Uttarakhand Andolan Book Review : 'उत्तराखंड आन्दोलन- स्मृतियों का हिमालय' : एक पत्रकार के नजरिये को पेश करती किताब
('उत्तराखंड आन्दोलन- स्मृतियों का हिमालय' : एक पत्रकार के नजरिये से पेश करती किताब)
पुस्तक समीक्षा : जनार्दन
Uttarakhand Andolan Book Review : भारत की बाहरी और आंतरिक चौहद्दियां इस तरह से बनी हुई हैं जिससे विवाद बनता रहता है। इसके लिए भारत के लोग दोषी हैं या वे जिनसे विवाद पैदा होता रहता है वही दोषी हैं, कहना कत्तई ठीक नहीं है। अब विवाद पैदा होता है अपनी अपनी दावेदारी भी होती है। इसके लिए जब भी हल निकाला जाता है तो मुड़कर उपनिवेशिक दौर (Colonial Period) के मानचित्रों को देखना पड़ता है और उस समय के हुए समझौतों में से निष्कर्ष निकालने होते हैं। भारत की बाहरी चौहद्दियां विवाद में आती हैं तब विदेश विभाग और उसकी नीतियों से जुड़े लोग ही नहीं पूरे देश की जनता भी जद में आ जाती है। एकदम ही युद्ध का माहौल बनने लगता है। एक भयावह संकट पैदा हो जाता है।
देश की आंतरिक चौहद्दियां भी कम विवादास्पद नहीं होती हैं। इसका भी हल उपनिवेशिक दौर की बनवटों और बाद के समय में राज्यों के गठन की नीतियों से ही होता है लेकिन, जब भी इन चौहद्दियों (Boundaries) को लेकर विवाद (Controversy) आता है, इसमें भी जनता शामिल होती है और हिंसा इसका हिस्सा बन जाता है। हम नदी के पानी का बंटवारा से लेकर राज्यों के निर्माण, स्वायत्तता की मांग आदि में इस तरह के हालात देख सकते हैं। तेलगांना से लेकर झारखंड और उत्तराखंड राज्य आंदोलन इसके उदाहरण हैं।
हरीश लखेड़ा की पुस्तक 'उत्तराखंड आन्दोलन- स्मृतियों का हिमालय' उत्तराखंड राज्य आन्दोलन (Uttarakhand Rajya Andolan) को एक पत्रकार के नजरिये से पेश करती है। यह अखबार के कतरनों, लेखों, रिपोर्टों और बतौर पत्रकार की पक्षधरता की कार्यवाहियों को यह पुस्तक पेश करती है। हरीश लखेड़ा (Harish Lakhera) पत्रकारिता के सिलसिले में दिल्ली आये और यहीं के रह गये। उन्हीं के शब्दों में 'जहां से दिल्ली को जाता है रास्ता.../उस रास्ते से गये लोग/ लौटते नहीं हैं।' मंगलेश डबराल (Manglesh Dabral) की कविता याद हो आई 'मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया/वहां कोई कैसे रह सकता है/ यह जानने मैं गया/ और वापस न आया।' यह पीढ़ियों से चले आ रहे प्रवासियों की गाथा थी। अपने जड़ों की ओर वापसी की चाह बढ़ती गई।
1947 में भारत के बन रहे मानचित्र में भाषा, भूगोल, संस्कृति आदि की महत्वपूर्ण भूमिका बननी थी। आधुनिक राज्य के कुछ मानदंड होते हैं और उन मानदंडों को लेकर लगातार बहस चल रही थी। लेकिन, इन सारे आधुनिक मानदंडों पर धर्म ने अपना झंडा फहराया और इंसानों की लाश पर मानचित्र बना। इससे अंग्रेजों के प्रशासनिक आधार बने राज्यों का पुनर्गठन प्रभावित हुआ। जब भी पुनर्गठन की मांग हुई, मांग करने वालों पर ही दोष मढ़ दिया गया और राज्यों का पुनर्गठन बनता, टलता रहा। जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश (UP) का हिस्सा था तब वहां से सिर्फ 19 विधायक चुने जाते थे। पलायन के चलते आबादी कम हो रही थी। इस हालात को ठीक करने के बजाय जब वहां पंचायती चुनाव क्षेत्रों को भी पुनर्गठित करने का दावा किया गया तब स्थिति और भी खराब हो जाने को बन गई। ऐसा ही पुनर्गठन शिक्षा क्षेत्र में भी करने का प्रयास हुआ। भेदभाव का दायरा जब भी बढ़ता है, अभाव की चेतना भी पैदा होती है।
ऐसी ही स्थिति 1994 में उत्तराखंड में ओबीसी आरक्षण लागू करने की घोषणा के समय पैदा हुई। उस समय उत्तर-प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। यहां आरक्षण विरोधी आंदोलन अस्मिता के सवाल से जुड़ गया। दरअसल, उत्तराखंड में दलित और ओबीसी की संख्या उत्तर-प्रदेश की जनसंख्या आंकड़ों के हिसाब से नहीं थी। पलायन और गरीबी से जूझ रहे लोगों पर आरक्षण का मसला खुद के न समझे जाने से जाकर जुड़ गया।
भाजपा से जुड़े लोगों ने निश्चित ही इस हालात का भरपूर फायदा उठाया लेकिन यह भी सच् है कि उन्होंने उत्तराखंड राज्य आंदोलन में गहरे तक पैठ गये। उत्तराखंड राज्य आंदोलन में कई सारे संगठन बने और विवाद के शिकार भी हुए। पुलिस और पीएसी का दमन उत्तराखंड के सुदूर पर्वतीय क्षेत्र तक पहुंच गया। लेकिन, दिल्ली की रैली में भाग लेने आ रहे उत्तराखंड के लोगों, खासकर महिलाओं के खिलाफ मुजफ्फरनगर में पुलिस और अर्धसैनिकबलों ने जो अत्याचार किया उसने एक ऐसी मानसिक दरार पैदा किया जो अब भरने वाला नहीं था। इसने एक ऐसे विभाजन को पैदा किया जिसका भूगोल पर उतरना तय कर दिया था। हरीश लखेड़ा के शब्दों में पहाड़ सुलगने लगा था। इसकी आंच सेना तक पहुंच रही थी।
उत्तराखंड के लोगों में अपनी पहचान को लेकर चिंतन बढ़ने लगा था। मंगलेश डबराल का लेख- जातिवाद का नहीं जातीय पहचान का सवाल इस संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। इन सबका असर राज्य की विधानसभा और फिर केंद्र में संसद में हो रही बहसों में दिखा। उत्तराखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव पास होकर केंद्र तक आया और लंबे समय तक वहीं पड़ा रहा। कांग्रेस की नरसिम्हा राव की सरकार हिल-कौंसिल से आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रही थी। अंततः अगस्त, 2000 में उत्तर-प्रदेश पुनर्गठन विधेयक-2000 पास हुआ और उत्तराखंड राज्य के गठन की घोषणा की गई।
उत्तराखंड राज्य बनाने के आंदोलन में वहां की जनता, खासकर महिलाओं ने बहुत बड़ी भूमिका अदा किया। एकीकृत उत्तर-प्रदेश राज्य की आबकारी नीतियों के चलते शराब ने उत्तराखंड में गंभीर सामाजिक समस्या को पैदा किया था। इसके खिलाफ महिलाओं के आंदोलन ने जिस सामाजिक चेतना को पैदा किया उससे आगामी पीढ़ियों के छात्र और प्रवासी बनने के लिए मजबूर प्रबुद्ध वर्ग था। छात्र आंदोलन और प्रवासी समुदाय ने दिल्ली से लेकर लखनऊ तक जो गोलबंदी किया उससे आंदोलन को काफी मजबूती मिली। उत्तराखंड के लोगों में पर्यटन उद्योग को लेकर चिंताएं थी, वे विकास के अन्य आधारों पर जोर दे रहे थे। इस आंदोलन में कांग्रेस दुविधाग्रस्त रही, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी समर्थन में रही, भाजपा ने इसे अवसर की तरह देखा और समर्थन में दांव-पेंच में लग गई। लेकिन, सपा और बसपा, जिसका आधार सामाजिक न्याय की अवधारणा पर टिका हुआ है, उत्तराखंड के लोगों के साथ न्याय करने के बजाय उन पर जिस तरह के हमले किये वह आज भी वहां के लोगों के लिए दुःस्वप्न की तरह है। उत्तराखंड राज्य का निर्माण इन पार्टियों समर्थन या विरोध से नहीं वहां के छात्रों, महिलाओं, बुद्धिजीवियों, किसानों और अथक प्रयासों से बनते-टूटते-बनते संगठनों से ही संभव हो पाया।
हरीश लखेड़ा की यह पुस्तक उत्तराखंड राज्य आंदोलन के समय बने पोस्टरों, कविताओं, गीतों, लेखों, रिपोर्टों से लेकर इतिहास के पन्नों को खंगालते हुए चलती है। यह उत्तराखंड राज्य आंदोलन के बौद्धिक पन्नों को खोलती है। जिससे गुजरते हुए आप आंदोलन का पुनर्वालोकन कर सकते हैं। समय साक्ष्य प्रकाशन से प्रकाशित यह पुस्तक राज्य आंदोलन पर जरूरी किताब है। इसे जरूर ही पढ़ा जाना चाहिए।