किसानों की हालत मनरेगा के मजदूरों से भी बदतर, रिपोर्ट में खुलासा
(मनरेगा को आवंटित राशि में कटौती। प्रतीकात्मक तस्वीर)
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
जनज्वार। हमारे प्रधानमंत्री (Prime Minister) बार-बार अगले वर्ष तक किसानों की आय को दुगुना (to double the income of farmers) करने की बात करते हैं, किसानों के हित की बात का दिखावा करते हैं, अलीगढ (Aligarh) समेत हरेक जगह गर्व से किसानों को सब्जबाग दिखाते हैं, फिर भी किसान आन्दोलन (Farmers Protest) करते जा रहे हैं और अपने आन्दोलन में धार पैदा करते जा रहे हैं। सरकार बार-बार प्रचारित कर रही है कि जो आन्दोलन कर रहे हैं वे किसान नहीं हैं – जाहिर है प्रधानमंत्री बताना चाहते है कि सरकार ने किसानों को इतनी सुविधाएं दी हैं कि उन्हें कोई कष्ट नहीं है और वे फिर आन्दोलन क्यों करेंगें।
इन सबके बीच एक सरकारी रिपोर्ट (Government Report) से यह खुलासा हुआ है कि किसानों की खेती से दैनिक आय मनरेगा (MGNREGA) के मजदूरों से भी कई गुना कम है। यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि ग्रामीण परिवेश (Rural Area) में अबतक मनरेगा के मजदूरों को आर्थिक तौर पर सबसे निचले दर्जे (lowest level of economical strata) का माना जाता था। पर हमारे बडबोले प्रधानमंत्री के राज में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खेती करने वाले किसान पहुँच गए हैं।
इसी महीने भारत सरकार के नेशनल स्टैटिस्टिकल आर्गेनाईजेशन (National Statistical Organisation) द्वारा जुलाई 2018 से जून 2019 तक किसानों का विस्तृत अध्ययन कर सिचुएशन असेसमेंट रिपोर्ट (Situation Assessment Report) को प्रकाशित किया गया है, इसके अनुसार खेती से जुड़े किसानों की कृषि उत्पादन के सन्दर्भ में आय महज 27 रुपये प्रतिदिन है, जबकि मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों को 180 रुपये रोज मिलते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों की 42.5 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर (depends on agricultural activities) करती है, पर अब यह आबादी खेती से नहीं बल्कि मजदूरी (salaried jobs) कर या फिर नौकरी कर अपना पेट भर रही है। हमारे देश में किसान उसे माना जाता है जो अपने खेत में प्रतिवर्ष 4000 रुपये तक की फसल उगाता है, या फिर फल और सब्जी बेचता है, या मवेशियों से सम्बंधित कारोबार करता है। यह परिभाषा ही साबित करती है कि समाज में इससे नीचे के आर्थिक पायदान पर और कोई नहीं होगा।
रिपोर्ट के अनुसार देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुल 9.31 करोड़ परिवार खेतिहर के तौर पर (agricultural households) परिभाषित हैं, इनमें से महज 38 प्रतिशत की आय कृषि उत्पादन (agricultural activities) पर आधारित है जबकि इससे अधिक संख्या में यानि 40 प्रतिशत की आय का साधन रोजगार या नौकरी है। जाहिर है, खेती एक ऐसा पेशा है जिसमें आय है ही नहीं। इससे जुड़ने वाले लोग भी यह पेशा छोड़ते जा रहे हैं और जब मनरेगा में भी काम नहीं मिलता तभी खेतों की तरफ कदम बढाते हैं।
वर्ष 2020 में जब लॉकडाउन (Lockdown) के कारण शहरों से श्रमिकों और कामगारों का पलायन (migration) अपने गाँव की तरफ हो गया था तब पहली बार खेतों में काम करने वालों की संख्या बढ़ी थी। कृषि उत्पादन से अपना गुजारा करने वालों की संख्या वर्ष 2012-2013 में 48 प्रतिशत थी जो वर्ष 2019 तक घट कर 38 प्रतिशत ही रह गयी।
प्रधानमंत्री के खोखले दावों की पोल लगातार केंद्र सरकार की संस्थाएं (Central Government Agencies) ही करती हैं, पर प्रधानमंत्री इन आंकड़ों का उपयोग नहीं करते, उनके आंकड़े मनगढ़ंत (cooked data) होते है और तभी एक भाषण से दूसरे भाषण के बीच बदल जाते हैं। प्रधानमंत्री एक काम जरूर करते हैं, ऐसी हरेक रिपोर्ट को जनता की नज़रों से दूर कर देते हैं और संसद के पटल तक पहुँचने नहीं देते। हालां कि इन आंकड़ों में भी अर्ध्यसत्य जाहिर होता है।
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2012-2013 की तुलना में वर्ष 2019 तक किसानों की आय में 60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है, पर इस आकलन में मुद्रास्फीति (Inflation) की दर को गायब कर दिया गया है। मुद्रास्फीति की दर का आकलन करने के बाद आय में बृद्धि महज 21 प्रतिशत ही रह जाती है। इस सरकार के दौर में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था किस तरह पिछड़ रही है, इसका उदाहरण है – वर्ष 2012-2013 से वर्ष 2019 के बीच कृषि क्षेत्र में महज 16 प्रतिशत की बृद्धि दर्ज की गयी पर इसी अवधि में देश का सकल घरेलु उत्पाद (GDP) 52 प्रतिशत बढ़ गया। किसानों द्वारा लिए गए लोन में 16.5 प्रतिशत की बृद्धि दर्ज की गयी।
जाहिर है खेती अब एक ऐसी गतिविधि बन गयी है जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आर्थिक बोझ बन गयी है, अब यह कोई आय का साधन नहीं रह गई है। दुगुनी आय का सपना दिखा कर सरकार ने उनको भुखमरी के कगार पर ला खड़ा किया है जिनकी मिहनत से हमारी थाली में खाना सजता है।