर इसपर अबतक अधिक ध्यान नहीं दिया गया था। जब भी वैश्विक स्तर पर पर्यावरण की बात की जाती है तब चर्चा जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि से शुरू होकर इसी पर ख़त्म हो जाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार जैव-विविधता का विनाश भी लगभग उतनी ही गंभीर समस्या है और पृथ्वी पर जीवन बचाने के लिए जल्दी ही गंभीरता से जैव-विविधता बचाने की पहल करनी पड़ेगी।
वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र ने जापान के नोगोया में जैवविविधता संरक्षण के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन आयोजित किया था और इसके बाद पारिस्थितिकी तंत्र सुरक्षित रखने के लिए एक व्यापक समझौता, जिसे एची समझौते के नाम से जाना जाता है, पर देशों के बीच सहमति हुए थी।
एची समझौते के तहत वर्ष 2020 तक के लिए अनेक लक्ष्य निर्धारित किये गए थे। इसमें से एक लक्ष्य को छोड़कर किसी भी लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है। जिस लक्ष्य को हासिल किया जा सका है, उसे लक्ष्य-11 के नाम से जाना जाता है और इसके अनुसार वर्ष 2020 तक दुनिया में भूमि और नदियों के कुल पारिस्थितिकी तंत्र का 17 प्रतिशत और महासागरों के 10 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्र को आधिकारिक तौर पर संरक्षित करना था। हाल में ही प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार भूमि और नदियों के संरक्षण का लक्ष्य तो हासिल कर लिया गया है, पर महासागरों का 8 प्रतिशत क्षेत्र ही संरक्षित किया जा सका है।
इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर ने सम्मिलित तौर पर तैयार किया है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 17 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्र को आधिकारिक तौर पर संरक्षित कर लिया गया है, यह पारिस्थितिकी तंत्र के पुनःस्थापन की दिशा में एक सशक्त कदम है, और समझौते में शामिल देशों की प्रतिबद्धता भी दिखाता है। हालां की रिपोर्ट में बताया गया है कि एक-तिहाई से अधिक संरक्षित क्षेत्र में जरूरी सुविधाएं नदारद हैं। रिपोर्ट के अनुसार सम्बंधित क्षेत्रों को संरक्षित घोषित करने में तो देशों ने प्रतिबद्धता दिखाई, पर इसके लिए जरूरी सुविधाएं और मानव संसाधन गायब हैं।
वर्ष 2010 के बाद से रूस के क्षेत्रफल से भी बड़ा भूभाग नए सिरे से जैव-विविधता को सुरक्षित करने के लिए संरक्षित किया जा चुका है, यह क्षेत्र इससे पहले संरक्षित किये गए कुल क्षेत्र का 42 प्रतिशत है। इससे यह तो स्पष्ट है कि पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण की दिशा में देश पहले से अधिक ध्यान देने लगे हैं। इस समय दुनिया में 2.25 करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र आधिकारिक तौर पर संरक्षित है। वर्ष 2030 तक दुनिया के एक-तिहाई भूभाग को संरक्षित करने का लक्ष्य है।
जर्मनी के पहल पर अब इस क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनर को बढ़ावा दिए जाने की योजना है। इसके तहत एक लेगेसी लैंडस्केप फण्ड की स्थापना की जायेगी, जिससे गरीब देशों के संरक्षित क्षेत्रों में सुविधाएं बढाने और इसमें संलग्न मानव संसाधन के लिए दीर्घकालीन आर्थिक सहायता दी जायेगी। इसके लिए गरीब देशों के 30 संरक्षित क्षेत्रों का चयन किया जाएगा। यह जैव-विविधता संरक्षित करने से सम्बंधित दुनिया का सबसे बड़ा कोष होगा, अनुमान है कि वर्ष 2030 तक इस कोष में एक अरब डॉलर जमा कर लिया जाएगा। इस योजना के तहत अंगोला, इंडोनेशिया और बोलीविया में पायलट प्रोजेक्ट भी चलाये जा रहे हैं।
जैव-विविधता को सुरक्षित रखने के साथ ही प्रजातियों के विलुप्तिकरण को रोकने का मसला भी जुड़ा है। साल-दर-साल इन्टरनॅशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर (आईयुसीएन) की रेड लिस्ट में विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ती प्रजातियों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस रेड लिस्ट की तो खूब चर्चा की जाती है, पर आईयुसीएन की ही दूसरी लिस्ट, ग्रीन लिस्ट, के बारे में शायद ही कोई जानता हो। इस ग्रीन लिस्ट में उन संरक्षित क्षेत्रों को शामिल किया जाता हैं, जहां जैव-विविधता के संरक्षण का कार्य उत्कृष्ट तरीके से और सम्बंधित मानकों के अनुसार किया जा रहा है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ क्वीन्सलैंड और वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार पूरी दुनिया में 77 प्रतिशत भूमि और महासागरों का 87 प्रतिशत हिस्सा मानव के सघन गतिविधियों का क्षेत्र है, इसलिए वन्यजीवन और जैव-विविधता बुरी तरीके से प्रभावित हो रहे हैं। वर्ष 1993 से अबतक, यानि पिछले 25 वर्षों के दौरान, वन्यजीवों के मानव के प्रभाव से मुक्त वन्यजीवों के प्राकृतिक क्षेत्र में से 33 लाख वर्ग किलोमीटर पर मनुष्य की गतिविधियाँ आरम्भ हो गयीं और इस क्षेत्र की जैव-विविधता प्रभावित होने लगी। इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर की सूचि में कुल 93,577 प्रजातियाँ हैं, इनमे से 26,197 पर विलुप्तीकरण का खतरा है और 872 विलुप्त हो चुकी हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार वर्तमान में लगभग दस लाख प्रजातियाँ विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रहीं हैं, और आज के दौर में प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर पृथ्वी पर जीवन पनपने के बाद के किसी भी दौर की तुलना में 1000 गुना से भी अधिक है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ एरिज़ोना के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार वर्ष 2070 तक जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के प्रभाव से दुनिया की जैव विविधता दो-तिहाई ही रह जायेगी और एक-तिहाई विविधता विलुप्त हो चुकी होगी।
यह अपने तरह का सबसे बृहत् और विस्तृत अध्ययन है, और इसमें कई ऐसे पैमाने को शामिल किया गया है, जिसे इस तरह के अध्ययन में अबतक अनदेखा किया जाता रहा है। इसमें पिछले कुछ वर्षों में विलुप्तीकरण की दर, प्रजातियों के नए स्थान पर विस्थापन की दर, जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पूर्वानुमानों और अनेक वनस्पतियों और जन्तुओं पर अध्ययन को शामिल किया गया है। इस अध्ययन को प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज के अंक में प्रकाशित किया गया था और इसे यूनिवर्सिटी ऑफ़ एरिज़ोना के डिपार्टमेंट ऑफ़ इकोलॉजी एंड ईवोल्युशनरी बायोलॉजी विभाग के क्रिस्चियन रोमन पलासिओस और जॉन जे वेंस ने किया था।
इस अध्ययन के लिए दुनिया के 581 स्थानों पर वनस्पतियों और जंतुओं की कुल 538 स्थानिक प्रजातियों का विस्तृत अध्ययन किया गया है। ये सभी ऐसी प्रजातियाँ हैं जिनका अध्ययन वैज्ञानिकों ने दस वर्ष या इससे भी पहले किया था। इसमें से 44 प्रतिशत प्रजातियाँ वर्तमान में ही एक या अनेक स्थानों से विलुप्त हो चुकी हैं। इन सभी स्थानों पर जलवायु परिवर्तन के आकलन के लिए 19 पैमाने का सहारा लिया गया। इस दृष्टि से यह जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में प्रजातियों पर प्रभाव से सम्बंधित सबसे विस्तृत और सटीक आकलन है।
वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है की यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया तो पारिस्थिकी तंत्र खतरे में होगा अगले 50 वर्षों में पृथ्वी से वनस्पतियों और जंतुओं की एक-तिहाई जैव-विविधता हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी। वैज्ञानिकों के अनुसार यदि गर्मी में सर्वाधिक तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है तब विलुप्तीकरण की दर 50 प्रतिशत बढ़ती है और यदि यह तापमान सामान्य से 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है तो स्थानीय विलुप्तीकरण की दर 95 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
अध्ययन का निष्कर्ष यह है की यदि दुनिया जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित पेरिस समझौते का पालन भी करे और इस शताब्दी के अंत तक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने दे तब भी वर्ष 2070 तक 20 प्रतिशत से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी होंगीं, पर पेरिस समझौते से दुनिया अभी कोसों दूर है। प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर दुनियाभर में एक जैसी नहीं है, समशीतोष्ण क्षेत्रों की तुलना में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में विलुप्तीकरण 2 से 4 गुना अधिक तेजी से हो रही है।
दुनियाभर के वैज्ञानिक अलग-अलग अध्ययन के बाद बताते रहे हैं कि पृथ्वी पर मानव की छाप इस दौर में किसी भी जीव-जंतु या वनस्पति से अधिक हो गई है, इसलिए इस दौर को मानव दौर कहना उचित होगा। इस दौर में वायुमंडल में मानव की गतिविधियों के कारण जो ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता है, वैसी सांद्रता पिछले 30 से 50 लाख वर्षों में नहीं थी। मानव का आवास और इसके द्वारा की जाने वाली कृषि के कारण पृथ्वी के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र प्रभावित है।
मनुष्य की गतिविधियों के कारण अनेक प्रजातियाँ तेजी से विलुप्त हो रही हैं। इसी कड़ी में एक नए अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 2020 तक पृथ्वी पर मानव निर्मित वस्तुओं का भार सभी प्राकृतिक संसाधनों, वनस्पतियों और जन्तुवों से अधिक हो चला है। आज के दौर में दुनियाभर में अब तक उत्पादित प्लास्टिक का भार ही सभी स्थल और जल में रहने वाले जीवों के सम्मिलित भार से अधिक है।
अब तक लोग यह समझते रहे थे कि पृथ्वी की क्षमता अनंत है और मनुष्य कितनी भी कोशिश कर ले, इसकी बराबरी नहीं कर सकता, पर अब यह धारणा बिलकुल गलत साबित हो रही है। कंक्रीट, धातुवों, प्लास्टिक, ईंटों और एस्फाल्ट का लगातार बढ़ता उपयोग पृथ्वी पर मानव का बोझ बढाता जा रहा है।
अनुमान है कि दुनिया में एक सप्ताह में जितने भी पदार्थों का उत्पादन किया जाता है, उसका भार पृथ्वी पर फ़ैली पूरी मानव आबादी, जो लगभग 8 अरब है, के सम्मिलित भार से अधिक होता है। हालां कि पृथ्वी पर जितना बायोमास है, यानि जितना भी जीवित वस्तुवों का वजन है, उसका महज 0.01 प्रतिशत पृथ्वी पर चारों तरफ दिखने वाले मानवों का सम्मिलित भार है।