न्यू इंडिया : हर रोज हिरासत में 5 मौत होती रही, एक भी पुलिसकर्मी को नहीं मिली सजा
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। हमारे देश, जिसे पहले भारत या इंडिया कहते थे पर अब न्यू इंडिया के नाम से और राम राज्य के नाम से जाना जाता है, में प्रतिदिन हिरासत में औसतन 5 लोग मार देये जाते हैं, या मर जाते हैं। हाल में की संसद में यह जानकारी दी गई है कि अप्रैल 2019 से मार्च 2020 के बीच देश में हिरासत में कुल 1697 व्यक्तियों की मृत्यु दर्ज की गई है, जिसमें से 1584 मौतें न्यायिक हिरासत में और 113 मौतें पुलिस हिरासत में हुई हैं।
हालांकि, मानवाधिकार कार्यकर्ता और विशेषज्ञ इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं करते, उनके अनुसार सरकार की संख्या वास्तविक संख्या की एक-तिहाई से अधिक नहीं है। फिर भी, जिस सरकार के पास प्रवासी मजदूरों की मौत का आंकड़ा नहीं हो, जिस सरकार के पास कोविड 19 के दौरान ड्यूटी करते स्वास्थ्यकर्मियों की मौत का आंकड़ा नहीं हो, उस सरकार के पास हिरासत में मौतों का अधकचरा ही सही पर आंकड़ा हो, यही आश्चर्य का विषय है।
न्यायिक हिरासत के सन्दर्भ में सबसे अधिक 400 मौतें योगी जी के तथाकथित उत्तम (उत्तर) प्रदेश में दर्ज की गई हैं। इसके बाद के राज्य हैं – मध्य प्रदेश में 143, पश्चिम बंगाल में 115, बिहार में 105, पंजाब में 93 और महाराष्ट्र में 91 मौतें। पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों में संख्या के अनुसार 14 मौतों के साथ मध्य प्रदेश सबसे आगे है, इसके बाद तमिलनाडु और गुजरात में 12-12 मौतें दर्ज की गईं हैं।
संसद को आगे बताया गया कि इसी अवधि के दौरान देश में 112 पुलिस एनकाउंटर किये गए हैं। आश्चर्य यह है कि एनकाउंटर (उत्तर) प्रदेश का नाम 26 पुलिस एनकाउंटर के साथ दूसरे स्थान पर है, जबकि सबसे अधिक, 39 एनकाउंटर छत्तीसगढ़ के नाम दर्ज हैं।
देश में कुल 1350 कारावास हैं, जिनकी स्थापित क्षमता 4,03,739 कैदियों की है, पर इन कारागारों में 31 मार्च 2020 तक कुल 4,78,600 कैदियों को ठूंसा गया था। क्षमता से अधिक कैदियों की संख्या के सन्दर्भ में सबसे बुरी स्थिति में स्वघोषित रामराज्य वाला प्रदेश, उत्तर प्रदेश है। उत्तर प्रदेश के कुल 72 कारागारों की स्थापित क्षमता 60,340 कैदियों की है, पर इनमें कुल 1,01,297 कैदियों को ठूंसा गया है।
पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों के आंकड़े सरकार की ही दो संस्थाओं के अलग-अलग रहते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार पुलिस हिरासत में प्रति वर्ष औसतन 98 मौतें होतीं हैं, पर नॅशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन के अनुसार यह आंकड़ा 143 है।
गैर-सरकारी संस्था नॅशनल कैंपेन अगेंस्ट टार्चर ने इंडियन एनुअल रिपोर्ट ऑन टार्चर 2019 को हाल में ही प्रकाशित किया है, इसके अनुसार वर्ष 2019 के दौरान देश में हिरासत में मरने वालों की संख्या 1731 है, यह संख्या भी लगभग 5 मौत प्रतिदिन है। कुल मौतों में से 1606 मौतें न्यायिक हिरासत में और शेष 125 पुलिस हिरासत में हुई हैं।
इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिस हिरासत में मौत की संख्या से क्रमवार राज्य हैं – उत्तर प्रदेश (14), तमिलनाडु (11), पंजाब (11), बिहार (10), मध्य प्रदेश (9), गुजरात (8), दिल्ली (7), ओडिशा (7), झारखण्ड (6), छत्तीसगढ़ (5), महाराष्ट्र (5), राजस्थान (5), आंध्र प्रदेश (4), हरयाणा (4), जम्मू और काश्मीर (2), उत्तराखंड (2), मणिपुर (2), असम (1), हिमाचल प्रदेश (1), तेलंगाना (1) और त्रिपुरा (1)।
इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिस हिरासत में होने वाली कुल 125 मौतों में से 93, यानि 74.4 प्रतिशत का कारण पुलिस द्वारा दी जाने वाली यातना है, 24 यानि 19.2 प्रतिशत की मृत्यु का कारण संदिग्ध है – इसमें 16 की मृत्यु का कारण आत्महत्या, 7 का कारण बीमारी और 1 का कारण चोट है. कुल 5 मौतों यानि 4 प्रतिशत का कारण स्पष्ट नहीं है।
नॅशनल कैंपेन अगेंस्ट टार्चर के अनुसार पुलिस यातना में वो सभी तरीके हैं जो दरिन्दे और खूंखार अपराधी हत्याओं के लिए अपनाते हैं। डंडे मारना, उल्टा लटकाना, या गुप्तागों में रोड डालना या लाल मिर्र्च पाउडर उडेलना, मुँह में मल-मूत्र डालना जैसे तरीके तो पुलिस लगातार अपनाती रही हैं, पर अब तो शरीर में कील ठोकना (बिहार में गुर्फान आलम और तस्लीम अंसारी की मौत), गर्म सरिये से शरीर दागना (जम्मू और कश्मीर में रिजवान असद पंडित की मौत), पैर के तलवों पर बेतहाशा प्रहार (केरल में राजकुमार की मौत), हाथ की या पैर की हड्डियां तोड़ना, महिलाओं का बलात्कार और गुप्तांगों या जननांगों पर बलपूर्वक प्रहार (हरयाणा में ब्रजपाल मौर्या और लीना निरंजनी की मौत) जैसे तरीके भी हमारी बहादुर पुलिस अपनाने लगी है।
इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिस हिरासत में मारे जाने वालों में अधिकतर गरीब, अल्पसंख्यक या फिर सीमान्त आबादी के लोग हैं। कुल 125 मौतों में से 75 गरीब और सीमान्त, 13 दलित और 15 मुस्लिम हैं। पुलिस हिरासत में पिछले वर्ष कुल 4 महिलाओं की भी ह्त्या की गई। रिपोर्ट के अनुसार न्यायिक हिरासत में मौतें अधिक है क्योंकि इसमें लोग तीन महीने से 6 महीने तक के लिए भेजे जाते है, इसमें लोगों की संख्या भी बहुत अधिक रहती है, कुछ लोग बीमार होकर मर जाते हैं, कुछ जेल के अन्दर गैंगवार का निशाना बनते हैं और शेष पुलिस या फिर जेल अधिकारियों द्वारा मार दिए जाते हैं।
पुलिस हिरासत में लोग 2-3 दिनों के लिए रहते हैं और अधिकतर मामलों में पुलिस यातना देकर लोगों को मार डालती है फिर हस्पताल ले जाकर अस्पताल में मृत्यु का सर्टिफिकेट लेकर आ जाती है। ऐसी मौतें पुलिस हिरासत में मौतें नहीं मानी जातीं, पर इनकी संख्या बहुत अधिक रहती है। वैसे भी जो पुलिस हिरासत में मौतें होतीं भी हैं, उन्हें दर्ज नहीं किया जाता क्योंकि गरीबों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों की आवाज दबा दी जाती है।
यदि वास्तविक संख्या सामने आने लगे तो जाहिर है उत्तर प्रदेश में महज 14 और जम्मू और काश्मीर में महज 2 मौत का आंकड़ा नहीं रहता। उत्तर प्रदेश में तो पुलिस वाले सरे आम बिना हिरासत में लिए ही मार डालते हैं और जम्मू और काश्मीर में तो ऐसे क़त्ल पुलिस की दैनिक दिनचर्या का हिस्सा है। जम्मू और कश्मीर में तो लोगों को पुलिस गायब भी कर देती हैं, जिनका वर्षों से कोई सुराग नहीं है।
नॅशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन द्वारा अगस्त 2020 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक (2010-2019) के दौरान देश में कुल 17146 व्यक्तियों की मृत्यु हिरासत में हुई है, जिसमें से 1387 मामले पुलिस हिरासत के हैं। पिछले दशक के दौरान हरेक वर्ष औसतन 1576 मौतें न्यायिक हिरासत में और 139 मौतें पुलिस हिरासत में दर्ज की गईं हैं।
नॅशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन के अनुसार इस वर्ष जनवरी से जुलाई के बीच हिरासत में कुल 914 मौतें हुईं हैं, जिनमें से 53 मौतें पुलिस हिरासत में दर्ज की गईं हैं।
अमेरिका में पुलिस द्वारा एक अश्वेत जॉर्ज फ्लोयेड की मौत सके बाद से देशव्यापी आन्दोलन महीनों से चल रहे हैं, हरेक राज्य और शहर में अमेरिकी जनता जिसमें श्वेत भी शामिल हैं, सडकों पर उतारकर अपना विरोध प्रदर्शन कर रही है। इस आन्दोलन को स्वयं राष्ट्रपति ट्रम्प ने बार-बार बदनाम करने का प्रयास किया, खुले आम अश्वेतों को कमतर कहा, कई शहरों में फ़ौज को भी उतार दिया, आन्दोलन के दौरान कुश और अश्वेत मार डाले गए – फिर भी आन्दोलन थमा नहीं हैं।
पर आश्चर्य यह है कि हमारे देश में हरेक दिन औसतन पांच व्यक्तियों की मौत, जिसमें अधिकतर ह्त्या है, के बाद भी कोई भी आन्दोलन हिरासत में ह्त्या या फिर पुलिस द्वारा की जाने वाली हत्या के विरोध में नहीं होता, अलबत्ता पुलिस द्वारा निर्मम हत्या किये जाने के बाद पुलिस वालों के स्वागत की खबर जरूर मिलती है।
हैदराबाद में कुछ महीने पहले लगभग 10 बहादुर पुलिस वालों ने चार निहत्थे लोगों को ढेर कर दिया और जनता पुलिस वालों पर फूल बरसाती रही, यही कारनामा उत्तर प्रदेश में केवल विकास दुबे के साथ ही नहीं बल्कि बार-बार दुहराया जाता है और हरेक बार पुलिस को वाहवाही और शाबासी मिलती हैं।
इंडियन लॉ कमीशन ने वर्ष 1984 और फिर 1994 में सरकार को सुझाव दिया था कि यदि पुलिस हिरासत में किसी की मौत होती है तो सीधे तौर पर पुलिस को जिम्मेदार माना जाए, पर इस सुझाव को आजतक सरकार ने स्वीकार नहीं किया है। अनेक राज्य सरकारें तो ऐसी मौतों या फर्जी मुठभेड़ों के बाद सम्बंधित पुलिस वालों को तरक्की देकर सम्मानित भी करती हैं।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ऐसे मामलों में तमाम कानूनों और प्रावधानों के बाद भी वर्ष 2005 से लेकर अबतक देश में एक भी पुलिस वाले को हिरासत में हत्या के लिए जिम्मेदार नहीं माना गया है, जाहिर है किसी को सजा भी नहीं हुई है।