असल मर्ज़ क्या है, स्कूली किताबों से संवैधानिक मूल्य वाले अध्याय हटाया जाना या पढ़ाया जाना?
वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का साप्ताहिक कॉलम 'कातते-बीनते'
राष्ट्रीय मानस और मीडिया में विकास दुबे के पैदा होने से लेकर मारे जाने के बीच कटे एक हफ्ते में कई खबरें ऐसे गायब हो गयीं, जैसे गदहे के सिर से सींग। जैसे सावन में बारिश। जैसे कोरोना में बाकी बीमारी। बिना मुहावरे के सीधे कहा जाए, जैसे सीबीएसई की किताबों से 30 परसेंट चैप्टर।
कक्षा ग्यारहवीं की राजनीति विज्ञान की किताब से कुछ अध्याय हटाये गये हैं, नाम देखें : संघवाद, हमें स्थाानीय सरकारें क्यों चाहिए, भारत में स्थानीय सरकारों का विकास, नागरिकता, राष्ट्रवाद, सेकुलरवाद। बारहवीं की किताब से हटाये गये अध्याय हैं, समकालीन जगत में सामरिक सुरक्षा, पर्यावरण और कुदरती संसाधन, भारत के आर्थिक विकास की बदलती प्रकृति, योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाएं, अपने पड़ोसियों पाकिस्तान, बांग्लाादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमा से भारत के रिश्ते, भारत के नए सामाजिक आंदोलन, क्षेत्रीय आकांक्षाएं।
थोड़ा बहुत शुरुआती हल्ला हुआ। ज्ञापन दिये गये। फिर मामला शांत हो गया। बच्चों का बोझ कम किया है सरकार ने, बच्चे तो खुश हैं। कांग्रेस या बसपा का इससे क्या लेना देना। वैसे भी, कन्हैया कुमार लंबे समय से संघवाद से आज़ादी मांग रहे थे। सरकार ने दे दी। कन्हैया ने ये तो बताया नहीं था कि कौन से संघ से आज़ादी चाहिए। राजनीतिक नारों में भाषा की सम्प्रेषणीयता भारत की धरती पर कितना महत्व रखती है, इसे जांचने के लिए हिंदी की पट्टी में एक बार लोगों से फासीवाद कहलवा और लिखवा कर देखिए। फांसी न हो जाए तो कहिएगा! बहरहाल, संशोधित नागरिकता कानून अभी लागू होने की प्रक्रिया में है, इसलिए पुरानी नागरिकता को क्यों पढ़ा जाए। ज्यादातर लोगों को पाठ्यक्रम से सेकुलरवाद हटाये जाने से दिक्कत है। अपनी सुविधानुसार आप राष्ट्रवाद से उसे बैलेंस कर लीजिए, क्योंकि वो भी हट चुका है।
अब बारहवीं पर आइए। छात्रों को सामरिक सुरक्षा पढ़ने की क्या जरूरत, डोभाल साहब अकेले काफी हैं सारे पड़ोसियों को संभालने के लिए। पर्यावरण तो लॉकडाउन में वैसे ही साफ़ हो गया है, उसे पढ़कर क्या करेंगे बच्चे? दिल्ली से हिमालय देखें, जमुना में नहाएं। योजना आयोग कब का खतम हो गया, चैप्टर भी निकल जाए तो क्या गलत? नए सामाजिक आंदोलन अब खास बचे नहीं। आखिरी वाला दिल्ली की गद्दी पर बैठ चुका है। बाकी सब देशद्रोही करार दे दिये गये हैं। उनको क्या पढ़ना। क्षेत्रीय आकांक्षाएं अब दम तोड़ रही हैं क्योंकि बीजेपी केरल और बंगाल तक में घुस चुकी है, उत्तर पूर्व में मुख्य्मंत्री बनवा चुकी है। काहे की क्षेत्रीय आकांक्षा जो जम्मू और कश्मीर बचा था कुछ आकांक्षा लिए हुए, उसे तीन टुकड़ों में बांट ही दिया।
कहने का आशय ये है कि निशंक जी ने अपने नाम के अनुरूप बिना किसी शंका के बिलकुल सही अध्याय हटाने का फैसला लिया है। जब हल्ला मचा, तो उन्होंने कहलवा दिया कि ये सब केवल इस सत्र के लिए है, अगली बार फिर आ जाएगा। कौन है इस देश में जिसे लगता है कि जो चैप्टर हटाये गये हैं, भारतीय जनता पार्टी को उनसे डर लगता है. कौन है जो अब तक इस गलतफ़हमी में जी रहा है कि सीबीएसई की किताबों में संवैधानिक मूल्यों पर चैप्टर पढ़कर एक छात्र अच्छा सच्चा नागरिक बन जाता है?
आजकल मेरे घर में एक परिजन का बच्चा आया हुआ है। छठवीं का है। केंद्रीय विद्यालय का छात्र। उसे मैं विज्ञान पढ़ा रहा था। विज्ञान में खाद्य श्रृंखला। जीवो जीवस्य भोजनम्। उसके भीतर नॉनवेज खाने को लेकर बहुत जिज्ञासा है क्योंकि वह खुद शाकाहारी है। संवाद के बीच में अचानक उसने एक सवाल दाग दिया, 'सबसे ज्यादा मुसलमान इंडिया में कहां होते हैं'? बिना संदर्भ के आये इस सवाल का मूल स्रोत मैं तलाशने लगा। पता चला कि उसके दिमाग में यह धारणा कायम है कि मुसलमान ज्यादा मांस-मछली खाते हैं। इसके ठीक उलट उसके दिमाग में यह बात भी थी कि पंजाब, राजस्थान के लोग शाकाहारी होते हैं। कहां से बनते हैं ऐसे स्टीरियो टाइप?
मैंने सोचा अभी छठवीं में है, जब ग्यारहवीं में जाएगा तो सेकुलरवाद का चैप्टर पढ़ के ठीक हो जाएगा। आश्वस्त होकर मैं अपने काम में लगा ही था कि उसने दूसरा सवाल दाग दिया, वो भी बिना संदर्भ के, 'क्या पाकिस्तान में मुल्लों से ज्यादा गदहे होते हैं'? मैंने फिर पूछा उससे कि 'ये सवाल अब कहां से आया भला'! वो चुप रहा। फिर मैंने पूछा 'ये मुल्ले क्या होता है'? उसने जवाब दिया, 'पाकिस्ताान के लोग'। फिर वो खुला। उसने बताया कि 'उसके पापा ये बातें कहते हैं'।
अब समस्या यह है कि उसके स्नातक पिता को मैं वापस ग्यारहवीं में लाकर सेकुलरवाद का चैप्टेर कैसे पढ़ाऊं और उसकी ज़रूरत भी क्यों हो, जबकि उसके पिता सीबीएसई की इसी किताब को पढ़कर बड़े हुए हैं। वो भी तब, जब पाठ्यक्रम का बोझ घटाने के लिए ये चैप्टर अतीत में कभी उड़ाया नहीं गया। तो क्या उन्होंने यह चैप्टर पढ़ा नहीं होगा? सवाल तो बनता है। क्या जो लोग नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे थे केवल वही सीबीएसई का नागरिकता वाला चैप्टार पढ़े हैं या ऐसे नागरिक जो इन सीएए विरोधियों के खिलाफ़ हैं, क्या उन्होंने नागरिकता का चैप्टर किताब में नहीं पढ़ा? जो लोग कोरोना आने के बाद लॉकडाउन में पटाखा छोड़ रहे थे? क्या उनकी किताब में पर्यावरण वाला पन्ना फटा हुआ था? असल सवाल ये है कि क्या़ हम लोग सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर अपनी राय स्कूली शिक्षा और किताबों के हिसाब से बनाते हैं?
यह देश अब तक कागज़ पर सेकुलर है। लोकतांत्रिक है। औसत व्यहवहार में यह सेक्टेरियन और संकीर्ण है। मान लीजिए कल को संविधान के पन्ने पर सेकुलरिज्मल काट के भारत को हिंदू राष्ट्र लिख ही दिया जाए, तो क्या यह देश वाकई (आरएसएस की परिकल्परना वाला) हिंदू बन जाएगा जिस तरह एक सेकुलर लोकतंत्र के भीतर हिंदू राष्ट्र का वास अभी है, उसी तरह भविष्य में एक हिंदू राष्ट्र के भीतर सेकुलर लोकतंत्र का वास होगा। अब तक मुखौटा सेकुलर लोकतांत्रिक का है। कल को मुखौटा बदल जाएगा। बस। मुखौटे के भीतर वास्तव में क्या पक रहा था/है या पकेगा, ये कौन जानता है। चीज़ें इतनी ब्लैक एंड वाइट नहीं होती हैं। कभी-कभी मुखौटा ही चेहरा होता है। कभी मुखौटा और चेहरा अलहदा होते हैं। कभी असली चेहरा ही मुखौटा बन जाता है और देखने वाले को पता नहीं लगता।
The man supposedly climbed out of an overturned van though injured, ran helterskelter for life, had an exchange of fire with police and eventually got killed. BUT THE MASK REMAINED IN PLACE! Took the corona orders seriously! Police ko mask to utaar dena tha to make it realistic! pic.twitter.com/BAEm6o9Zp0
— Dr. N. C. Asthana, IPS (Retd) (1986-2019) (@NcAsthana) July 10, 2020
मुखौटे और चेहरे को अलग मानने वाला अकसर ही गलत लीक पर चलता है। कल विकास दुबे की लाश को जब अस्पताल ले जाया गया तो उसके चेहरे पर मास्क जस का तस था। जो आदमी पलटती हुई गाड़ी से गिरा, पिस्तौल निकालकर भागा, गोली चलाया, गोली खाया, उसका मुखौटा उसके चेहरे पर अंत तक कायम रहा। आदमी मर गया, पर मास्क नहीं उतरा। मास्क के भीतर कौन मरा है और कौन जिंदा बच गया, हम कभी नहीं जान पाएंगे। इसलिए, क्योंकि एक ही व्यक्ति एक ही वक्त में कुछ लोगों का मुखौटा था और कुछ का चेहरा। उसका असल चेहरा क्या था, ये कौन जानता है, वो जिनका चेहरा था, क्या वे सब मारे गये बिना जाने सबने पोज़ीशन ले ली ऐसे जैसे कि सब जानते हों।
इस देश में सत्ता के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाली तरक्की पसंद जमातों में यही बुनियादी दिक्कत है। या तो वे इतने भोले बन जाते हैं कि मुखौटे को ही चेहरा मान बैठते हैं या फिर वे इतने शातिर हैं कि प्रत्यक्ष चेहरों में साजिशी मुखौटे तलाशने लगते हैं। सीबीएसई की किताबों में संवैधानिक मूल्यों पर शामिल अध्याय दरअसल इस साम्प्रदायिक समाज का मुखौटा हैं, जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी दंगाइयों की फसल तैयार की है। अच्छा हुआ कोरोना के बहाने ही सही, मुखौटा तो उतरा। अब हमें और आपको यह तय करना है कि जो मुखौटा उतारा गया है, यानी जो चैप्टर हटाया गया है, यह वाकई उसी मंशा से किया गया है जैसा हम सोच रहे हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं कि संविधान से जुड़े चैप्टरों को इसलिए हटाया गया है ताकि हम मुखौटे को चेहरा समझ कर इसी में उलझे रह जाएं और उधर मास्क पहन कर विकास अहर्निश जल, जंगल, ज़मीन लूटता रहे? दंगे काटता रहे?