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विमर्श

विशेष लेख: ब्राह्मणवाद का प्रतीक है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय

Janjwar Desk
10 July 2021 7:29 AM GMT
विशेष लेख: ब्राह्मणवाद का प्रतीक है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय
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(विशेष लेख: ब्राह्मणवाद का प्रतीक है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय)

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आज ब्राह्मणवाद का प्रतीक बन गया है, उसका मानना है कि हम जो कर रहे हैं वही श्रेष्ठ है, वही मानक है, हम जो बोल रहे हैं वही सच है, ब्राह्मणवाद के इसी गढ़ को बचाये रखने के लिये विगत साठ सालों में हिन्दुस्तान में और प्रशिक्षण संस्थान खुलने नहीं दिये गये

प्रसिद्ध निर्देशक अरविंद गौड़ का विश्लेषण

जनज्वार। भारत में नाट्य प्रशिक्षण से जुड़ी सबसे कड़वी सच्चाई यह है, कि यहां नाट्य प्रशिक्षण सिर्फ एक संस्थान की परिधि तक सीमित रह गया है। ऐसी धारणा स्थापित कर दी गयी है कि आप यदि एनएसडी (NSD) से प्रशिक्षित हैं तो ही आप प्रशिक्षित हैं, अन्यथा आप प्रशिक्षित नहीं हैं, आप अपरिपक्व हैं। एक साजि़श के तौर पर स्थापित की गयी इस धारणा से पूरे हिन्दुस्तान के थियेटर का सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है। निःसंदेह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एक महत्वपूर्ण संस्था है, जिसने थियेटर की समझ बनाने में, उसके तकनीकी विकास में एक बड़ी भूमिका निभायी है, लेकिन जो भी लोग वहां से निकल कर आये, उनका सिर्फ ट्रेनिंग से काम नहीं चला। उन अभिनेताओं ने, निर्देशकों ने बाहर जाकर काम किया, अपने आप को एक्सप्लोर किया तब कहीं जाकर वे अपनी पहचान बना पाये।

ऐसे प्रशिक्षण संस्थान की अलग-अलग भाषाओं में ज़रूरत थी, लेकिन हुआ उल्टा। एक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तो बनाया गया, लेकिन उसका विकेन्द्रीकरण नहीं किया गया। तो जिस प्रशिक्षण को लोगों तक भाषा के स्तर पर, बोलियों के स्तर पर पहुंचना चाहिये था, वह राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली तक सीमित रह गया। भारतीय रंगमंच में प्रशिक्षण की जो संभावनाएं थीं, वे सांस्कृतिक नीति और दृष्टि के अभाव में एक सीमित दायरे में क़ैद होकर रह गयीं। दूसरा, यह कि आप किस तरह का प्रशिक्षण दे रहे हैं, किस तरह का प्रशिक्षण होना चाहिये, प्रशिक्षण क्यों होना चाहिये या भाषा और समाज और व्यक्ति का क्या संबंध है, इन बुनियादी सवालों को बिल्कुल नज़रअंदाज कर दिया गया।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को लेकर यह परिकल्पना थी कि कुछ छात्र आयेंगे, जिन्हें प्रशिक्षण देना है। आप किस भाषा में प्रशिक्षण देंगे इसका कोई मापदंड नहीं था। अब कोई केरल से आ रहा है, कोई आंध्र से आ रहा है, कोई असम से आया है, आप उन सब को दिल्ली में बुलाकर हिन्दी के नाटक करा रहे हैं। मतलब उनकी मौलिकता को ख़त्म कर रहे हैं। हिन्दी में नाटक कराने का मतलब राष्ट्रीय हो जाना नहीं है। असम का छात्र अगर अपनी असमिया भाषा में प्रशिक्षण ले, केरल का छात्र वहीं पर ले, आंध्र का छात्र वहीं पर ले, यहां तक कि भागलपुर का छात्र अपनी भाषा में प्रशिक्षण ले तो वह ज़्यादा काम कर सकता है और अलग चीज़ें एक्सप्लोर कर सकता है।

तो यह जो प्रशिक्षण को कंट्रोल किया गया है, उसकी वजह से पिछले 50-60 सालों में जो भारतीय स्वरूप बनना चाहिए था रंगमंच का, वह नहीं बन पाया। बार-बार यह सवाल उठा है कि अगर एनएसडी का डिसेन्ट्रलाइजे़शन हो जाये तो शायद यह बंद न हो जाये। हम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय कहते हैं, लेकिन राष्ट्र का स्वरूप क्या है, नेशनैलिटी क्या होती है इसे बिना सोचे-विचारे इन सब को हमने केंद्र में लाकर रख दिया। कहने को हमारे पास राष्ट्रीय प्रशिक्षण संस्थान है, लेकिन उस संस्थान का पूरे देश के रंगमंच में क्या वाकई कोई योगदान है, इसको भी देखने की ज़रूरत है।

रंगमंच के प्रशिक्षण के बाद क्या करना है, किस तरह से रोज़गार की व्यवस्था होगी, किस तरह से समाज में जायेंगे, इसका कोई व्यापक ब्लूप्रिंट एनएसडी के पास नहीं था। नतीज़ा यह हुआ कि वहां से निकलने वाले अधिकांश अभिनेता सिनेमा में चले गये। जिनको पैसा और ख्याति प्राप्त हो गयी, उन्हें लगा कि यह तो बहुत बड़ा माध्यम है। किसी माध्यम में जाना ग़लत नहीं है, लेकिन रंगमंच का प्रशिक्षण लेने के बाद अभिनेता का एक मात्र लक्ष्य सिनेमा हो जाता है तो कहीं-न-कहीं प्रशिक्षण में कुछ ख़ामी है, कुछ गड़बड़ी है जिसकी छानबीन करने की ज़रूरत थी, पर आज तक यह नहीं की गयी।

नतीज़ा यह है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का कोई प्रोफेसर रिटायर होता है तो अपना भविष्य थियेटर में नहीं तलाश करता है, वह अपना भविष्य हिन्दी सीरियल में या सिनेमा में तलाश कर रहा होता है। इससे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है। यह अपने आप में एक त्रासद और हास्यास्पद स्थिति है। कितनी बड़ी विडंबना है कि जो जिंदगी भर रंगमंच के प्रति प्रतिबद्धता की बात करते नहीं थकते, उनको आगे के विकास के रास्ते थियेटर में नहीं मिलते। आखि़र इनके अनुभव का लाभ अगली पीढ़ी को क्यों नहीं मिल पाता? उनको वैकल्पिक रास्ते तलाश करने पड़ते हैं, दिल्ली छोड़ कर मुंबई में रहना पड़ता है।

प्रशिक्षण के बाद हम देखते हैं कि एक्टर के पास रोज़गार की बहुत ज़्यादा संभावनाएं नहीं हैं। आपने उसके लिये कोई ढांचा नहीं बनाया तो उसका भी एक प्रभाव पड़ता है। पिछले 60 साल में, मुझे लगता है संस्थागत प्रशिक्षण के मामले में समाज पीछे रह गया है। देश के अंदर क्या चल रहा है, इससे हमारे प्रशिक्षण का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। दिल्ली के अंदर होते हुए भी, मात्र चार किलोमीटर दूर भ्रष्टाचार का आंदोलन हो रहा है, लेकिन उसके प्रति उसकी कोई संवेदना नहीं है। दामिनी वाली घटना मंडी हाउस से पांच किलोमीटर दूर हो रही है, लेकिन संस्था का उससे कोई जुड़ाव नहीं होता। हमारे आसपास लगातार धार्मिक कट्टरपंथ बढ़ता जा रहा है, असहिष्णुता बढ़ती जा रही है, एक दूसरे के प्रति भरोसा ख़त्म होता जा रहा है, लेकिन आपका उससे कोई जुड़ाव नहीं है, न आप कोई जुड़ाव रखना चाहते हैं। किसी भी समाज से कट कर मनुष्य का प्रशिक्षण नहीं हो सकता, विशेष कर संस्थागत प्रशिक्षण तो बिल्कुल भी नहीं।

जहां तक पाठ्यक्रम की बात है, तो वह भी 30-40 साल पुराना है। आज तक पाठ्यक्रम की समीक्षा तक नहीं हुई है। आप कब तक उधार की चीज़ों से प्रशिक्षण देते रहेंगे? एक्टर को जो संस्थागत प्रशिक्षण दिया जा रहा है वह भी काफी महंगा है। महंगा सेट, महंगे कॉस्ट्यूम, सब चीज़ महंगी, पूरा माहौल ही पैसा खर्च करके तमाशा देखने वाला। भारतीय ज़रूरतों के हिसाब से यह प्रशिक्षण पर्याप्त नहीं हो सकता, क्योंकि भारतीय रंगमंच को किफ़ायती बनाना ज़रूरी है। सेट, कॉस्ट्यूम वगैरह का कम खर्चीला होना बहुत ज़रूरी है। क्रियेटिव होकर साधारण चीज़ों से नाटक करना ज़रूरी है।

जब आप छात्र को प्रशिक्षण देते हैं, तो उसे वे सभी मनमाफिक साधन सौंप देते हैं जो उसे बाहर नहीं मिलेंगे। एक्टर को जब ये साधन बाहर नहीं मिलते तो प्रशिक्षण से उसने जो क्षमता हासिल की है, वह उसके अनुसार काम नहीं कर पाता। इससे पता चलता है कि आप छात्र के लिये दिक्कतें पैदा कर रहे हैं। आप क्यों उसे बाहर की ज़रूरतों के हिसाब से, हमारे समाज की ज़रूरतों के हिसाब से, भाषा के हिसाब से, राज्यों के हिसाब से, हमारे क्षेत्रीय और आसपास के जो जुड़ाव हैं, उन चीज़ों के हिसाब से प्रशिक्षण नहीं देते? यह सिर्फ तभी हो सकता है, जब आप छात्रों को प्रत्येक राज्य के पास जाने दीजिये, हर भाषा और बोली के पास जाने दीजिये। आप नियंत्रण मत कीजिये, शायद वह अपने आप समाज से टकराते-टकराते चीज़ों को बदल दे। मुझे लगता है यह सबसे बड़ी दिक्कत है हमारे प्रशिक्षण की।

महत्वपूर्ण बात है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थानों में आकर हम अपनी जड़ों से कट जाते हैं। जहां से आप निकले हैं, जहां लौट कर आपको काम करना चाहिये, जिनके साथ आपको जुड़ना चाहिये, उस जगह और वहां के लोगों को आप हिकारत के साथ देखने के आदी बन जाते हैं। कहीं-न-कहीं इसकी जड़ें प्रशिक्षण के अंदर हैं, जहां पर उनको बाक़ी समाज से काट दिया जाता है, और काटने के बाद बताया जाता है कि आप विशिष्ट हैं। इस तरह कुछ-कुछ वैसी ही मानसिकता, वैसा ही बोध आपके अंदर भरा जाता है, जैसे एक ज़माने में कहा जाता था कि आप आर्यन रक्त हैं, शुद्ध रक्त वाले हैं, और बाक़ी यहूदी और आप उन पर राज करने के लिये निकल पड़ते थे। तो यह जो एक आक्रामकता, या कहिये कि विशिष्टताबोध छात्रों में पनपता है, यह प्रशिक्षण की बहुत बड़ी खामी है।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आज ब्राह्मणवाद का प्रतीक बन गया है। उसका मानना है कि हम जो कर रहे हैं वही श्रेष्ठ है, वही मानक है। हम जो बोल रहे हैं वही सच है। ब्राह्मणवाद के इसी गढ़ को बचाये रखने के लिये विगत साठ सालों में हिन्दुस्तान में और प्रशिक्षण संस्थान खुलने नहीं दिये गये। वे आज तक नहीं खुल पाये क्योंकि आप रेसिस्ट हैं। जैसे शूद्रों को गीत नहीं सुनना चाहिये, इसलिये उनके कानों में पिघला हुआ शीशा डाल देते थे, बिल्कुल इसी प्रकार, आप जो प्रशिक्षण दे रहे हैं वही अंतिम है, और बाकी लोगों को उसे नहीं सुनना-सीखना चाहिये, इसके लिये आप जिनको प्रशिक्षण देते हैं, उनके अंदर एक ब्राह्मणवादी श्रेष्ठताबोध उत्पन्न करते हैं। यह बहुत ही नकारात्मक दृष्टिकोण है, यह सामंती दृष्टिकोण है कि हमारे पास जो है वह दूसरों के पास नहीं होना चाहिये। इसकी वजह से डिसेन्ट्रलाज़ेशन नहीं हो पाया है। अगर डिसेन्ट्रलाज़ेशन हुआ होता तो ये कि़ले टूटते, कि़लेबंदी टूटती, वह आर्यवादी-सवर्णवादी व्यूह टूट जाता जो आज तक क़ायम है।

हमारे संस्थानों में दिये जाने वाले तथाकथित प्रशिक्षण की यह बहुत बड़ी कमी है कि वह समाज और देश से नहीं जुड़ पाया। उन अनगिनत लोगों के अनुभव और योगदान को नकार कर, जिन्होंने हिन्दी और भारतीय रंगमंच के विकास के लिये अपना जीवन लगाया, क्या रंगमंच की कोई शिक्षा पूरी हो सकती है? आप सामाजिक-राजनीतिक रंगमंच की हमारी समृद्ध परंपरा को इसलिये नकारते हैं, क्योंकि आप सरकार से मदद लेते हैं। सरकार यदि अपना दायित्व समझ कर भी मदद देना चाहे, तब भी आप अतिरिक्त वफ़ादारी दिखाने के लिये सरकारी अफसरों, सचिवों-उपसचिवों की चमचागिरी में घुटनों के बल रेंगने लगते हैं।

यह जो एक जुगाड़बाज़ी हमारे संस्थानों में आ गयी है, उसने प्रशिक्षण का बहुत नुकसान किया है। जब उनके अपने आदर्श नहीं होंगे, अपना दृष्टिकोण नहीं होगा तो छात्रों तक क्या पहुंचेगा। कोई भी संस्थान वहां के कर्मचारियों से, शिक्षकों से और अपने माहौल से बनता है। हम नाटकों में तो शोषण के ख़िलाफ़, असमानता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं, पर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ही बात करें तो वहां पर पिछले 10-15 सालों से अस्थायी कर्मचारी काम कर रहे हैं, जिनके बारे में आप ख़ामोश बने रहते हैं। नाटक में क्रांति कर देंगे, भ्रष्टाचार, जातिवाद और ग़रीबी जैसे तमाम मुद्दों पर बात कर लेंगे, लेकिन व्यवहार में सब उल्टा हो जाता है। संस्था के इस माहौल का प्रशिक्षण पर असर पड़ना लाजि़मी है।

(समकालीन रंगमंच पत्रिका के 'रंगकर्म और प्रशिक्षण' पर केन्द्रित विशेषांक में प्रकाशित लेख)

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