हर साल पूंजीपतियों की संख्या के साथ बढ़ रही भुखमरी-बेरोजगारी, भारत समेत 40 फीसदी देशों में 2 सालों के दौरान जीवन स्तर में भारी गिरावट
(मोदी सरकार गरीबों के लिए कई योजनाएं चलाने के दावे करती है लेकिन भुखमरी सूचकांक में भारत और नीचे चला गया है)
पूंजीवाद से आबादी का जीवन स्तर नहीं कैसे नहीं सुधर सकता बता रहे हैं महेंद्र पाण्डेय
Far from reducing extreme poverty, Capitalism leads to sharp deterioration in human welfare : इस वर्ष 7 सितम्बर को भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में 5वें स्थान पर पहुँच गयी, और दो दिन बाद ही प्रकाशित ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में हमारा देश कुल 191 देशों में 132वें स्थान पर लुढ़क गया। हमारे प्रधानमंत्री जी और दूसरे नेता लगातार हरेक भाषण में, हरेक वक्तव्य में, पांचवीं अर्थव्यवस्था की बात बताना नहीं भूलते, पर क्या आपने इन्हीं लोगों के किसी भी भाषण में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित मानव विकास इंडेक्स के बारे में सुना है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि भारत समेत लगभग पूरी दुनिया चरम पूंजीवाद की चपेट में है, जहां सारी योजनायें केवल पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई जाती हैं, और जाहिर है ऐसी व्यवस्था आम आदमी को एक बोझ से अधिक नहीं समझती है।
पूरी दुनिया में अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, और इसी दुनिया में सामान्य आदमी पहले से भी अधिक गरीब होता जा रहा है। जब अमीरों की बढ़ती संपत्ति के बारे में प्रश्न होता है तब कोई जवाब नहीं मिलता, पर भुखमरी और बेरोजगारी की चर्चा में कोविड 19, वैश्विक आर्थिक मंदी और रूस-यूक्रेन युद्ध को कारण बताया जाता है। शायद ही किसी को समझ में आता हो कि सारी समस्याओं के बीच पूंजीपतियों की संपत्ति कैसे बढ़ती है और इन्हीं कारणों से सामान्य आबादी कैसे गरीब हो जाती है।
हाल में ही वर्ल्ड डेवलपमेंट नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पूंजीवाद कभी भी गरीबी का समाधान नहीं करता है और इससे जीवन स्तर का पतन होता है और मानव विकास उल्टी दिशा में होने लगता है। इस अध्ययन को स्पेन की यूनिवर्सिटी ऑफ़ बार्सिलोना के इंस्टिट्यूट ऑफ़ एनवायर्नमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलिया के मच्कुँरी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर प्रकाशित किया है। इसके अनुसार पूंजीवाद में सामान्य आबादी की आय एक बेहतर जिन्दगी के गुजारे से भी कम हो जाती है, शारीरिक तौर पर आबादी कमजोर होती है और आकस्मिक मृत्यु की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
16वीं शताब्दी के मध्य से पूंजीवाद का आरम्भ हुआ और वैश्विक स्तर पर इसके विस्तार का बड़ा श्रेय ग्रेट ब्रिटेन, पुर्तगाल, स्पेन जैसे देशों को जाता है जिन्होंने अनेक देशों को अपना गुलाम बनाया, उनपर राज किया और उनपर पूंजीवाद थोपा। हमारे देश में भी ग्रेट ब्रिटेन ने पूंजीवादी व्यापारी के नकाब के साथ ही प्रवेश किया था। पूंजीवाद केवल चुनिन्दा लोगों का ही भला करता है, पर इसकी खासियत यह है कि इस व्यवस्था में पहले सरकारों को नियंत्रित किया जाता है, फिर सूचना-प्रसार तंत्र पर कब्जा किया जाता है।
पूंजीवाद के आरम्भ से ही प्रचार और मीडिया के माध्यम से एक भ्रमजाल फैलाया गया, जिसके तहत सामान्य आबादी को सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए गए। ऐसे प्रचारों में आंकड़ों की बाजीगरी की गयी, ऐतिहासिक जीडीपी, यानि सकल घरेलू उत्पाद, के आंकड़े और बड़ी आबादी की क्रय क्षमता के सचे-झूठे आंकड़े बताकर यह साबित किया गया कि केवल पूंजीवाद ही सामान्य जनता का जीवन स्तर सुधार सकता है।
पूंजीवाद की हालत यह है कि इसके कोई भी पैरामीटर सामान्य आबादी की स्थिति नहीं बताते। पूंजीवाद का व्यापक असर 19वीं शताब्दी से स्पष्ट होने लगा। पूंजीवाद से प्रभावित और लाभान्वित अर्थशास्त्री लगातार बताते रहे कि 19वीं शताब्दी से पहले पूरी दुनिया में भीषण गरीबी थी, और सामान्य आबादी के पास रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का साधन नहीं था। पूंजीवादी प्रचार तंत्र के अनुसार इससे पहले मानव विकास का कोई अस्तित्व नहीं था और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं।
पूंजीवाद द्वारा प्रचारित इन आंकड़ों की सच्चाई समझने के बाद इस अध्ययन के मुख्य संयोजक डेलन सुल्लिवन ने जीडीपी के बदले वास्तविक वेतन को आधार बनाया, इसके साथ ही मनुष्य की औसत लम्बाई और मृत्यु दर का भी 16वीं शताब्दी से लेकर अबतक का आकलन किया। इस अध्ययन को यूरोप, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, दक्षिण एशिया और चीन के लिए किया गया। डेलन सुल्लिवन के अनुसार यह सरासर गलत धारणा है कि 19वीं शताब्दी से पहले अत्यधिक गरीबी सामान्य और सर्वव्यापी थी। श्रमिकों के वास्तविक वेतन के आंकड़ों के अनुसार यह स्पष्ट है कि 19वीं शताब्दी से पहले एक सामान्य श्रमिक को भी पर्याप्त वेतन मिलता था, जो उसके परिवार की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम था। अत्यधिक गरीबी की चपेट में केवल वही आबादी थी जो युद्ध, सूखा या फिर गुलामी का सामना कर रही थी।
डेलन सुल्लिवन के अनुसार पूंजीवाद के प्रसार के साथ ही सामान्य आबादी का जीवन स्तर बेहाल होने लगा, क्योंकि पूंजीवाद कोई लोकतांत्रिक या प्रजातांत्रिक व्यवस्था नहीं है और इस व्यवस्था में उत्पादन या बाजार आबादी की बुनियादी सुविधाएं नहीं देखता है। पूंजीवाद केवल उन वस्तुवों का उत्पादन करता है जिससे मुनाफा कमा सके, भले ही ये उत्पाद जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हों या उनके सामान्य बजट से बाहर जा रहे हों। पूंजीवाद की विशेषता यह है कि अपना मुनाफ़ा बढाने के लिए यह लगातार श्रमिकों को सस्ता करता जाता है। पहले सस्ते श्रम के सिद्धांत को समझना कठिन था, पर आज के दौर में जब सरकारें ही कॉन्ट्रैक्ट लेबर को बढ़ावा देने लिए नीतियाँ बना रही हैं, तब इसे समझना आसान हो गया है।
डेलन सुल्लिवन के अनुसार पूंजीवाद ने धीरे-धीरे बाजार और श्रमिकों के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक संपत्ति पर भी अधिकार कर लिया। पूंजीवाद और लगभग सभी देशों की सरकारें जिस स्वतंत्र बाजार और उन्मुक्त व्यापार से दुनिया की सामान्य आबादी के भले का ढिंढोरा पीटती हैं, दरअसल इन्हीं में श्रमिकों का सर्वाधिक शोषण होता है और हमारी जरूरतें हम तय नहीं करते, बल्कि बाजार करने लगता है। इस स्थिति में सामान्य आबादी बाजार के लिए एक गुलाम से अधिक कुछ भी नहीं है।
19वीं शताब्दी के अंत में उत्तर-पश्चिम यूरोप के कुछ देशों और 20वीं शताब्दी के मध्य में वैश्विक दक्षिण के देशों, जिनमें सभी विकासशील और अल्प-विकसित देश हैं, के श्रमिकों और सामान्य आबादी ने पूंजीवादी व्यवस्था और श्रमिकों की स्थिति के विरुद्ध आवाज उठाना शुरू किया। श्रमिकों के प्रदर्शन होने लगे और इसे समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था ने समर्थन देना शुरू किया। लगभग इसी दौर में दुनिया से उपनिवेशवाद का अंत भी होना शुरू हुआ। श्रमिकों ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठन और ट्रेड यूनियन बना शुरू किया। इससे श्रमिकों को कुछ अधिकार मिले और उनकी स्थिति में सुधार होना शुरू हुआ।
21वीं शताब्दी के आरम्भ से ही स्थितियां फिर से पहले जैसी होने लगीं। श्रमिक संगठन और ट्रेड यूनियन ध्वस्त होने लगे, तमान सरकारों ने उन पर पाबंदी लगानी शुरू कर दी, स्थाई सेवायें समाप्त की जाने लगीं और लगभग सभी शरीक अस्थाई हो गए। जाहिर है, श्रमिकों के अधिकार भी समाप्त हो गए और विरोध के स्वर बुलंद करने वाले श्रमिकों की सेवायें आसानी से समाप्त करने का अधिकार पूंजीपतियों की हाथ में आ गया। आज के दौर में पूंजीवाद सामान्य नहीं है, बल्कि चरम है। अब तो सरकारें भी पूंजीवाद ही बनाता है, मीडिया का काम भी पूंजीवाद ही करता है और जनता को क्या मिलना चाहिए और क्या नहीं, यह तय भी पूंजीवाद ही करता है।
वर्ल्ड डेवलपमेंट नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में श्रमिकों के वास्तविक वेतन के साथ ही मनुष्य की औसत लम्बाई के अंतर और औसत आयु को भी मानदंड बनाय गया था। कुछ लोगों को औसत लम्बाई और औसत आयु पर आश्चर्य हो सकता है क्योंकि हमेशा यही बताया जाता है कि दशक-दर-दशक इनमें बृद्धि हो रही है क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था ने स्वास्थ्य को बेहतर किया है और पोषण बढ़ता जा रहा है। डेलन सुल्लिवन ने अपने अध्ययन में इसका बहुत बेबाकी से वर्णन किया है। उनके अनुसार, यह सब गलत धाणनाएं पूंजीवादी प्रचार तंत्र की देन हैं। दुनिया में अत्यधिक गरीब आबादी लगातार बढ़ती जा रही है, जाहिर है यह सब पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। पूंजीवाद का प्रसार और गरीबी में सीधा सम्बन्ध है, पर पूंजीवाद जब बताता है कि पूंजीवाद पनपने के पहले पूरी दुनिया गरीब थी तब वर्तमान गरीबी को वह आराम से बता पाता है कि अब केवल एक-तिहाई आबादी ही अत्यधिक गरीब है, और यह पूंजीवाद का मानव विकास है।
मानव लम्बाई और उचित पोषण का सीधा रिश्ता है। हमारी सरकार और उनके समर्थक खुश हैं कि देश की अर्थव्यवस्था का विस्तार हो रहा है। पर, हमारे देश की सामान्य आबादी का जीवन स्तर पहले से अधिक निम्नस्तर पर पहुँच रहा है। हम भारतीयों की लम्बाई कम होती जा रही है, यह निष्कर्ष है, एक शोधपत्र का जिसे के के चौधरी, सायन दास और प्राचीनकुमार घोडाज्गर ने लिखा है और यह पलोस वन (PLOS One – Online Journal) नामक जर्नल में 17 सितम्बर 2021 को प्रकाशित किया गया था।
इस शोधपत्र का शीर्षक है, ट्रेंड्स इन एडल्ट हाइट इन इंडिया फ्रॉम 1998 टू 2015: एविडेंस फ्रॉम नेशनल फॅमिली एंड हेल्थ सर्वे। इस शोधपत्र के अनुसार 1998 -1999 के नेशनल सर्वे से 2005-2006 के सर्वे के बीच तो औसत लम्बाई बढ़ी, पर 2005-2006 से 2015-2016 के नेशनल सर्वे के बीच औसत लम्बाई में गिरावट देखी गयी। हालां कि, औसत लम्बाई हरेक आयुवर्ग और आर्थिक स्तर पर कम हो गयी, पर इसका सबसे अधिक असर समाज के सबसे वंचित वर्ग पर देखा गया।
जाहिर है, इसका कारण पोषण, तनाव और स्थानीय पर्यावरण है। इस शोधपत्र के अनुसार वर्ष 2005 से 2015 के बीच 15 से 15 वर्ष के आयुवर्ग की महिलाओं की औसत ऊंचाई में 0.12 सेंटीमीटर की कमी दर्ज की गयी, जबकि 26 से 50 वर्ष के आयुवर्ग की महिलाओं में यह कमी 0.13 सेंटीमीटर रही। सबसे गरीब अनुसूचित जनजाति की महिलाओं में 15 से 25 वर्ष के समूह में यह कमी 0.42 सेंटीमीटर आंकी गयी है। इसी तरह पुरुषों के 15 से 25 वर्ष के आयु वर्ग में इसी अवधि के दौरान 1.1 सेंटीमीटर की कमी और 26 से 50 वर्ष के आयुवर्ग में 0.86 सेंटीमीटर की कमी दर्ज की गयी है।
इस शोधपत्र में बताया गया है कि अमेरिका, चीन, जापान, साउथ कोरिया, अनेक पश्चिमी यूरोपीय देशों में लम्बाई पिछले कुछ दशकों से स्थिर है। दूसरी तरफ नीदरलैंड सरकार के ब्यूरो ऑफ़ स्टेटिस्टिक्स द्वारा हाल में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार वहां भी औसत लम्बाई कम हो रही है।
बढ़ाते पूंजीवाद के साथ ही दुनियाभर में सामान्य आबादी की औसत आयु भी कम हो रही है। हाल में ही संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स 2021-2022 के अनुसार वर्ष 2019 में वैश्विक स्तर पर मनुष्य की औसत आयु 72.8 वर्ष थी, पर 2021 के अंत तक यह 71.4 वर्ष रह गयी। प्रधानमंत्री मोदी, उनके समर्थकों और भारतीय मीडिया द्वारा घोषित विश्वगुरु, न्यू इंडिया, की स्थिति औसत आयु के सन्दर्भ में वैश्विक औसत से भी बदतर है। वर्ष 2019 में हमारे देश में औसत आयु 69.7 वर्ष थी, पर वर्ष 2021 में यह 67.2 वर्ष पर सिमट गयी। इस रिपोर्ट के अनुसार विश्व में वर्ष 2020 की तुलना में वर्ष 2021 में 90 प्रतिशत देशों की आबादी का जीवन स्तर बदतर हो गया है, और भारत समेत 40 प्रतिशत देश ऐसे हैं, जहां जीवन स्तर में गिरावट लगातार दो वर्षों से हो रही है।
पूंजीवाद सामान्य आबादी को मार रहा है – अब बहुत से देश इस तथ्य को समझ रहे हैं और पूंजीवादी व्यवस्था की मनमानी पर अंकुश लगा रहे हैं। पर, हमारे देश में हरेक स्तर पर पूंजीवाद को सरकारी स्तर पर बढ़ावा दिया जा रहा है और इसका नतीजा स्पष्ट है। हरेक वर्ष पूंजीपतियों की संख्या बढ़ जाती है और साथ ही भुखमरी और बेरोजगारी भी।