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विमर्श

आत्महत्याओं के मामले में विश्वगुरु है भारत, हमारे सांसद और विधायक कहीं मनोरोगी तो नहीं?

Janjwar Desk
9 July 2021 11:27 AM GMT
आत्महत्याओं के मामले में  विश्वगुरु है भारत, हमारे सांसद और विधायक कहीं मनोरोगी तो नहीं?
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file photo

मानसिक रोगों से घिरी आबादी में आत्महत्या की दर अधिक रहती है, और आत्महत्या के सन्दर्भ में हमारा देश विश्वगुरु है, नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2019 में हमारे देश में हरेक दिन औसतन 381 व्यक्तियों ने आत्महत्या की है....

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री मोदी ने जैसलमेर की एक सभा में विस्तारवाद की नीति को मानसिक रोग बताया था। इससे पहले भी उन्होंने परीक्षा देने जा रहे छात्रों में बड़े पैमाने पर अवसाद और तनाव की चर्चा की थी। कोविड 19 के दौर में मानसिक रोग का शिकार बड़े पैमाने पर जनता हो रही है, पर इसकी चर्चा कोई नहीं करता।

जनता महंगाई, बेरोजगारी, कोविड 19 का डर, सामाजिक अलगाव, भूख, चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था और अपनों को खोने के दर्द के कारण बड़े पैमाने पर तनाव, अवसाद और दूसरे मानसिक विकारों से घिरती जा रही है। पर, समस्या यह है कि मानसिक विकारों से हम जूझते रह जाते हैं पर कभी इससे सम्बंधित विशेषज्ञों से सलाह नहीं लेते।

कोविड 19 के दौर से पहले भी हमारा देश बड़े पैमाने पर मानसिक बीमारियों से जूझ रहा था। विश्व स्वास्थ्य संगठन अनेक बार इस बारे में रिपोर्ट प्रकाशित कर चुका है, और भारत के सर्वाधिक अवसाद वाला देश घोषित कर चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में 15 प्रतिशत रोग मानसिक कारणों से हैं, पर भारत में यह इससे भी अधिक है। दूसरी तरह हमारा देश एक ऐसा देश है, जहां इसकी कोई चर्चा नहीं होती और न ही कोई पैमाना है जिससे पता किया जा सके की कोई मानसिक तौर पर स्थिर है या अस्थिर। जाहिर है इसी कारण मनोविज्ञान के क्षेत्र में हम पिछड़े देशों में शुमार किये जाते हैं। हमारे देश में प्रति एक लाख लोगों पर 0.301 मनोचिकित्सक और 0.047 मनोवैज्ञानिक हैं।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि वर्ष 1950 के द रेप्रेसेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट की धारा 16 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति मानसिक तौर पर स्वस्थ्य नहीं है तो वह मतदाता नहीं बन सकता और ऐसा कोई भी व्यक्ति संविधान के अंतर्गत बताये गए पब्लिक ऑफिस, जैसे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मंत्री, संसद सदस्य और विधायक नहीं बन सकता।

यह क़ानून आज भी लागू है, पर क्या आपने कभी देखा है कि मतदाता सूचि में नाम शामिल कराने के लिए आपसे कहा गया हो कि किसी मनोचिकित्सक का सर्टिफिकेट लेकर आओ की तुम मानसिक तौर पर स्वस्थ्य हो? या फिर कभी आपने सुना है, संसद सदस्य या विधायक के चुनाव में खड़े उम्मीदवारों से ऐसा कोई सर्टिफिकेट माँगा गया हो या फिर इनका कोई मानसिक स्वास्थ्य जांचने के लिए परीक्षण किया जा रहा हो? जाहिर है, क़ानून में शामिल करने के बाद भी मानसिक स्वास्थ्य की शर्तों को भुला दिया गया है, नकार दिया गया है।

कोई सजी सजाई विशेष ट्रेन से कानपुर पहुंचता है और उतरते ही बताने लगता है कि उसकी सैलरी कितनी है और इसमें से कितना टैक्स कटता है, कोई भाषणों के बीच में बार-बार आंसू बहाता है, कोई कहता है मुझे चौराहे पर मारना, कोई बलात्कारी से कहता है कि जिसका बलात्कार किया है उससे शादी कर लो, कोई कोविड 19 से असमय होने वाली मौतों को भगवान की मर्जी बताने लगता है, कोई माइक थामते ही हिंसक भाषा का इस्तेमाल करने लगता है – यदि आप मानसिक रोगी नहीं हैं, तो ध्यान देकर सोचिये कि मानसिक तौर पर स्वस्थ्य कोई भी व्यक्ति ऐसे वक्तव्य दे सकता है?

वर्ष 2017 में इंडियन कौंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने देश में मानसिक स्वास्थ्य पर एक बड़ा सा अध्ययन किया था, इसे स्वास्थ्य विज्ञान से सम्बंधित प्रतिष्ठित जर्नल लांसेट ने प्रकाशित किया था। इस अध्ययन के नतीजे चौकाने वाले थे, इसके अनुसार देश में हरेक सातवाँ व्यक्ति मानसिक तौर पर बीमार है। देश के कुल 18 करोड़ नागरिक मानसिक व्याधियों से घिरे हैं। देश में अवसाद से लगभग 4.6 करोड़ और तनाव से 4.5 करोड़ आबादी ग्रस्त है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इस दौर में अवसाद एक महामारी की तरह फ़ैल रहा है।

नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार देश में 15 करोड़ से अधिक आबादी मानसिक रोगों से ग्रस्त है, पर महज 3 करोड़ से भी कम आबादी इसके लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह ले रहे हैं। मानसिक रोगों से घिरी आबादी में आत्महत्या की दर अधिक रहती है, और आत्महत्या के सन्दर्भ में हमारा देश विश्वगुरु है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2019 में हमारे देश में हरेक दिन औसतन 381 व्यक्तियों ने आत्महत्या की है।

ऐसा तो संभव ही नहीं है कि देश में इतनी बड़ी आबादी के मनोरोगी होने के बाद भी हमारे जनप्रतिनिधि इससे अछूते हों। आश्चर्य यह है की इस बारे में मनोचिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों ने पूरी खामोशी बरती है, कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। जनप्रतिनिधियों को अलग कर भी देन तो मेनस्ट्रीम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो पूरी तरह से मनोरोगियों से भरा पड़ा है। कहीं हम सांसदों और विधायकों के मनोरोगी होने के सन्दर्भ में विश्वगुरु तो नहीं बन रहे हैं?

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