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विमर्श

पूंजीवाद का उत्सव है ओलंपिक, फौजी बूटों तले 20 सालों में जबरन विस्थापित किए गए 35 लाख लोग

Janjwar Desk
9 Aug 2021 12:02 PM IST
पूंजीवाद का उत्सव है ओलंपिक, फौजी बूटों तले 20 सालों में जबरन विस्थापित किए गए 35 लाख लोग
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(2010 में अपने देश में हुए 'कॉमनवेल्थ खेल' के कारण दिल्ली में कुल 2 लाख 50 हजार लोग विस्थापित हुए थे।)

ओलम्पिक को प्रत्येक देश विश्व में अपनी ताकत दिखाने के साधन (जुएल बायकाफ के शब्दों में 'सॉफ्ट पावर') के रूप में इस्तेमाल करता है और इस प्लेटफार्म को अपने उग्र राष्ट्रवाद/फासीवाद के प्रचार के लिए इस्तेमाल करता है....

मनीष आजाद का विश्लेषण

जनज्वार। 'यदि आप अपने शहर के गरीबों से मुक्ति पाना चाहते हैं, तो ओलंपिक आयोजित कीजिये'। इस विचारोत्तेजक लेख में लेखक 'अशोक कुमार' ने एक रिपोर्ट (COHRE) के हवाले से बताया है कि सिओल ओलंपिक (1988) से बीजिंग ओलंपिक (2008) तक सिर्फ 20 साल के अंदर ओलंपिक आयोजन के कारण 35 लाख लोगों को जबरन विस्थापित किया गया है।

2010 में अपने देश में हुए 'कॉमनवेल्थ खेल' के कारण दिल्ली में कुल 2 लाख 50 हजार लोग विस्थापित हुए थे। जाहिर है, इनमे से ज़्यादातर गरीब-दलित ही थे। वर्तमान टोक्यो ओलंपिक में एक परिवार तो ऐसा है जिसे ओलंपिक के कारण 2 बार विस्थापित होना पड़ा है। पहले 1964 टोक्यो ओलंपिक में और अब वर्तमान टोक्यो ओलंपिक में।

जो लोग 2010 में दिल्ली में होंगे वे याद कर सकते हैं कि अक्टूबर में दिल्ली किसी फौजी छावनी में बदल दी गयी थी। सभी तरह के विरोध-प्रदर्शनों को प्रतिबंधित कर दिया गया था। सौन्दर्यीकरण के नाम पर आसपास की सभी झुग्गी बस्तियों को मिटा दिया गया था। बस्तियों में रहने वालों को दिल्ली से बाहर खदेड़ दिया गया था। इससे पहले एशियाड (1982) में भी यही सब कुछ घटित हुआ था। उस समय मानव अधिकारों के व्यापक उल्लंघन और 'एशियाड साईट' पर मजदूरों के निर्मम शोषण पर 'पीयूडीआर' ने एक शानदार रिपोर्ट 'सफ़ेद अप्पू' निकाली थी। यह रिपोर्ट उनकी वेबसाइट पर अभी भी मौजूद है।

यह सब प्रत्येक ओलंपिक में कहीं ज्यादा विशाल पैमाने पर घटित होता है। टोक्यो में भी कोरोना महामारी के बीच यही सब घटित हुआ। इसीलिए वहां की 83 प्रतिशत जनता ओलम्पिक का विरोध कर रही थी। एक जापानी महिला चीख कर कह रही थी कि लॉकडाउन में हमारे बच्चे तो खेल नहीं पा रहे और सरकार ओलंपिक आयोजित कर रही है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के साथ मिलकर जापान के शासक इसे फौजी बूटों तले संपन्न कर चुके हैं।

जापान को 2013 में जब वर्तमान ओलंपिक का अधिकार मिला तो उस वक़्त वह फुकोशिमा न्युक्लिएर रिएक्टर विस्फोट/भूकंप/सुनामी के प्रभावों से जूझ रहा था, जिसमे करीब 20 हजार लोग मारे गए थे और लाखों विस्थापित हुए थे।

2013 के बाद जापान ने अपने अधिकांश संसाधन, यहां तक कि क्रेनो को भी फुकोशिमा न्युक्लिएर रिएक्टर विस्फोट/भूकंप/सुनामी से प्रभावित लोगों के लिए इस्तेमाल करने की बजाय उसे ओलंपिक की तैयारी पर लगा दिया। फुकोशिमा न्युक्लिएर रिएक्टर के विकिरण से अभी भी लोग धीमी मौत मर रहे हैं।

तभी से जापान की जनता ओलंपिक का विरोध कर रही थी और उसे कैंसिल करने की मांग कर रही थी। ओलंपिक के राजनीतिक-अर्थशास्त्र पर अनेकों किताब लिखने वाले 'जुएल बायकाफ' (Jules Boykoff) कहते हैं कि ओलंपिक के कुम्भ में अनेकों बदनाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां प्रायोजक बनकर अपने पाप धोती हैं। 'डो केमिकल' (भोपाल गैस काण्ड की दोषी), 'कोका कोला' (जमीन से पानी का अंधाधुंध दोहन करने वाली और अनेक देशों में मानव अधिकारों के गंभीर उल्लंघन की दोषी) और 'बीपी' (पर्यावरण को गंभीर नुक्सान पहुचाने वाली कंपनी) जैसी कम्पनियाँ इन ओलंपिक के प्रायोजक होते हैं। पिछले माह 23 जुलाई को अदानी [अदानी-अम्बानी वर्तमान किसान आन्दोलन के निशाने पर हैं] ने भी ओलंपिक के भारतीय चैप्टर की स्पांसरशिप स्वीकार कर ली थी।

इसीलिए जुएल बायकाफ अपनी किताब 'Celebration Capitalism and the Olympic Games' में साफ़ साफ़ कहते हैं कि ओलंपिक का उत्सव वास्तव में पूंजीवाद का उत्सव है।

एक अन्य जगह जुएल बायकाफ लिखते हैं कि ओलंपिक में 'पब्लिक स्पेस' का जिस तरह सैन्यीकरण किया जाता है, ओलंपिक संपन्न कराने के लिए जिस दमन तंत्र का सहारा लिया जाता है, वह ओलंपिक ख़त्म होने के बाद भी बरकरार रहता है।

1984 के लास एंजेल्स ओलंपिक की सुरक्षा के नाम पर वहां की पुलिस को अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया गया। ओलंपिक ख़त्म होने के बाद इन हथियारों को बड़े पैमाने पर तथाकथित 'ड्रग्स के खिलाफ लड़ाई' में वहां के कालों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। भारत में भी एशियाड और कामनवेल्थ खेलों में जिन्हें उजाड़ा गया था, उन्हें फिर कभी वापस नहीं बुलाया गया। लन्दन ओलंपिक [2012] में तो एक सुबह अपार्टमेंट के लोगों ने पाया कि बिना उनसे पूछे उनकी छतों पर सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल तैनात कर दी गयी है और अपार्टमेंट के लोगों को उनके अपने छत पर जाना प्रतिबंधित कर दिया गया है।

इस सैन्यीकरण का चरम तो मेक्सिको ओलंपिक (1968) के दौरान घटा। जहाँ मुख्य स्टेडियम के बाहर हजारों लोग जमा होकर नारा लगा रहे थे- 'हमें ओलंपिक नहीं क्रांति चाहिए'। पुलिस ने इन प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग कर दी और 325 प्रदर्शनकारी मारे गए।

ऐतिहासिक पेरिस कम्यून (1871) और फ़्रांस-प्रशा युद्ध के 25 साल बाद आधुनिक ओलंपिक की शुरुआत हुई थी। इसका जनक फ़्रांस के कुबिर्तान (Baron Pierre de Coubertin) थे,जो भयानक नस्लवादी और स्त्री-विरोधी (misogynist) व्यक्ति था।

कुबिर्तान ने अपने एक लेख ['France Since 1814'] में ओलम्पिक खेल के उद्देश्य को साफ़ साफ़ रखा-'खेल को युद्ध की अप्रत्यक्ष तैयारी के रूप में देखा जा सकता है। युद्ध की सेवा करने वाली सभी योग्यताएं यहाँ परवान चढ़ती हैं।' आगे कुबिर्तान और भी महत्वपूर्ण बात कहते है- 'खेल वर्ग संघर्ष को शांत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, ताकि दुबारा पेरिस कम्यून जैसी घटना न घटित हो'।

यानी ओलंपिक कमेटी (IOC) का यह दावा कि वह एक ग़ैर राजनीतिक संस्था है, एकदम झूठ है।

ओलंपिक में पदक लाने या जीत हासिल करने पर कैसे पूरे देश की भावना को एक किये जाने का प्रयास मीडिया करता है, वह आज हम देख रहे है। ओलंपिक में महिला एथलीटों की सफलता पर मोदी की तारीफ़ और प्रगतिशील लोगों की तारीफ़ को एक दूसरे से अलगाना मुश्किल है।

वंदना कटारिया को हमने 'दलित आइकन' के रूप में उछाला और 48 घंटे के अंदर वो दलित आइकन से 'भाजपा आइकन' में तब्दील हो गयी। उन्हें 'बेटी बचाओ बेटी पढाओ' का उत्तराखंड का ब्रांड अम्बेसडर बना दिया गया। 15 अगस्त को वे मोदी के साथ लाल किले पर भी मौजूद रहेंगी। क्या इन सब में हमें कुबिर्तान के उपरोक्त कथन की सच्चाई नहीं दिखती ?

ओलंपिक के प्रायः सभी सफल चेहरे कुछ समय बाद जनता की आकांक्षाओं का गला घोंटते हुए किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का उत्पाद बेचते नज़र आते हैं।

हालांकि कई बार ऐसे मौके आये हैं, जब ओलंपिक खिलाडियों ने ओलंपिक और अपने राज्य का पुर्जा बनने से इनकार कर दिया है। बल्कि इससे उलट ओलंपिक प्लेटफार्म का इस्तेमाल दुनिया की शोषित जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देने में किया। 1968 में मेक्सिको ओलम्पिक में अमेरिका के ब्लैक एथलीट टोमी स्मिथ (Tommie Smith) और जॉन कार्लोस (John Carlos) ने जब मेडल पोडियम पर 'ब्लैक सेलूट' किया तो पूरी दुनिया के शोषितों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। हालांकि इसके फलस्वरूप उनके मेडल छीन लिए गए, लेकिन वे शोषित जनता की निगाह में 'लीजेंड' बन गए। फिलहाल भारत के खिलाडियों में ऐसा कुछ करने की दूर दूर तक कोई संभावना नज़र नहीं आती।

ओलम्पिक को प्रत्येक देश विश्व में अपनी ताकत दिखाने के साधन (जुएल बायकाफ के शब्दों में 'सॉफ्ट पावर') के रूप में इस्तेमाल करता है और इस प्लेटफार्म को अपने उग्र राष्ट्रवाद/फासीवाद के प्रचार के लिए इस्तेमाल करता है। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक को कैसे हिटलर ने अपने फासीवाद के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया इसे हम सब जानते हैं।

ओलम्पिक खेल जिस पब्लिक-प्राइवेट माडल पर आयोजित किये हैं, उससे निजी कम्पनियाँ और ओलंपिक कमेटी (IOC) खूब मुनाफा कूटती है और सरकारों पर कर्ज का भारी बोझ चढ़ जाता है। एशियाड और कामनवेल्थ खेलों के बाद अपने देश में भी यही हुआ था। 1976 में आयोजित मोनट्रीयल ओलंपिक (Montreal Olympics) ने मोनट्रीयल पर 1।6 बिलियन डालर का कर्ज चढ़ा दिया, जो 40 साल बाद 2006 में जाकर उतर पाया। इस कर्ज को उतारने के चक्कर में सरकार ने शिक्षा-स्वास्थ्य में असाधारण कटौती की। इसके कारण कितने लोग प्रभावित हुए, कितने लोग बेरोजगार हुए, कितने लोग स्वास्थ्य सुविधा न मिलने से मर गये, इसकी एक अलग कहानी है। लगभग यही कहानी हर ओलंपिक के बाद दोहराई जाती है।

2008 बीजिंग ओलम्पिक में ओलंपिक कमेटी (IOC) ने कुल 383 मिलियन डालर की कमाई की। जबकि दूसरी ओर इस ओलंपिक के कारण कुल 15 लाख लोगों को बेघर होना पड़ा। इस विस्थापन के खिलाफ प्रदर्शन करने पर हजारों लोगों को जेल जाना पड़ा।

सच तो यह है कि ओलंपिक का आयोजन 'विश्व उपभोक्ता बाजार' को 4 साल में एक बार एक मंच पर ले आता है, जिसका फायदा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उठाती हैं। ओलंपिक कमेटी (IOC) के भूतपूर्व मार्केटिंग डायरेक्टर मिशेल पाने (Michael Payne) इसे साफ़ शब्दों में कहते हैं- 'कंपनियों के लिए ओलंपिक से अच्छा प्लेटफार्म और कहाँ मिल सकता है, जहाँ वे अपने विश्व उपभोक्तायों को इतने ताकतवर तरीके से आपस में जोड़ सकें और अपने उत्पाद का प्रचार उन तक पहुचा सकें'।

उपरोक्त कारणों से ही पिछले कुछ दशकों से ओलंपिक को ख़त्म करके इसे विकेंद्रित करने की मांग की जा रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल में ओलंपिक का खेलों पर एकाधिकार खेल की आत्मा को मार रहा है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पहले ओलंपिक नाम से कई आयोजन होते थे। लेकिन 1896 के बाद ओलंपिक कमेटी ने 'ओलंपिक' शब्द पर कापीराइट ले लिया। अब आप ओलंपिक नाम से कोई आयोजन नहीं कर सकते।

1917 की रूसी क्रांति के बाद समाजवादी रूस ने ओलंपिक खेलों का बहिष्कार कियाऔर ओलंपिक पर यह कहते हुए हमला किया कि यह अंतरराष्ट्रीय बुर्जुआ के हाथों की कठपुतली है और अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा को वर्ग संघर्ष से हटाकर प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद और युद्ध के लिए तैयार करता है। 1921 के तीसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में 'रेड स्पोर्ट इंटरनेशनल' (RSI) की स्थापना की गयी। उधर सामाजिक-जनवादियों ने भी ओलंपिक के विरुद्ध 'सोशलिस्ट वर्कर स्पोर्ट इंटरनेशनल' (SWSI) का गठन कर लिया।

हिटलर के बर्लिन ओलम्पिक (1936) के ख़िलाफ़ जब स्पेन के बार्सिलोना में कम्युनिस्टों-समाजवादियों ने 'जन ओलंपिक' (People's Olympics) का आयोजन किया तो ठीक उसी समय तानाशाह फ्रांको ने नव-स्थापित रिपब्लिक के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। 'जन ओलम्पिक' के लिए पूरे योरोप से जो भी एथलीट बार्सिलोना में इकठ्ठा हुए थे, उनमे से अधिकांश ने रिपब्लिक की रक्षा में बन्दूक उठा ली और फ्रांको के खिलाफ इंटरनेशनल ब्रिगेड का हिस्सा हो गए।

खेल और क्रांतिकारी राजनीति का यह शानदार और अनूठा मेल था।

(द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की बदली राजनीतिक परिस्थिति में पहली बार 1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में सोवियत रूस ने हिस्सा लिया।)

इस असली 'खेल' को समझने के बाद क्या हम ओलंपिक में खेल को 'शुद्ध खेल' के रूप में देख सकते हैं?

गीत-संगीत-नृत्य सभी को पसंद होता है। लेकिन क्या इसका कोई मतलब नहीं कि वह कहाँ घटित हो रहा है? मतलब वह गाँव की चौपाल में घटित हो रहा है या सामंत के दरबार में?

खेल बहुत जरूरी है। लेकिन यह जानना उससे कहीं अधिक जरूरी है कि वह क्यों और कहाँ खेला जा रहा है और खेल के पीछे का 'खेल' क्या है।

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