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विमर्श

Kaifi Azmi Birthday Special: कैफी आजमी एक मार्क्सिस्ट शायर, जो मुहब्बत से भरा था

Janjwar Desk
14 Jan 2022 10:28 PM IST
Kaifi Azmi Birthday Special: कैफी आजमी एक मार्क्सिस्ट शायर, जो मुहब्बत से भरा था
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Kaifi Azmi Birthday Special: कैफी आजमी एक मार्क्सिस्ट शायर, जो मुहब्बत से भरा था

Kaifi Azmi Birthday Special: यह कैफी आज़मी का जन्म शताब्दी वर्ष है। एक ऐसा शायर जो मदरसों से पढ़-लिखकर आया और फिर प्रोग्रेसिव मूवमेंट का सबसे चमकदार सितारा न सिर्फ विचार के मामले में रहा, बल्कि निजी जीवन में उस विचार से इस तरह संबद्ध था कि दोनों को अलग-अलग करके देखना मुश्किल है।

याद कर रहे हैं फ़िरोज़ खान

Kaifi Azmi Birthday Special: यह कैफी आज़मी का जन्म शताब्दी वर्ष है। एक ऐसा शायर जो मदरसों से पढ़-लिखकर आया और फिर प्रोग्रेसिव मूवमेंट का सबसे चमकदार सितारा न सिर्फ विचार के मामले में रहा, बल्कि निजी जीवन में उस विचार से इस तरह संबद्ध था कि दोनों को अलग-अलग करके देखना मुश्किल है। कैफी आजमी ने अपने जीवन में और बाद में भी बहुत शोहरत पाई। उनके नाम से सड़कें हैं, मुम्बई में एक पार्क का नाम कैफी आजमी पार्क है। एक रेलगाड़ी 'कैफियत एक्सप्रेस' उनकी याद में चलती है। उनकी शोहरत को लेकर तो बहुत बातें हैं, लेकिन उनके संघर्षों को लेकर लोग बहुत ज्यादा नहीं जानते। सज्जाद जहीर (बन्ने भाई) और मुल्कराज आनंद ने 1935 में लंदन के नाॅनकिंग रेस्तरां में बैठकर जिस प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन (पीडब्ल्यूए) की योजना बनाई थी और फिर अगले ही साल जिसे अंजाम देकर लखनऊ में जिसका पहला आयोजन हुआ, उसकी अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद ने की थी। इस कार्यक्रम में जवाहरलाल नेहरू भी शामिल हुए थे और उन्होंने एक जबर्दस्त तकरीर की थी। अपने पहले ही कार्यक्रम से यह संगठन अंग्रेज अफसरों की आंख की किरकिरी बन गया था। बंबई में पीडब्ल्यूए का काम पीसी जोशी देख रहे थे। बाद में 1945 में बंबई के ग्रांट रोड पर जिस मारवाड़ी हाई स्कूल में पीडब्ल्यूए का अगला अधिवेशन हुआ तो कैफी आजमी भी उसमें शामिल थे। इसी मारवाड़ी हाई स्कूल के सामने कुछ ही दूर खेतवाड़ी कम्यून है, जिसे रेड फ्लैग हाॅल भी कहते हैं। यही वो समय था जब कैफी ने 'औरत' जैसी नज्म लिखी। एक ऐसी नज्म जो 75 साल की हो गई और जिसे आज भी स्त्रियों के लिए, स्त्रीवाद के लिए मैनिफेस्टो कहा जा सकता है।

वह इसलिए भी कि उस जमाने में स्त्रीवाद को लेकर इस तरह की कोई बहस न थी, जब कैफी कह रहे थे कि 'कैद बन जाए मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल।' अगर हम उस पूरे वक्त को देखें तो वहां मजदूरों की बात हो रही होती है। सांप्रदायिकता की बात हो रही होती है। एक बराबरी के समाज की बात तो हो रही होती है, लेकिन इसमें पुरुष ही अधिक दिखता है अकसर। ऐसे में कैफी होने का मतलब क्या होता है, यह समझा जा सकता है। एक माक्र्सिस्ट, जो अपने पहले बेटे की मौत के बाद भी बंबई की झुग्गी-झोपड़ियां में काम कर रहा था। एक प्रेमी, जो अपने खून से चिट्ठी लिखकर यकीन दिलाने की कोशिश करता है कि उसकी राहें अलग नहीं हैं। एक ऐक्टिविस्ट, जो अपने छोटे से गांव की तमाम लड़कियों को खुदमुख्तार बनाता है और जब केंद्र सरकार मिजवां के पास से होकर गुजरने वाली एकमात्र रेलगाड़ी को बंद करने का फैसला करती है और रेल की पटरियां उखाड़ी जाती हैं तो यह शख्स अपनी व्हील चेयर पर बैठकर पटरियों के बीच धरना दे देता है और सरकार को झुकना पड़ता है। बहरहाल बंबई का वह रेड फ्लैग हाॅल आज भी वहीं है, जहां कभी कैफी आजमी-शौकत कैफी, अली सरदार जाफरी-सुल्ताना आपा और मुनीष नारायण सक्सेना सहित 8 परिवार रहते थे। एक-एक कमरों के ये घर कम्युनिस्ट पार्टी ने दिए हुए थे। जिनके परिवार में पति और पत्नी दोनों साथी पार्टी से जुड़े होते थे, उनसे तो किराया नहीं लिया जाता था, लेकिन बाकियों से लिया जाता था। पार्टी अपने मैंबरों को खर्चे के लिए 40 रुपये महीना देती थी। कैफी आजमी पार्टी के लिए काम कर रहे थे, लेकिन शौकत कैफी से किराया लिया जाता था, क्योंकि वे पार्टी से नहीं जुड़ी थीं। बहरहाल, कैफी और शौकत जब इस रेड फ्लैग हाॅल में शिफ्ट हुए, तब शबाना करीब एक साल की थीं। इससे पहले कैफी का एक बेटा पैदा हुआ, जिसका नाम खैय्याम था और जो करीब एक साल की उम्र में रहा नहीं।


कैफी ने पीडब्ल्यूए और इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर असोसिएशन) के लिए खूब काम किया। पिछले दिनों बंबई के उस दौर के प्रोग्रेसिव मूवमेंट पर बातचीत के लिए शबाना आजमी से मिला तो उन्होंने बताया कि कैफी के जन्म शताब्दी वर्ष के चलते इंग्लैंड, पाकिस्तान समेत दुनियाभर में कैफी पर इस साल कार्यक्रम हो रहे हैं। उन्होंने उन कार्यक्रमों की सूची मेल की तो यह जानकार हैरानी हुई कि इप्टा ने मुंबई के पृथ्वी थियेटर में इस साल 26 जनवरी को जरूर एक कार्यक्रम कैफी की याद में रखा। पीडब्ल्यूए ने अब जाकर जरूर 13 से 15 सितंबर के बीच जयपुर में होने वाला प्रगतिशील लेखक संघ का 17वां अधिवेशन कैफी आजमी को समर्पित किया है। वहीं, पीडब्ल्यूए की पाकिस्तान इकाई ने दो बड़े कार्यक्रम एक इस्लामाबाद और एक हैदराबाद, सिंध में रखा। हालांकि इसी दौरान पुलवामा अटैक हो गया और शबाना आजमी, जो इन कार्यक्रमों में शामिल होने वाली थीं, जाने से इनकार कर दिया। इसी वक्त में हिंदी सिनेमा की एक मशहूर अदाकारा ने शबाना आजमी को ऐंटि नैशनलिस्ट कहा। मैंने चुहल के अंदाज में शबाना आजमी को व्हाट्सऐप पर एक मैसेज छोड़ा कि आपा आपको ऐंटि नैशनलिस्ट कहा जा रहा है। इस पर उन्होंने जिगर मुरादाबादी का एक शे'र लिखकर भेजा, 'उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें/मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे।' बाद में मिलने पर शबाना आजमी ने कहा कि कैफी अपने विचार और जीवन दोनों में ही कभी बेवजह उग्र नहीं हुए। उनका मानना था कि शोर करने के बजाय काम करना चाहिए और लगातार करना चाहिए। कैफी अपने विचार को मुहब्बत का रास्ता मानते थे, इसलिए अगर आज वे होते तो उन्हें नैशनलिस्ट और ऐंटि नैशनल के फतवे प्रभावित नहीं करते।

शबाना से मिलना और कैफी की याद

पता नहीं अब भी चिट्ठियां आती हैं या नहीं, लेकिन जुहू में पोस्ट आॅफिस की एक मंजिला इमारत की छत पर चिड़ियां खूब बैठी रहती हैं। मुंबई में छत वाले घर दिखना सांप के पैर दिखने जैसा अजूबा है। पोस्ट आॅफिस के बाहर लाल मुंह वाला उदास-सा पोस्ट बाॅक्स है। फिर सड़क, सड़क के पार थोड़ा गली में घुसकर एक ऊंची इमारत है। इसी इमारत के सातवें माले पर एक घर है, जिसके दरवाजे पर रोमन में लिखा है- आजमी अख्तर। घर के कमरों से ठाठें मारता अरब सागर दिखता है। यहां गुजरे जमाने की मशहूर अदाकारा, सोशल और पाॅलिटिकल ऐक्टिविस्ट शबाना आजमी और शायर, पटकथा लेखक तथा तर्कवादी जावेद अख्तर रहते हैं। यह वो घर तो नहीं, जहां कैफी रहते थे। वह जुहू में ही हुआ करता है, जहां शायद अब उनके बेटे बाबा आजमी रहते हैं। लेकिन यहां एक बात जो बार-बार मेरे मन में आती रही, वह ये कि शबाना की मां शौकत जी अपना नाम शौकत कैफी लिखती थीं। यानी अपना और कैफी का पहला नाम। शबाना के घर के दरवाजे पर उनका और जावेद अख्तर दोनों का उपनाम खुदा हुआ है- आजमी अख्तर। खैर...

मुंबई शहर मुझे बहुत आकर्षित करता रहा है। इसके पीछे जो सबसे बड़ी वजह है, वह है इस शहर में प्रोग्रेसिव मूवमेंट का जमाना, उस जमाने के लोग और सिनेमा। उन लोगों में एक बेहद खूबसूरत दिखने वाले शायर कैफी आजमी थे। मैं मुंबई के प्रोग्रेसिव मूवमेंट पर कुछ लोगों से बात करना चाह रहा था। शबाना आजमी से इसी सिलसिले में मिलने गया तो उन्होंने कहा कि प्रोग्रेसिव मूवमेंट पर मेरी जानकारियां बहुत ज्यादा नहीं हैं। इस पर अधिकार के साथ जावेद अख्तर ही बात कर सकते हैं। शबाना ने कहा कि यह कैफी साब का जन्म शताब्दी वर्ष है, इसलिए आप चाहें तो कैफी पर बात कर लीजिए। मेरी ऐसी कोई तैयारी नहीं थी, इसलिए उस रोज कैफी साब पर बात हुई, लेकिन बहुत अनौपचारिक। ठीक यह रहा कि मेरे साथ मेरे प्यारे दोस्त और कवि-कथाकार और युवा फिल्मकार विमलचंद्र पांडेय थे, जिन्होंने बातचीत को दिलचस्प बना दिया।


मैंने कहीं पढ़ा था कि जब बंबई में और दूसरी जगहों पर भी प्रोग्रेसिव मूवमेंट की आंच कम होने लगी तो एक नाउम्मीदी में कैफी अपने गांव मिजवां जाकर काम करने के बारे में सोचते हैं। वे सोचते हैं कि जिस सोशलिस्ट समाज का वे ख्वाब देखते आए हैं, अगर वह पूरे हिंदुस्तान में कामयाब नहीं होता तो क्या, मिजवां में तो काम किया ही जा सकता है। शबाना आजमी ने इस बात पर ऐतराज जताया और कहा कि, 'मिजवां कैफी की विचारधारा का केंद्र बिंदु है। उन्होंने वहां जाकर वही किया, जो उनकी सोच थी और जिसे वे करना चाहते थे। कम्युनिष्ट पार्टी हो, इप्टा हो, प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन हो या फिर कैफी साब की नज्में, इन सबमें कैफी साब को जहां होना था, मिजवां में वे वहीं थे। मिजवां उनकी वह जमीन थी, जिस पर उन्होंने अपनी विचारधारा को जमीन पर उतारा। कैफी की कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था। कैफी ने जो लिखा वह सिर्फ लफ्जों तक रह जाए तब भी बहुत बड़ी बात है, लेकिन जो वे अपनी नज्मों में कहते हैं, उसे उन्होंने प्रैक्टिकली जमीन पर उतारा।'

शबाना कहती हैं, '1972 में कैफी का ब्रेन हेमरेज हुआ। मम्मी बताती हैं कि इसके बाद ये हमेशा मिजवां की रट लगाए रहते थे। इन्होंने इतनी जिद की कि मम्मी को इनके साथ मिजवां जाना पड़ा। 40 साल पहले कैफी साब मिजवां को जैसा छोड़कर गए थे, वह वैसा ही था। न सड़क थी, न बिजली। और तब उन्होंने ये तय किया कि मैं मिजवां में रहकर इसकी बेहतरी के लिए काम करूंगा। उनका मानना था कि अगर सही मानों मे तरक्की होनी है तो तभी हो सकती है जब हम अपने गांवों की तरफ देखें, जहां 70-80 फीसदी आबादी है।' शबाना ने बताया कि इसी दौरान कैफी ने तय किया था कि वे 'मिजवां वेलफेयर सोसायटी' बनाएंगे और लड़कियों और औरतों को केंद्र में रखकर काम करेंगे। तो यह काम पार्टी के काम से अलग था ही नहीं। यह वही काम था जो उनकी सोशलिस्ट सोसायटी का सपना था।

कैफी को याद करते हुए शबाना आजमी वे किस्से भी सुनाती हैं, जो अकसर यहां-वहां सुनाती रही हैं और जो उन्होंने अपनी अम्मा शौकत कैफी से सुन रखे हैं। शबाना कहती हैं कि कैफी आजमगढ़ के एक गांव मिजवां में पैदा हुए थे। उनके वालिद जमींदार थे, लेकिन कैफी वहां सबसे अलहदा थे। यह बात कहते हुए शबाना के चेहरे पर चमक आ जाती है कि बकौल अम्मा कैफी बहुत संवेदनशील थे। जब वे सात साल के थे, तब ईद पर नए कपड़े इसलिए नहीं पहनते थे क्योंकि किसानों के बच्चों को नए कपड़े नहीं मिलते थे।

कैफी के विद्रोही और ऐक्टिविजम वाले किरदार पर और बाद में कम्युनिष्ट पार्टी जाॅइन करने के सवाल पर शबाना कहती हैं, 'इनके यहां हुआ ये कि इनकी तीन बहनें टीबी से मर गईं। घर में ये बोला गया कि शायद बड़े बेटे को अंग्रेजी तालीम दी गई, इसलिए यह हादसा हुआ। तो इसका तोड़ यह निकाला गया कि अतहर हुसैन रिजवी (कैफी के घर का नाम) को दीनी तालीम दिलाई जाए। इसके चलते कैफी साब का दाखिला वहां के सबसे बड़े मदरसे सुल्तानुल मदारिश में करवा दिया गया। अब हुआ ये कि तीन महीने में ही कैफी ने मदरसे में यूनियन बना ली और मदरसे के खिलाफ स्ट्राइक कर दी। इसके बाद इनको वहां से निकाल दिया गया।' (इस बात का जिक्र शौकत कैफी ने अपनी किताब 'याद की रहगुजर' में भी किया है।) शबाना बताती हैं कि इसके बाद कैफी कानपुर चले गए। वहां वे जूते बनाने वालों के साथ काम करने लगे और अपनी शायरी करने लगे। वे अपनी शायरी कम्युनिष्ट पार्टी को भेजते थे। इसी सिलसिले में बंबई में सज्जाद जहीर और पीसी जोशी ने उनकी शायरी देखी तो बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कैफी साब को बंबई बुला लिया। यहां आकर कैफी साब ने औपचारिक तौर पर कम्युनिष्ट पार्टी जाॅइन कर ली।

फिल्मों में काम करने के सवाल पर शबाना कहती हैं कि कैफी का पूरा काम कम्युनिष्ट पार्टी का ही काम था। पार्टी उन्हें महीने का खर्च चलाने के लिए 40 रुपये देती थी। शादी के बाद इन पैसों से काम नहीं चल पाता था तो उन्होंने फिल्मों में लिखना शुरू किया। उस समय तक प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन से जुड़े बहुत से लेखक बंबई फिल्म इंडस्ट्री में काम करने आ गए थे। फिर वे मजरूह हों, साहिर हों, इस्मत चुगताई हों या शैलेंद्र हों, ये लोग बहुत कमिटेड थे। फिल्मों में गीत लिखते समय लोग बंध जाते हैं, उन्हें दूसरों की पसंद से लिखना होता है। उनके पास चाॅइस नहीं होती, लेकिन इन सब लोगों की खासियत ये थी कि ये लोग अपनी चाॅइस का रास्ता निकाल लेते थे। शबाना कहती हैं कि तमाम प्रोग्रेसिव राइटर्स की यह खूबी थी कि वे हिंदी फिल्मों के गानों में जो जुबान इस्तेमाल करते थे, वह बेहद सरल होती थी। कैफी आजमी ने कुछ फिल्मों में ऐक्टिंग भी की। इस पर शबाना कहती हैं कि ऐक्टिंग में कैफी साब की दिलचस्पी तो नहीं थी, लेकिन कैमरा फेस करने में उन्हें जरा भी मुश्किल नहीं होती थी। टीवी पर उनके ढेर सारे इंटरव्यू हैं, उन्हें देखें तो कहीं नहीं लगता कि वे सेल्फ काॅन्सस हैं। उनके लिए डायलाॅग याद करना कोई मुश्किल काम नहीं था।

1992 में बाबरी मस्जिद ढहा देने के बाद कैफी ने एक नज्म 'दूसरा वनवास' लिखी थी। 1984 और 1992 के समय को कैफी किस तरह देख रहे थे और यदि वे इस समय में होते तो आज के माहौल में उनकी क्या प्रतिक्रिया होती, इस पर शबाना कहती हैं कि कैफी साब आॅक्टिमिस्ट थे और उनकी वह आॅक्टिमिजम मुझमें भी आई है। यह तो हम कभी तय नहीं कर सकते कि एक ऐसा दौर आएगा, जिसमें कुछ गलत होगा ही नहीं। हम लोग एक यूटोपियन पैराडाइज में बैठे हों, यह तो हो ही नहीं सकता। डेमोक्रेसी में इतनी विविधता है कि आप उसको किस तरह मैनेज कर सकेंगे। यह लगातार चलने वाला संघर्ष है। हर वक्त में हमें लगता है कि इनके साथ ज्यादती हो रही है, तो कभी उनके साथ ज्यादती हो रही है। ज्यादती तो हो ही रही है, यह सच है, लेकिन सवाल यह उठता है कि आप उस ज्यादती को निगोशिएट किस तरह करेंगे। जहां सबकुछ फस्र्टक्लास चले, ऐसी तो कोई दुनिया है ही नहीं।

शबाना कहती हैं कि मेरा ख्याल है कि राजनीति और राजधर्म दो अलग-अलग चीजें हैं। राजधर्म में जो प्रजा है, उसे आप समझतेे हैं कि ये क्या चाह रही है, हम वह करें। राजनीति में नेता को जिस चीज में फायदा होता है, वह वही करता है। शबाना कहती हैं कि कैफी साब को भी मायूसी होती थी, लेकिन वे कहते थे कि जब रात गहरी हो और सबसे ज्यादा अंधेरा हो, तब आपको यकीन होना चाहिए कि अब रोशनी की भी कोई सूरत निकलेगी। कोई सूरज बस उगने ही वाला है।

मौजूदा राजनीतिक हालात पर बात करते हुए शबाना कहती हैं कि मैं किसी चीज को पर्मानेंट नहीं समझती। मैं इस वक्त को देखती हूं तो मुझे गालिब का ही एक शे'र याद आता है- 'बागीचा-ए-अतफाल है दुनिया मेरे आगे/होता है शब-ओ-रोज तमाशा मेरे आगे।' तो इस वक्त जब हमारी पूरी सोच और समझ को टीवी एंकर्स तय करते हैं कि हमारे मूल्य क्या होने चाहिए तब हमें थोड़ा ठहरकर सोचने की जरूरत है। टीवी पर एक रवीश कुमार और कुछेक लोगों के अलावा सब नफरत फैलाने में लगे हैं। हमें इस झांसे में न फंसकर एक बड़े फलक को देखने की जरूरत है। कैफी साब लीडर थे, तो बगैर विचलित हुए उनमें वह फलक देखने की सलाहियत थी। मुझे लगता है कि ये जो जाल फेंका जा रहा है, हम सब उसमें फंसते जा रहे हैं। तू-तू मैं-मैं का माहौल है। हर तरफ शोर। मैं अपनी बात करूं तो मैं इस सबको देख पा रही हूं और खुद को उससे अलग कर पाती हूं। मुझे यह समझ अपने वालिद से ही मिली है। इस समय में बहुत सारे नौजवान, बहुत सारे ग्रुप ऐसे भी हैं जोे निडर होकर अपनी बात कह रहे हैं। तो समय नाउम्मीदी का तो नहीं है। यह हिंदुस्तान की खासियत भी है। हिंदुस्तान एक साथ कई सदियों में जीता है। वह 18वीं, 19वीं और 20वीं और 21वीं सदी को एक साथ जी रहा है। एक तरफ पाॅलिटिक्स में, साइंस में लड़कियां बहुत आगे जा चुकी हैं, दूसरी तरफ वे भ्रूण में मारी भी जा रही हैं।


शबाना कहती हैं कि एक बार शशि थरूर ने कहा था कि आप हिंदुस्तान के बारे में जो क्लेम करते हैं, अगर ठीक उसका उल्टा भी क्लेम करें तो वह भी एकदम सही साबित होगा। तो हमें यह देखना चाहिए कि जब-जब आवाज दबाने की कोशिश की जाएगी, वहीं से कोई उम्मीद जागेगी। जब कोई आपकी आवाज दबाएगा नही तो आपको उसके खिलाफ जाने की जरूरत ही महसूस नहीं होगी। तो मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि हमारे नौजवान बड़ी हिम्मत से बात कह रहे हैं। मैं शिकायतों में नहीं ऐक्शन में यकीन रखती हूं। अगर मुझे दो कदम आगे जाना है तो आगे जाऊंगी और पीछे जाना है तो पीछे चलूंगी, लेकिन सोच-समझकर, होश में, बगैर तैश में आए मैं साॅल्यूशन की तरफ बढूंगी।

शबाना कहती हैं, 'यह जो वक्त है इसको एक बाइनरी में बांधने की कोशिश की जा रही है। अमरीका में भी यही हो रहा है। लगता है जैसे पूरी दुनिया में यह हो रहा है। इस बाइनरी को ब्रेक करना बहुत जरूरी है। यह तो कोई तरीका ही नहीं है कि सिर्फ आप बता रहे हैं, वही रास्ता हो, या मैं बता रही हूं, वही रास्ता हो। यह हो ही नहीं सकता। उस बाइनरी को खत्म करने के लिए हमें वह स्पेस बढ़ाना होगा। वह स्पेस जो कहता है कि मगर कोई और भी बात है। जिंदगी इस बात से आगे नहीं बढ़ती कि मैं अड़ जाऊं कि मैं ही सही हूं। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि मैं गलत साबित हुई और मुझे इस बात को स्वीकार करने में कोई शर्मिंदगी नहीं है। मुझे एक आर्टिस्ट के तौर पर यह लगता है कि हम सबको वह स्पेस बढ़ाना चाहिए। जब हम कहते हैं कि हमारी एक वैज्ञानिक चेतना है, तब सबसे ज्यादा सीख तो हमें हमारी इसी चेतना से मिलनी चाहिए। साइंस किसी भी चीज को उम्रभर के लिए स्वीकार ही नहीं करता। वह कहता है कि ये तब तक सच है, जब तक दूसरी सच्चाई सामने नहीं आ जाती। यह इतना ब्रिलिएंट आइडिया है कि इस वक्त की तमाम बेकार बहस को खत्म कर सकता है। हम सब अपनी-अपनी तरफ से संघर्ष कर रहे हैं। मैं आर्टिस्ट हूं और मेरा मानना है कि आर्टिस्ट की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है समाज को आइना दिखाने की। कैफी साब भी यही करते थे।'

सिनेमा में विचार के सवाल पर शबाना कहती हैं कि 'सिनेमा या कोई भी आर्ट आपकी मिट्टी को गीला करता है। ऐसा नहीं होता कि आज आपने महात्मा गांधी की फिल्म देखी तो कल से आप महात्मा गांधी की तरह व्यवहार करने लग जाएंगे। इतना जरूर होगा कि आप महात्मा गांधी के असर में होंगे। आपकी वह मिट्टी गीली हो चुकी होगी, जिससे आप खुद को बनाएंगे।' वे कहती हैं, 'आज की जो लड़ाई है वह हिंदू और मुसलमान के बीच की लड़ाई नहीं है। या हिंदू और क्रिश्चियन या मुसलमान और क्रिश्चियन के बीच की लड़ाई नहीं है। आज के समय की जो लड़ाई है, वह विचारधाराओं की लड़ाई है। एक तरफ प्रोग्रेसिव, लिबरल, माॅडरेटिड विचारधारा है। एक तरफ माॅडरेट हिंदू, माॅडरेट मुस्लिम, माॅडरेट क्रिश्चियन और दूसरी तरफ फंडामेंटलिस्ट और इंटाॅलेरेंट हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई हैं। हम हर बात को हिंदू और मुसलमान बना देते हैं, इस चीज को यदि हम ठीक से समझ जाएं तो मसला बहुत हद तक सुलझ जाए। सांप्रदायिकता बहुसंख्यक की हो या अल्पसंख्यक की, वे दोनों एक-दूसरे की बेस्ट फ्रेंड हैं। हर तरह की सांप्रदायिकता के खिलाफ प्रोग्रेसिव ताकतों को आवाज उठानी चाहिए।'

ऐक्टर और विचारधारा के द्वंद्व पर शबाना कहती हैं, 'मैं जिस जमाने में सिनेमा में आई थी, तब औरत को सेकंड सिटीजन माना जाता था। यही वजह है कि मैंने कई ऐसी फिल्में छोड़ी हैं, जो प्रोग्रेसिव मूल्यों के खिलाफ थीं, औरतों के खिलाफ थीं। वे फिल्में किसी और ने कीं और बड़ी हिट हुईं। मेरे न करने से फिल्म तो नहीं रुकी, लेकिन मुझे यह तसल्ली रही कि कम से कम मैं उसका हिस्सा नहीं बनी। मैंने हमेशा बहुत ताकत के साथ यह फैसला लिया कि यह मेरी आइडियालाॅजी के खिलाफ है, इसे मैं नहीं करूंगी। यह मेरी जो समझ बनी, जो मेरी विचारधारा है, वह मेरी परवरिश की वजह से है, कैफी साब की वजह से है। एक दौर था जब मुझे इस बात का बहुत कन्फ्यूजन रहता था क्योंकि मैं एक ट्रेंड ऐक्टर हूं और मेरी ट्रेनिंग ये है कि ऐक्टर की कोई जातीय सोच नहीं होनी चाहिए। उसे जो किरदार दिया जाए, वह उस रंग मे रंग जाए। वह नाजी आॅफिसर भी बन सकता है और महात्मा गांधी भी बन सकता है।' शबाना बताती हैं कि ऐक्टर के इस सैद्वांतिक पक्ष और उसकी विचारधारा के द्वंद्व से निकलना आसान नहीं होता। वे कहती हैं, 'इस सबके चलते मुझे बहुत स्ट्रगल करना पड़ा, लेकिन मैं उससे निकल आई, क्योंकि अंततः मैं एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती हूं, जहां आइडियालाॅजी बहुत माने रखती है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि मैं नाजी आॅफिसर का किरदार नहीं करूंगी या किसी खलनायक का किरदार नहीं करूंगी। विचारधारा मुझे यह बोध देती है कि मैं तय कर सकूं कि यह सिनेमा अंततः कहां पहुंच रहा है। उसका संदेश क्या है। अगर वह नाजी अफसर के मूल्यों को स्थापित करने वाला सिनेमा होगा, तो नहीं करूंगी।'

(लेखक फिरोज खान नवभारत टाइम्स मुम्बई में कार्यरत हैं)


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