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विमर्श

जलवायु परिवर्तन पूंजीपतियों पर नहीं डालता कोई असर, गरीबों पर पड़ रही इसकी भयानक मार

Janjwar Desk
22 Sep 2020 11:47 AM GMT
जलवायु परिवर्तन पूंजीपतियों पर नहीं डालता कोई असर, गरीबों पर पड़ रही इसकी भयानक मार
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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

हाल में ही स्टॉकहोम एनवायरनमेंट इंस्टीट्यूट और ऑक्सफैम द्वारा संयुक्त तौर पर प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार विश्व के एक प्रतिशत सबसे अमीर दुनिया की आधी आबादी की तुलना में दुगुने से भी अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। यह अध्ययन वर्ष 1990 से 2015 के बीच कार्बन डाइऑक्साइड के कुल उत्सर्जन के आधार पर किया गया है।

इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले 25 वर्षों के दौरान वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता 60 प्रतिशत बढ़ चुकी है, पर सबसे अमीर 1 प्रतिशत आबादी द्वारा किया जाने वाला उत्सर्जन सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी द्वारा किये जाने वाले कुल उत्सर्जन की तुलना में तीन गुने से अधिक रहा है।

अमीरों द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को यह कहकर बढ़ाया जाता है कि इससे पूरी दुनिया को फायदा होगा, पूरी आबादी के जीवन स्तर में सुधार होगा – पर वास्तविकता यह है कि केवल अमीर पहले से अधिक अमीर होते जा रहे हैं, और गरीब आबादी की जिन्दगी दांव पर लगी है।

पिछले 25 वर्षों के दौरान जितना कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ है, उसमें से 52 प्रतिशत से अधिक का योगदान सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी, यानि कुल 63 करोड़, लोगों का रहा है। रिपोर्ट के अनुसार सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी वह है जिसकी वार्षिक आय 35000 डॉलर से अधिक है।

कार्बन डाइऑक्साइड एक प्रबल ग्रीनहाउस गैस है, जो वायुमंडल में एकत्रित होकर जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि का कारण बनती है। वर्ष 2016 के पेरिस समझौते के तहत पूरी दुनिया को कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को इस हद तक नियंत्रित करना है कि वायुमंडल का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने पाए। पर यह एक असंभव सा काम है क्योंकि वर्त्तमान में तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ चुका है, और इस गैस के उत्सर्जन में कमी आने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी यदि आज कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन शून्य भी कर दे तब भी सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी के उत्सर्जन से ही तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक पहुँच जाएगा।

नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वर्तमान में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता में 2.5 पार्ट्स पर मिलियन की दर से वृद्धि देखी जा रही है, और पिछले वर्ष के अंत तक इसकी सांद्रता 415 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) थी। अनुमान है कि वर्ष 2025 तक इसकी सांद्रता वायुमंडल में 427 पीपीएम तक पहुँच जायेगी, और यदि ऐसा हुआ तो इस गैस की ऐसी सांद्रता पिछले डेढ़ करोड़ वर्ष की तुलना में सर्वाधिक होगी।

लगभग डेढ़ करोड़ वर्ष पहले जब वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की ऐसी सांद्रता थी, तब पृथ्वी का तापमान आज की तुलना में 4 डिग्री सेल्सियस अधिक था और महासागरों की सतह लगभग 20 मीटर ऊंची थी। जाहिर है, तमाम चेतावनियों के बाद भी दुनिया कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने पर ध्यान नहीं दे रही है।

इंस्टीट्यूट ऑफ़ इकोनॉमिक्स एंड पीस के आकलन के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि की दर ऐसे ही बढ़ती रही तो अगले तीस वर्षों के दौरान दुनिया की लगभग एक अरब आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा, क्योंकि अभी जहां यह आबादी रहती है वह क्षेत्र बढे तापमान के बाद रहने लायक नहीं बचेगा, या फिर बढ़ते महासागर के ताल में समा जाएगा।

इसमें से अधिकतर आबादी दुनिया के कुल 31 देशों में बसती है, जो मुख्य तौर पर दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व, और अफ्रीका में स्थित हैं। हमारा देश भी इन 31 देशों में शामिल है। इस रिपोर्ट के अनुसार जिन देशों से आबादी के विस्थापन की प्रबल संभावना है, उनमें से अधिकतर देश वर्तमान में भी गृहयुद्ध या हिंसा के कारण अशांत है।

बढ़ते तापमान का असर केवल एक जगह या स्थान पर नहीं पड़ता, बल्कि यह एक पूरे चक्र को जन्म देता है। तापमान बढ़ रहा है इसलिए जंगलों में आग की घटनाएं भी विकराल होती जा रही हैं। अमेरिका के अनेक हिस्सों में इन गर्मियों में तापमान नई ऊंचाइयां छू रहा था, जिसके चलते कैलिफ़ोर्निया के जंगलों में पिछले महीने से भयानक आग लगी है। इस आग को तापमान वृद्धि से बढ़ावा मिल रहा है। जंगलों के जलने से, भारी मात्र में कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में मिल रही है, इससे तापमान वृद्धि को और बढ़ावा मिलेगा और संभव है आने वाले वर्षों में जंगलों में और तेजी से आग लगे।

इसी तरह उत्तरी ध्रुव के पास स्थित ग्रीनलैंड में स्थित हिमशैल तेजी से पिघल रहे हैं। इससे भारी मात्रा में ठंडा पानी महासागरों में मिल रहा है, अनुमान है कि ग्रीनलैंड के सारे हिमशैल यदि पिघल कर ख़त्म हो जाएँ तो महासागरों का तल 7 मीटर तक बढ़ जाएगा। कुछ वर्ष पहले के अनुमान के अनुसार जब पृथ्वी के औसत तापमान में 1.6 डिग्री सेल्सियस से अधिक की बृद्धि होगी तो ग्रीनलैंड के सारे हिमशैल पिघल जायेंगे और पानी के रूप में महासागरों में आ जायेंगे।

संभव है कि ऐसा माहौल अगले कुछ दशकों में ही दुनिया देख सकती है, क्योंकि इस समय तक तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है। समस्या केवल यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि जव उत्तरी ध्रुव के पास बर्फ तेजी से पिघलती है तो महासागरों की ताल बृद्धि सबसे अधिक दक्षिणी ध्रुव के पास देखी जाती है। इस वृद्धि से दक्षिणी ध्रुव के पास जमी बर्फ तेजी से पिघलती है, जिससे महासागरों का तल और तेजी से बढ़ता है।

इसी वर्ष 14 सितम्बर को उत्तरी ध्रुव के पास स्थित सबसे बड़े हिमशैल में से एक में बड़ी सी दरार देखी गई और यह दो हिस्सों में बंट गया। हिमशैल जितना छोटा होता जाता है, उसके पिघलकर नष्ट होने की संभावनाएं उतनी अधिक प्रबल हो जातीं हैं। ठीक इसी दिन उपग्रहों के चित्र के आधार पर वैज्ञानिकों ने दावा किया कि दक्षिणी ध्रुव के सबसे बड़े हिमशैल के आसपास की बर्फ भी दरक रही है, यानि यह हिमशैल भी अस्थिर हो रहा है।

समस्या केवल यह नहीं है कि ध्रुवों पर स्थित बर्फ के विशाल भण्डार समाप्त हो रहे हैं और महासागरों के तल में बृद्धि हो रही है। बर्फ चमकीली होती है, इसलिए यह सूर्य की किरणों को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित कर देती है, इससे तापमान वृद्धि के सन्दर्भ में थोड़ी राहत मिलती है। जब ध्रुवों से बर्फ हट जायेगी तो उसके बदले सूर्य की किरणें सीधे खाली जमीन पर पड़ेंगी और भूमि में अवशोषित होकर उसे अधिक गर्म करेंगी और तापमान वृद्धि में योगदान करेंगी।

इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्था पूरी तरह से निरंकुश हो चुकी है, इसलिए जाहिर है, उसे अपना मुनाफा से आगे कुछ नजर ही नहीं आता। पूरी दुनिया की सरकारें भी पूंजीपतियों के सहारे चलती हैं, इसलिए सरकारें इनके विरुद्ध होने का नाटक तो कर सकती हैं, पर विरुद्ध हो नहीं सकतीं। यही कारण है कि तमाम वैज्ञानिक तथ्यों के बाद भी दुनिया की कोई भी सरकार तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए कोई भी सार्थक कदम उठाती नहीं दिखाई देती।

इसका प्रभाव भी पूंजीपतियों पर असर नहीं डाल रहा है, बल्कि गरीबों को मार रहा है। बाढ़, चक्रवात, तापमान वृद्धि, पानी की कमी, प्राकृतिक संसाधनों का विनाश, कृषि पैदावार में कमी और विस्थापन – सब गरीब आबादी को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं।

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