Lakhimpur Kheri violence : लखीमपुर खीरी हिंसा और शहर के कुख्यात हत्यारे 'डोमा जी उस्ताद' का सपना
लखीमपुर खीरी हिंसा में 8 लोगों की हुई मौत
मनीष आजाद की टिप्पणी
Lakhimpur kheri violence, जनज्वार ब्यूरो। एक बार 'कुनाल कामरा' से पूछा गया कि पहले के समय और आज के समय में क्या फर्क है। कुनाल ने उत्तर दिया-'पहले जो बातें देर रात 10 पैग चढ़ाने के बाद होती थी, वो अब सुबह की काफी पर होने लगी है।' इसमें इतना और जोड़ा जा सकता है कि 10 पैग चढ़ाने के बाद देर रात जो उल्टियां की जाती थी, वह आज सुबह चाय के समय सबके सामने की जा रही हैं। तमाम न्यूज़ चैनल इसका साक्षात उदाहरण हैं।
इसी बात को और आगे बढ़ाकर मुक्तिबोध को याद करते हुए कहें तो रात में निकलने वाली 'मृत्यु की शोभायात्रा' अब दिन के उजाले में निकलने लगी है। यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमा जी उस्ताद' की नंगई अब दिन के उजाले में सरेआम दिखने लगी है।
'फॉर्चून' और 'थार' की इसी 'मृत्यु की शोभायात्रा' ने तो दिनदहाड़े हमारे किसानों को कुचला है और 'डोमा जी उस्ताद' खुलेआम दिन के उजाले में सत्ता के गलियारों में घूम रहा है, जेलों में सुधार की बातें कर रहा है और चैनल पर लोगों के सामने अपनी कला का प्रदर्शन कर रहा है कि 'मिस्टर इंडिया' बनकर हत्या कैसे की जाती है।
लेकिन सवाल यह भी है कि 'डोमा जी उस्ताद' को यह गायब होने वाला 'हैट' किसने दिया? क्या उसी राजा ने, जो अपने अलावा सबको प्रजा मानता है? और अपनी प्रजा का इतना ख्याल रखता है कि उन्हें सबसे महंगी और अत्याधुनिक गाड़ियों से कुचलवाता है। कोरोना से मरने वालों को स्वर्ग भेजने की जल्दी में सीधे गंगा में ही फिकवा देता है। उसे जीवन से इतना प्यार है कि उसने अपने राज्य में मौत की गणना पर पाबंदी लगा रखी है।
लेकिन सवाल यही है कि मुक्तिबोध का दुःस्वप्न आज का यथार्थ कैसे बन गया? 'डोमा जी उस्ताद' दुःस्वप्न के अंधेरों से निकलकर सत्ता के गलियारों तक कैसे पहुँच गया? दरअसल यह दुःस्वप्न देश के 'अंधेरे' कोनों का यथार्थ हमेशा से रहा है। हमने उनकी ओर या तो ध्यान नहीं दिया या यह सोच कर ताली बजाते रहे कि 'डोमा जी उस्ताद' जो कर रहे है वह देश के हित के लिए कर रहे हैं।
जब सुदूर उत्तर-पूर्व में नागाओं के गाँव के गाँव जलाए जा रहे थे, आइजल (मणिपुर) शहर पर बमबारी की जा रही थी, तो हम इन सबसे अनभिज्ञ थे या यह सोच रहे थे कि एक महान देश यही तो करता है। जब कश्मीर में नौजवानों को गायब किया जा रहा था तो हमें लग रहा था कि यह भारत सरकार का कोई स्वच्छता अभियान है। जब गर्भवती मुस्लिम महिला का पेट चीर कर भ्रूण को तलवार की नोक पर रखा गया तो हमें लगा कि इससे मुस्लिमों की आबादी कुछ तो कम होगी।
जब बेगुनाह मुस्लिमों को थोक के भाव जेल भेजा जा रहा था तो हमें लग रहा था कि इससे देश सुरक्षित होगा। जब नक्सलियों को फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा था तो हमें लग रहा था कि वे तो प्रतिबंधित हैं। प्रतिबंधित लोगों का मानवाधिकार कहां होता है। जब सोनीसोरी की योनि में पत्थर घुसाए गए तो हमें लगा कि यह कोई टोटका है, इससे हमारे बच्चे ज्यादा 'राष्ट्रवादी' पैदा होंगे।
आखिर डोमा जी उस्ताद का सपना तो पूरा हो गया। पूरा देश एक कत्लगाह बन गया। लेकिन हमारे अपने सपनों का क्या हुआ?
क्या अब हम उनकी आवाज सुन पाएंगे, जिन्होंने शुरू में ही डोमा जी उस्ताद को पहचान लिया था और उनके खिलाफ गांवों, जंगलों और सड़कों पर संघर्ष छेड़ दिया था? वे तो तभी से चीख चीख कर डोमा जी उस्ताद के मायाजाल के बारे में हमे चेता रहे थे, लेकिन हम सुन कहां पा रहे थे।
आज के किसान आंदोलन ने डोमा जी उस्ताद के मायाजाल को एक बार फिर जबरदस्त चुनौती दी है और एक नए सपने को जन्म दिया है। क्या अब हम अपने सपनों को उनके सपनों से जोड़ पाएंगे? क्या अब हम डोमा जी उस्ताद के खिलाफ इस निर्णायक लड़ाई में उतरने को तैयार हैं?
क्या इसके अलावा हमारे पास कोई विकल्प है?