आरएसएस और भाजपा को शिक्षा, स्वास्थ्य और जनसुविधाओं का राष्ट्रीयकरण और दलित-पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण नहीं आता पसंद (file photo)
वरिष्ठ लेखक कंवल भारती की टिप्पणी
जनज्वार। सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं। सामाजिक परिवर्तन का मतलब है अन्याय और शोषण पर आधारित व्यवस्था को बदलकर एक समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करना। इसलिए प्राय: समतामूलक समाज के सभी समर्थकों ने सामाजिक परिवर्तन का नारा दिया। कांशीराम ने भी शुरू में सामाजिक परिवर्तन की ही बात कही थी, किन्तु यथास्थितिवादियों ने इसके विरुद्ध सामाजिक न्याय का नारा दिया। भारतीय राजनीति में यह नारा विश्वनाथ प्रसाद सिंह लेकर आए थे।
सामाजिक न्याय का मतलब है, मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखकर न्याय की बात करना। गरीबों और कमजोर वर्गों के लिए लाभकारी योजनाएं और आरक्षण इसी सामाजिक न्याय के उत्पाद हैं। लेकिन आरएसएस और भाजपा को सामाजिक न्याय पसंद नहीं, इसलिए उन्होंने सामाजिक समरसता का नारा दिया, जिसका मकसद है, सभी वर्ग वर्णव्यवस्था के अनुसार बिना संघर्ष के अपना-अपना कार्य करते रहें। यही कारण है कि आरएसएस और भाजपा को शिक्षा, स्वास्थ्य और जनसुविधाओं का राष्ट्रीयकरण और दलित-पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण पसंद नहीं आता है।
कांशीराम ने जब आरएसएस और भाजपा से हाथ मिलाया, तो उन्होंने अपना नारा भी बदला। वह सामाजिक परिवर्तन को छोड़कर सामाजिक न्याय की राजनीति के रथ पर सवार हो गए। जातीय सभाओं और भागीदारी की राजनीति की उन्होंने ऐसी आग लगाई कि चमार, पासी, वाल्मीकि, खटीक, मौर्य-शाक्य-कुशवाह, प्रजापति, कुर्मी-जाट आदि तमाम जातियों की अलग-अलग राजनीति शुरू हो गई। यहीं से अस्मिता यानी पहचान की राजनीति अस्तित्व में आई। हालाँकि समाज में अपनी अलग पहचान बनाकर अस्मिता की सामाजिकता की स्थापना ब्राह्मणों ने ही की थी।
उन्होंने जातीय पहचान के नामकरण अलग-अलग किए, जनेऊ के रंग-धागे अलग-अलग किए, छापे-तिलक अलग-अलग किए, पहनावे-भेषभूषा अलग-अलग किए। निवास-स्थान अलग-अलग किए, भाषाएं अलग-अलग कीं, काम-धंधे अलग-अलग किए, यहाँ तक कि न्याय भी अलग-अलग किए। अगर यह कहा जाए कि ब्राह्मणों की इस अलगाववादी नीति ने ही अलगाववादी राजनीति को जन्म दिया, तो गलत न होगा। यही अलगाववाद आरएसएस और भाजपा की 'सामाजिक समरसता' के मूल में है।
सामाजिक परिवर्तन का मार्ग कठिन है, पर असम्भव नहीं है। यह जनता की जागरूकता पर निर्भर करता है। अगर जनता जागरूक नहीं है, तो इसलिए कि उनके नेता इस दिशा में जागरूक नहीं हैं। तब क्या यह मान लिया जाए कि मौजूदा व्यवस्था में रहकर ही लोकतांत्रिक तरीके से लड़ना उपेक्षित समुदाय की भागीदारी के लिए जरूरी है? उपेक्षित जातियां चार हजार से भी ज्यादा हो सकती हैं। तब, क्या इतनी बड़ी संख्या में सत्ता में भागीदारी संभव है?
जब हम भागीदारी की बात करते हैं, तो हमें उसमें उपेक्षित समुदाय की मुक्ति कम और उनके नेताओं की निजी मुक्ति ज्यादा दिखाई देती है। मिसाल के तौर पर स्वामी प्रसाद मौर्य को लीजिए। वह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में पिछड़े वर्गों के लिए ब्राह्मणवाद से मुक्ति का एक प्रमुख चेहरा हुआ करते थे। वह शुरू से कांशीराम के साथ रहे, और बसपा की सभी सरकारों में मंत्री रहे। किन्तु उनका समाज जिस तरह कल उपेक्षित था, उसी तरह आज भी है। लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपनी और अपने परिवार की मुक्ति के सारे साधन हासिल कर लिए। बसपा कमजोर हुई, तो तुरंत उन्होंने भाजपा से सौदेबाजी शुरू कर दी, और अपनी और अपनी बेटी दोनों की मुक्ति निश्चित कर दी। यह मुक्ति मौर्य ने अपनी जाति के वोटों को बेचने की कीमत पर की।
व्यक्तिगत रूप से भाजपा के लिए मौर्य की कोई हैसियत नहीं थी, हैसियत थी उनकी जाति के वोटों की। चूँकि जनता जागरूक नहीं है, जिससे उनके नेता अपने हित में उसका इस्तेमाल करते हैं, इसलिए जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती रह जाती है, और नेता के महल खड़े हो जाते हैं, वह अपने धन-वैभव में इस कदर खोया रहता है कि उसे अपनी कौम के सामान्य दुख-दर्द भी दिखाई नहीं देते। अपने सुख के लिए कल वे किसी और दल में भी जा सकते हैं, क्योंकि उनका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है, इसलिए उन की सेहत पर कोई असर भी नहीं पड़ता।
केशव प्रसाद मौर्य का मामला कोई बहुत अलग नहीं है। वह योगी की सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं, पर शायद ही अपनी कौम के उत्थान के बारे में कोई निर्णय लेने का उन्हें अधिकार है। इन दोनों मौर्यों ने अपने फायदे और अपनी मुक्ति के लिए अपनी कौम को भाजपा के हिंदुत्व से जोड़ दिया और इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि भाजपा का हिंदुत्व पिछड़ी जातियों को सामाजिक समरसता के अंतर्गत विकास का कोई अवसर नहीं देता। इसी भाजपा और आरएसएस ने मंडल कमीशन के खिलाफ आन्दोलन चलाया था और आरक्षण के विरुद्ध दलित छात्रावासों पर सवर्णों से हमले करवाए थे।
यही कहानी 'अपना दल' की नेता अनुप्रिया पटेल की है। यही कहानी रामविलास पासवान की थी, यही कहानी उनके बेटे चिराग पासवान की है और इसी कहानी को उनके चाचा पशुपति कुमार पारस ने ऐसा दोहराया कि चिराग कहीं के नहीं रहे। चिराग को नितीश कुमार से परेशानी थी, जबकि स्वयं को वह मोदी का हनुमान कहते थे। अगर उन्होंने मोदी का हनुमान बनने की बजाए, अपने समुदाय के प्रति वफादारी दिखाई होती और अपनी पार्टी को वैचारिक आधार देकर उसे दलित वर्गों में मजबूत किया होता, तो वह इतिहास बनाते।
इसी तरह उदित राज हुए, जिन्होंने अपनी मुक्ति के लिए अपनी पार्टी का ही भाजपा में विलय कर दिया। भाजपा ने उन्हें सांसद तो बनवा दिया, पर दलितों के मुद्दों पर उदित राज का बोलना भाजपा को पसंद नहीं आया। सो, उन्हें दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया गया। भाजपा को ऐसे दलित-पिछड़े चाहिए, जो गाँधी के तीन बंदरों की तरह मुंह, कान, और आँखें बंद करके रहते हों। ऐसा ही एक व्यक्ति उदित राज की जगह भाजपा को मिल भी गया। उदित राज सबसे ज्यादा नासमझ साबित हुए, जिन्होंने सांसद बनने के अति उत्साह में अपनी पार्टी ही खो दी।
भाजपा ने महादलित और महापिछड़े का जो खेल खेला, उसे दलित-पिछड़ी जातियों के नेता नहीं समझ सके। भाजपा ने बड़ी कौशल से यह रणनीति बनाई और यह दुष्प्रचार किया कि आरक्षण का सारा लाभ अगड़ी दलित-पिछड़ी जातियों को मिल रहा है, जिसकी वजह से अन्य दलित-पिछड़ी जातियों का विकास नहीं हो पा रहा है। फिर क्या था, महादलित और महापिछड़ी जातियों में अनगिनत नेता पैदा हो गए, जो भाजपा के सुर में सुर मिलाकर अलग आरक्षण की मांग की राजनीति करने लगे। इनमें सबसे ज्यादा भ्रमित वाल्मीकि (मेहतर) समुदाय के लोगों को किया गया।
रातोंरात उनके हितैषी बनकर कई नेता वाल्मीकियों को अलग आरक्षण के सवाल पर भाजपा के समर्थक हो गए। भाजपा ने इनमें से कई नेताओं को पालना शुरू कर दिया। इनमें एक हुए बबन रावत, जिन्होंने बिहार में सफाई कर्मचारियों के बीच भाजपा के एजेंडे पर काम करना शुरू किया, और भाजपा ने खुश होकर उन्हें सफाई कर्मचारी आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया। बबन रावत की मुक्ति का रास्ता खुल गया, जो वह चाहते थे; किन्तु सफाई कर्मचारी और वाल्मीकि समुदाय के कितने कष्ट उनकी मार्फत दूर हुए? क्या ठेका-प्रथा उन्होंने खत्म कराई, जो सफाई कर्मचारियों के आर्थिक शोषण का सबसे क्रूर तंत्र है?
क्या गटर में काम करने के दौरान मरने वालों के लिए उन्होंने कोई राहत दिलवाई? क्या उन्हें आरक्षण का वह लाभ मिला, जिसकी दुहाई दी जा रही थी? क्या उनके शैक्षिक विकास की कोई अलग योजना बनाई गई? ये तमाम सवाल हैं, जिनकी ओर से बबन रावत ही नहीं, उनके सरीखे सभी नेताओं ने अपने मुंह बंद कर लिए हैं। अगर वे मुंह खोलेंगे, तो अपने समुदाय के प्रति वफादारी का सबूत देंगे, लेकिन तब भाजपा उनको बर्दाश्त नहीं करेगी।
ऐसे ही लखनऊ के लालजी निर्मल हैं, जो अपनी मुक्ति के लिए भाजपा में जाकर योगी आदित्यनाथ के भक्त बन गए। उन्होंने बाकयदा योगी को दलित जातियों का मित्र घोषित किया, और अगली ही बार योगी ने उन्हें अनुसूचित जाति वित्त-विकास निगम का अध्यक्ष बना दिया। अब वे मौन हैं, दलितों की समस्याएं अब उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं, जिस दिन दलित उनकी प्राथमिकता में आएंगे, उनका हश्र भी वही होगा,जो दूध में पड़ी मक्खी का होता है।
अभी ताजा मामला 'निर्बल शोषित हमारा अपना दल' (निषाद पार्टी) के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद का है। वह अपनी मुक्ति के लिए अपनी कौम को भाजपा के हाथों बेचने के लिए तैयार हो गए हैं। उन्होंने शर्त यह लगाई है कि जब यूपी में भाजपा की सरकार बने, तो उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद दिया जाए। उन्होंने अपने निषाद समाज के उत्थान और विकास की कोई शर्त नहीं रखी, बल्कि अपनी मुक्ति को महत्व दिया। ऐसे लोग भागीदारी के नाम पर कुछ भी और किसी से भी सौदा कर सकते हैं।
असल में ये लोग सामाजिक न्याय की राजनीति के नाम पर अपनी कौम का सौदा करते हैं, और उसके बल पर पूरी निर्लज्जता से अपना पतझड़ दूर करने और अपने जीवन में बहार लाने की राजनीति करते हैं। ये वास्तव में लूट में भागीदारी की राजनीति है, जिसमें सामाजिक न्याय के नाम पर शोषण की सत्ता का समर्थन है। यह यथास्थितिवाद को तोड़ने की राजनीति नहीं है, बल्कि उसे कायम रखने की राजनीति है। उनकी जातियां वह कच्चा माल हैं, जिनके बल पर शोषक वर्ग अपने सुख-आनंद का निर्माण करता है।
(प्रगतिशील आम्बेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक कंवल भारती का यह लेख पहले फॉरवर्ड प्रेस में प्रकाशित)