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विमर्श

नेपाल के Gen-Z आंदोलन का भी होगा वही हश्र जो अरब स्प्रिंग, श्रीलंका और 2024 के बांग्लादेश में अपनी सरकारों के खिलाफ भड़के जन असंतोष का हुआ !

Janjwar Desk
12 Sept 2025 5:49 PM IST
नेपाल के Gen-Z आंदोलन का भी होगा वही हश्र जो अरब स्प्रिंग, श्रीलंका और 2024 के बांग्लादेश में अपनी सरकारों के खिलाफ भड़के जन असंतोष का हुआ !
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नेपाल में आज भी जनता की जिंदगी बेहद बदहाल है। देश के 1 प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की 26 प्रतिशत से भी अधिक सम्पत्ति है और गरीब 40 प्रतिशत लोगों के पास कुल सम्पत्ति का मात्र एक प्रतिशत ही है। नेपाल से इन 19 वर्षों में पलायन कम होने की जगह और अधिक बढ़ा है। 15 से 24 वर्ष की आयु के युवाओं में बेरोजगारी की दर 22 प्रतिशत से भी अधिक है...

नेपाल के मौजूदा हालातों पर समाजवादी लोकमंच के संयोजक मुनीष कुमार की टिप्पणी

Nepal Gen-Z Protest: मात्र 3 करोड़ की आबादी वाला भारत का पड़ोसी देश नेपाल एक बार फिर सुर्खियों में है। Gen-Z युवाओं के आंदोलन ने नेपाल की ओली गठबंधन सरकार की चूले हिला कर रख दी हैं। 8 सितंबर को नेपाल की सरकार द्वारा सोशल मीडिया प्लेट फार्म पर लगाए गये प्रतिबंधों के खिलाफ युवाओं का आक्रोश फूट पड़ा। आंदोलनकारियों ने संसद में घुसकर आग लगा दी। चुन-चुनकर सत्ता प्रतिष्ठानों, सत्ताधारी वर्ग की निजी सम्पत्तियों को निशाना बनाया गया।

राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट, सत्ताधारी एमाले के नेता झलनाथ खनाल के निवास पर आग लगा दी गयी, जिसमें उनकी पत्नी राजलक्ष्मी बुरी तरह झुलस गयीं। आक्राशित लोगों ने नेपाली कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउपा के घर, कांतिपुर टीवी की बहुमंजिला इमारत, पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई व देउपा के पुत्र जयवीर के 5 सितारा होटल हिल्टन व उसके स्कूल यूलेन्स को भी फूंक दिया। प्रदर्शनकारियों द्वारा 18 जेलों से 6 हजार कैदियों को भी जेल से छुड़ा लिया गया। काठमांडू से शुरु हुया ये हिंसक आंदोलन नेपाल के दूसरे हिस्सों में भी फैल गया।

आक्रोशित प्रदर्शनकारियों ने नेपाल के वित्त मंत्री समेत कई नेताओं को भी घेरकर बुरी तरह पीटा। सुरक्षा बलों द्वारा प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाईं गयीं, जिसमें 19 से अधिक के मारे जाने व 300 लोगों के घायल होने की सूचना है।

नेपाल के जेन-जी युवाओं का प्रदर्शन केवल सोशल मीडिया पर लगे प्रतिबंधों के कारण नहीं था, जैसा की कुुछ लोगों द्वारा कहा जा रहा है। 1996 में राजशाही का खात्मा करने व गणतांत्रिक नेपाल की स्थापना के लिए शुरू हुए माओवादी जनविद्रोह के बाद नेपाल से अंततः 2006 में राजशाही का खत्मा हुया। इसके लिए नेपाल की जनता ने भारी कीमत चुकाई।

गणतांत्रिक नेपाल के निर्माण को लेकर राजशाही के खिलाफ 12 वर्ष के लंबे संघर्ष में 6 हजार से भी अधिक नेपालियों ने अपनी सहादतें दी। 2006 के बाद शुरू हुयी शांति प्रक्रिया के दौरान भूमिगत माओवादी पार्टी व उसके नेताओं ने हथियार डाल दिये और खुली राजनीति के रास्ते पर चल दिये। नेपाल में 2008 में पहली बार संविधान सभा के चुनाव हुए और माओवादियों ने भी चुनाव में हिस्सा लिया।

माओवादी पार्टी और उसके मुखिया प्रचंड ने शहीदों और देश की मेहनतकश जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की जगह राजशाही परस्त कांग्रेस और एमाले के साथ सत्ता के बंटवारे और समझौतों का रास्ता अख्तियार कर लिया।

सत्ता के नशे में चूर प्रचंड ये भूल गये कि उनके 6 हजार साथियों ने अपनी कुर्बानी उन्हें कुर्सी सत्ता की मलाई चाटने और परिवादवाद को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि देश से बेरोजगारी और गरीबी दूर करने के लिए दी है, जनता के वास्तविक और जनवादी गणतंत्र की स्थापना व बराबरी के वास्तविक मूल्यों की स्थापना के लिए दी है। उनके ऊपर धनी-अभिजात वर्ग की सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण कर उसका इस्तेमाल नेपाल के आद्यौगिकीकरण व विकास करने का कार्यभार था, देश की जनता के लिए स्वास्थ्य, भरपेट पौष्टिक भोजन, आवास, शिक्षा का इंतजाम करने का कार्यभार उन्हें पूरा करना था। 2006 की जनवादी क्रांति से राजशाही के खात्मे के 19 वर्ष बीत रहे हैं। एक के बाद 13 प्रधानमंत्री बदल गये, परंतु जनता के सवाल अभी भी जस के जस बने हुए हैं।

नेपाल में आज भी जनता की जिंदगी बेहद बदहाल है। देश के 1 प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की 26 प्रतिशत से भी अधिक सम्पत्ति है और गरीब 40 प्रतिशत लोगों के पास कुल सम्पत्ति का मात्र एक प्रतिशत ही है। नेपाल से इन 19 वर्षों में पलायन कम होने की जगह और अधिक बढ़ा है। 15 से 24 वर्ष की आयु के युवाओं में बेरोजगारी की दर 22 प्रतिशत से भी अधिक है।

नेपाल के 10 से 15 प्रतिशत लोग जीविका के लिए अधिकारिक रुप से विदेशों में काम करते हैं। वर्ष 2022-23 में नेपालियों ने 1151 अरब नेपाली रुपये विदेशों से मेहनत-मजदूरी कर नेपाल भेजे। ये राशि नेपाल की कुल जीडीपी का लगभग एक चैथाई के बराबर है। भारत में काम करने वाले नेपाली इसमें शामिल नहीं हैं।

एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 25-30 लाख नेपाली काम करते हैं। इस तरह आज भी एक चौथाई नेपाली लोग बाहर के देशों में काम करके अपनी तथा परिवार की जीविका चला रहे हैं। नेपाल आज भी बेहद पिछड़ा हुया और गरीब देश बना हुआ है।

इस असमानता के खिलाफ जनता के आक्रोश को नियो किड्ज आंदोलन के रुप में वर्ष 2020 से सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति मिलनी शुरु हुयी। सोशल मीडिया पर नियो किडज के नाम से नेताओं और अभिजात वर्ग के परिवारवाद और भाई-भतीजावाद को निशाना बनाया जाने लगा। नेपाल में 15 वर्ष से अधिक उम्र के 78 प्रतिशत लोगों के पास मोबाईल फोन हैं तथा इनमें से 88 प्रतिशत लोग सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं जिस कारण नियो किड्ज युवाओं में खासा लोकप्रिय हो गया।

सोशल मीडिया पर पूर्व माओवादी नेता प्रचंड, एमाले के प्रधान मंत्री केपी ओली, माधव कुमार नेपाल, कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउपा, सुशील कोइराला आदि नेताओं के परिजन, पुत्र व पुत्रियों की एशो-आराम भरी जिंदगी को लेकर डाले जा रहे फोटो-वीडियो कंटेंट से नेपाल के युवाओं में गुस्सा पनपने लगा। सत्ताधारी नेताओं के भ्रष्टाचार ने भी इस गुस्से की आग में घी का काम किया।

इस जेन-जी आंदोलन को विकसित करने में हामी नेपाल नामक एनजीओं की मुख्य भूमिका सामने आयी है। वर्ष 2015 से अमेरिकी कम्पनी कोकाकोला, जापानी सोशल मीडिया कम्पनी वाइबर व नेपाल के गोल्ड स्टार व मलबरी होटल्स आदि धन्नासेठों से करोड़ों का चंदा लेकर काम कर रहे एनजीओ ने इस जेन-जी आंदोलन हवा दी।

सोशल मीडिया पर सरकार विरोधी माहौल से भयभीत ओली सरकार ने नेपाल में सभी सोशल मीडिया प्लेट फार्म के लिए नेपाल में पंजीकरण अनिवार्य कर दिया। चीनी एप टिक-टाॅक व जापानी एप वाइबर समेत 5 कंपनियों ने पंजीकरण करा लिए परंतु यू-ट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टग्राम और एक्स समेत 26 सोशल मीडिया प्लेटफार्म ने पंजीकरण नहीं कराए। खासतौर से अमेरिकी कंपनियों द्वारा पंजीेरण नहीं कराए गये। जिस कारण नेपाल सरकार द्वारा 26 सोशल मीडिया प्लेटफार्म बंद कर दिये गये। सरकार के इस कदम से लोग बेहद आक्रोशित हो गये। नेपाल के 60 -70 लाख लोग जो दूसरे देशों में जीविका कमाने के लिए गये हैं, उनके सम्र्पक भी अपने परिवार सेे कट गये और लोगों का आपसी लेन-देन व संपर्क भी इससे प्रभावित होने लगा।

हामी नेपाल के मुखिया सुदन गुरुंग ने 8 सितंबर को नेपाल की राजधानी व अन्य क्षेत्रों में युवाओं से स्कूल की ड्रेस और बस्ता लेकर प्रदर्शन में आने का आह्वान किया और उनके आहवान पर बड़ी संख्या में नेपाल में प्रदर्शन शुरू हो गये। इन प्रदर्शनों को पुलिस ने बेरीकेड लगाकर रोकने की कोशिश की जिससे ये प्रदर्शन धीरे-धीरे उग्र होने लगे। आक्रोशित लोगों ने संसद में घुसकर आग लगा दी। पुलिस को ओली सरकार ने गोली मारने के आदेश दे दिये। देखते-देखते ये हिंसक प्रदर्शन नेपाल के दूसरे हिस्सों में भी फैल गये। जिसके बाद हामी नेपाल ने प्रदर्शन वापिस लेने की घोषणा की जिसको जनता ने अनसुना कर दिया।

नेपाल में स्थिति धीरे-धाीरे सामान्य होने की तरफ है। प्रधानमंत्री ओली के इस्तीफे के बाद नेपाल पर सेना का नियंत्रण स्थापित हो चुका है। 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लगा प्रतिबंध हटा लिया गया है। सुरक्षा के नाम पर एमाले, कांग्रेस व माओवादी पार्टी के ज्यादातर नेता सेना की सुरक्षा में हैं। नई अंतरिम सरकार के गठन के लिए जेन-जी आंदोलनकारियों और राष्ट्रपति के बीच सेना मध्यस्थता कर रही है। जेन-जी आंदोलन पर राजशाही व अमेरिकापरस्त ताकतों का प्रभाव है। जेन-जी के सामने नेपाल के भविष्य को लेकर कोई खाका नहीं है।

जेन-जी से जुड़े युवाओं का एक हिस्सा नया संविधान बनाना चाहता है। कुछ युवा नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की बात कर रहे हैं। नई अंतरिम सरकार के गठन और नयी संविधान सभा के गठन की कबायद शुरु हो चुकी है। जिसके कार्यवाहक प्रधानमंत्री के लिए सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश सुशीला कार्की व काठमांडू के मेयर बलेन शाह का नामों पर चर्चा चल रही है। सेना की सुरक्षा में मौजूद कांग्रेस, ऐमाल और माओवादी नेताओं को सेना ने अब तक रिहा नहीं किया है। उन्हें छोड़ा जाएगा या उनपर मुकदमा चलाया जाएगा, ये अभी तक स्पष्ट नहीं है।

इस घटनाक्रम के बाद से नेपाल की बची-खुची संप्रभुता भी समाप्त हो चुकी है। भारत, चीन व अमेरिका नेपाल को अपने-अपने तरीके से अपने आधिपत्य में लेना चाहते हैं। एक तरफ केपी ओली की सरकार थी, जिसका चीन से नजदीकी बढ़ाने का रास्ता अमरिका और भारत को रास नहीं आ रहा था। केपी ओली ने पिछले दिनों चीन का दौरा कर चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को नेपाल के अंदर भारत की सीमा तक बढ़ाने का समझौता किया था।

चीन के साथ नेपाल की बढ़ती नजदीकी अमेरिका को खटक रही थी। उसने अपनी खुफिया एजेंसी सीआईए के माध्यम से नेपाल में जेन-जी युवाओं के आक्रोश को हवा दी और देखत-देखते बांग्लादेश की तरह नेपाल की केपी ओली सरकार को भी जनाक्रोश भड़काकर अपदस्थ कर दिया।

अमेरिका बांग्लादेश में अपने कठपुतली अंतरिम प्रधानमंत्री मौ. युनुस की तरह नेपाल में भी पूर्व मेयर सुशीला कार्की या काठमांडू के मेयर बलेन शाह को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाना चाहता है। अमेरिका के लिए चीन के दुनिया में बढ़ रहे दबदबे को चुनौती देने के लिए नेपाल अहम हो चुका है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) पिछले लंबे से नेपाल में हिंदू स्वयंसेवक संघ बनाकर नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने का अभियान चलाए हुए है। इस दौरान राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी का प्रभाव नेपाल में बहुत अधिक बढ़ा है। योगी आदित्यनाथ 2015 में नेपाल के संविधान के निर्माण के समय नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए पत्र लिखकर आरएसएस के मंसूबे पहले ही जाहिर कर चुके हैं।

विगत मार्च से जून के दौरान में राजा ज्ञानेन्द्र के समर्थकों ने राजशाही की बहाली व नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए दर्जनों प्रदर्शन आयोजित किए। ये प्रदर्शनकारी नारे लगा रहे थे हमें राजा प्राणों से भी प्यारे हैं, ..... राजा वापस आओ और देश बचाओ। ये अपने हाथों योगी आदित्यनाथ की फोटो भी लिए हुए थे। इस दौरान कई प्रदर्शन हिंसक भी हो गये जिसमें कई मौतें हुयीं और बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए। इन प्रदर्शनों को भी ओली सरकार के तख्ता पलट की नाकाम कोशिशों के रुप में देखा जा रहा है।

जेन-जी आंदोलन का भी वहीं हश्र होना है जो 2011-12 के अरब स्प्रिंग, 2022 के श्रीलंका और 2024 के बांग्लादेश में अपनी सरकारों के खिलाफ भड़के जन असंतोष का हुआ। वहां पर एक तानाशाही निजाम की जगह दूसरा तानाशाह निजाम कायम हो गया।

नेपाल के इन उग्र प्रदर्शनों और कुर्बानियों, जिन्होंने कुछ ही घंटों में मौजूदा निजाम को अपदस्थ कर दिया, यह साफ करते हैं कि जनता त्रस्त है, उसके भीतर गुस्सा भी है और बदलाव की गहरी चाहत भी। लेकिन असली समस्या यह है कि इस गुस्से को दिशा देने वाली कोई संगठित राजनीतिक शक्ति मौजूद नहीं है। ऐसी शक्ति जिसके पास भविष्य की ठोस योजना हो और जनता के बीच गहरी पैठ हो।

यह केवल नेपाल की समस्या नहीं है। आज दुनिया के कई देशों में यही स्थिति देखने को मिलती है। जनता महँगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और असमानता से जूझ रही है, लेकिन उनके संघर्षों को क्रांतिकारी दिशा देने वाली ताकत मौजूद नहीं है। ऐसी क्रांतिकारी ताकत का दायित्व होता है जनता में वर्ग संघर्ष की चेतना पैदा करना और एक अनुशासित क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करना, जो स्वतःस्फूर्त गुस्से को क्रांति को संगठित दिशा दे सके। वरना यह उबाल या तो कुछ घंटों की उत्तेजना में सिमटकर रह जाता है, या फिर एक अवसरवादी गिरोह को हटाकर दूसरे अवसरवादी गिरोह को सत्ता सौंप देता है। नतीजा यह होता है कि तमाम कुर्बानियों के बावजूद सत्ता-व्यवस्था अपनी जड़ों में जस की तस बनी रहती है और जनता को वास्तविक मुक्ति नहीं मिल पाती।

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