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विमर्श

Jai Bhim Movie Real Story: चर्चित फिल्म जय भीम साल 1993 में हुई इस असली घटना पर है आधारित, जानिए क्या है पूरी कहानी

Janjwar Desk
10 Nov 2021 1:19 PM GMT
Jai Bhim Movie Real Story: चर्चित फिल्म जय भीम साल 1993 में हुई इस असली घटना पर है आधारित, जानिए क्या है पूरी कहानी
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मोना सिंह की रिपोर्ट

Jai Bhim Movie Real Story: इन दिनों एक फिल्म चर्चा के केंद्र में है। नाम है उसका जय भीम। कहानी है अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की। ना सिर्फ आवाज उठाना बल्कि उसे अंजाम तक पहुंचाने की भी। फिल्म की ये कहानी पूरी तरह से एक सच्ची घटना पर आधारित है। आखिर क्या है वो घटना। क्या था वो मामला जो आज इतने साल बाद फिर से चर्चा में है।

दरअसल, फिल्म 'जय भीम' की कहानी तमिलनाडु में 1993 में घटी एक घटना पर आधारित है। इस घटना को लेकर जब मामला कोर्ट में पहुंचा तब साल 2006 में मद्रास हाई कोर्ट का एक फैसला आया था। उस फैसले से पता चलता है इस पूरी कहानी का।

असली घटना की शुरुआत होती है मार्च 1993 से। जगह थी तमिलनाडु का एक गांव मुदन्नी। इस गांव में कुरवा आदिवासी समुदाय (Kurwa Tribe) के कुल चार परिवार रहते थे। यहां बता दें कि कुरवा समुदाय को आजादी से पहले ही अपराधी जनजाति की श्रेणी में शामिल कर दिया गया था। तब से ये माना जाता था कि ये आदिवासी जनजाति क्राइम तो करते ही हैं। अपराध उनका पेशा ही है।

इसी गांव में एक दंपति भी रहता था। पति का नाम राजकन्नू और पत्नी का नाम सेंगई। तारीख 20 मार्च 1993 की बात है। उस दिन की सुबह कुछ पुलिसवाले अचानक सेंगई के घर पहुंचते हैं। घर का दरवाजा खटखटाते हैं। दरवाजा सेंगई खोलती है। सेंगई से पुलिस उसके पति के बारे में पूछती है। सेंगई जवाब देती है, वो काम पर गए हैं। फिर सेंगई पूछती है। पति के बारे में क्यों पूछा जा रहा है। पुलिस कहती है पास के गांव में डेढ़ लाख रुपये के गहने यानी आभूषण चोरी हो गए हैं। उसी मामले में तुम्हारे पति की तलाश हो रही है।

पुलिस के इस जवाब पर सेंगई चुप हो जाती है। वो इस घटना के बारे में कुछ भी पता होने से मना कर देती है। इसके बाद पुलिस ने सेंगई और उसके बच्चे, पति के भाई और बहन को हिरासत में ले लेती है। सभी को गाड़ी से थाना लाया जाता है। यहां लाकर पुलिस कहती है अगर तुमलोग राजकन्नू का पता बता दोगे तो यहां से जाने देंगे। इसी अपराध के सिलसिले में पुलिस ने एक और व्यक्ति गोविंदराजू को भी हिरासत में लिया था। कहा जाता है कि थाने में शाम को सेंगई को पुलिस ने डंडे से पीटा भी था। इसके बाद उस पर दबाव बनाया गया कि वो अपने पति का पता बताए और चोरी के गहने वापस कर दे। पुलिस सिर्फ यहीं तक शांत नहीं हुई। सेंगई के बेटे को भी बांधकर पीटा। रात भर सेंगई और उसके परिवार के लोगों को थाने में ही रखा गया।

अगले दिन पुलिस ने राजकन्नू को हिरासत में ले लिया। अब पुलिस शाम करीब 4 बजे राजकन्नू को लेकर थाने पहुंची। उसके थाने में आने के बाद ही सेंगई और उसके बच्चे व परिजनों को थाने से बाहर जाने की अनुमति मिल पाई। लेकिन वहां तैनात एक पुलिस अधिकारी रामास्वामी ने सेंगई के जाते-जाते कहा कि वो अगले दिन दोपहर में खाना ले आएगी। उसने खाने में मांसाहारी खाने की मांग की थी।

अगले दिन सेंगई जब खाना लेकर थाने पहुंची तो देखा कि उसके पति को खूब प्रताड़ित किया गया है। शरीर पर जख्म के निशान हैं। बदन पर एक भी कपड़े नहीं है। उसे खिड़की के सहारे बांधा गया था। सेंगई ने पति की हुई पिटाई पर सवाल उठाए तो उसे धमकी दी गई। ये कहा गया कि वो अपनी जुबां को बंद रखे। अगर इस बारे में किसी से बात की तो उसे भी नहीं छोड़ा जाएगा।

रिपोर्ट के मुताबिक, सेंगई के सामने ही उसके पति की पिटाई की जा रही थी। वो बेहोश हो गया फिर भी बर्बरता जारी रही थी। उस समय सेंगई खाना परोस रही थी और उसका पति बेहोश पड़ा हुआ था। वो रोने लगी। तो पुलिस उसके पति को लात मारते हुए कहती थी कि वो नाटक कर रहा है। फिर भी जब वो नहीं उठा तब उसके मुंह पर पानी मारा गया।

लेकिन वो नहीं उठा। इसके बाद किसी तरह से पुलिस ने जबरन सेंगई को घर भेज दिया। जब वो गांव में जा रही थी तभी किसी ने बताया कि शाम 4 बजे ही राजकन्नू पुलिस को चकमा देकर कहीं भाग गया। ये बात सुनकर सेंगई को भरोसा नहीं हुआ। क्योंकि उसका पति कुछ देर पहले तो बेहोशी की हालत में था। खुद चल नहीं सकता था। वो पुलिस को चकमा देकर कैसे भाग सकता था।

वो कुछ समझ नहीं पा रही थी। लेकिन उसे थाने में भी नहीं जाने दिया जा रहा था। उसके अगले ही दिन यानी 22 मार्च 1993 को मीनसुरुट्टी पुलिस स्टेशन एरिया में एक शव मिला था। पहले उसे लावारिस बताया गया। उस शव पर चोट के गहरे निशान थे। आंख और सिर पर भी गहरे जख्म थे। पसलियां टूटी हुईं थीं। लेकिन उसकी पहचान पुलिस ने कभी उजागर नहीं होने दी। और ना ही सेंगई को ये पता चल सका कि उसकी पति की पुलिस हिरासत में मौत हो गई। बस यही बताया गया कि वो कहीं भाग गया है।

अब अपनी पति की तलाश में सेंगई जुट गई। और यहीं से शुरुआत होती है न्याय की लड़ाई। वो हर पुलिस अधिकारी के पास गई। लेकिन कहीं से उसे कोई जवाब नहीं मिला। एक दिन वो इंसाफ के लिए भटक रही थी तब उसका सामना चेन्नई के वकील से हुआ। पता चला कि ये वकील मानव अधिकारों की लड़ाई लड़ता है। इसके लिए वो कोई फीस भी नहीं लेता है। फिर सेंगई को यहीं से उम्मीद की एक नई किरण दिखी। और उसने उस वकील से मदद मांगी। इस वकील का नाम था चंद्रू। जो बाद में जस्टिस बने थे। ये फिल्म जय भीम भी उन्हीं जस्टिस चंद्रू पर आधारित है। जिसमें साउथ के सुपर स्टार सूर्या ने जस्टिस चंद्रू का किरदार निभाया है।

ऐसे दिलाया था इंसाफ

उस समय वकील चंद्रू ने जब सेंगई की पूरी आपबीती सुनी तब केस लड़ने का फैसला लिया। उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट में हेबियस कॉरपस यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका डाली। दरअसल, बंदी प्रत्यक्षीकरण का मतलब ये होता है कि किसी को भी शरीर सहित कोर्ट में पेश किया जाए। चूंकि, पुलिस हिरासत में आने के बाद राजकन्नू लापता हुआ था तो उस मामले में हैबियस कॉरपस की याचिका डाली गई थी। संविधान में ये हमें मौलिक अधिकार के रूप में मिला है।

इस याचिका के डाले जाने के बाद पुलिस प्रशासन हरकत में आ जाता है। इसके बाद सेंगई को लावारिस बताए गए उस शव की फोटो दिखाई जाती है। सेंगई ने उसे देखते ही पहचान लिया। उसने स्वीकार किया कि ये तो उसके पति की फोटो है। तब जाकर ये साफ हुआ कि उसके पति राजकन्नू की मौत हो चुकी है। इसलिए मामला तूल पकड़ा तो मद्रास हाईकोर्ट ने सेंगई को मुआवजे की घोषणा के साथ ही सीबीआई को जांच का आदेश जारी किया। हालांकि, उस समय ये साबित नहीं हो सका कि राजकन्नू की मौत पुलिस हिरासत में प्रताड़ित करने से ही हुई थी। इस वजह से सेशन कोर्ट ने मारपीट, छेड़छाड़ और प्रताड़ना के आरोपों का सामना कर रहे पांच पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया था। लेकिन चंद्रू ने हार नहीं मानी। उन्होंने फिर से हाईकोर्ट में मामले को ले गए। और आखिरकार साल 2006 में मद्रास हाईकोर्ट ने राजकन्नू की मौत के लिए पांच पुलिसकर्मियों को दोषी करार दिया था। साथ में ये भी साबित हुआ था कि पुलिस ने फर्जी कागजात तैयार कर केस को ही बदल दिया था। जिसकी बदौलत निचली अदालत में उनके खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया था। इस तरह उस घटना के 13 साल बाद दोषी पुलिसकर्मियों को सजा मिल पाई थी। इस केस में जस्टिस चंद्रू जो उस समय वकील थे, उन्होंने एक जांच अधिकारी की तरह खुद ही सारे सबूत एकत्र किए और सजा दिलाई। इस पूरी फिल्म में इसी असली घटना को बेहतर तरीके से दिखाया गया है जिसे देखकर कानूनी जानकारी मिलने के साथ कई बार हम इमोशनल हो जाएंगे तो आखिर में अपने न्याय व्यवस्था पर गर्व भी करेंगे।

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