कृषि कानूनों का विरोध करने वाले अडानी-अम्बानी का विरोध क्यों कर रहे है?
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
बिल गेट्स के बारे में आप कितना जानते हैं? कुछ लोग उन्हें माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक के तौर पर जानते हैं, दूसरे उन्हें दुनिया के तीसरे सबसे अमीर आदमी के तौर पर जानते हैं और कुछ अन्य लोग उन्हें मानवाधिकार और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों के लिए एक बड़े मुखर कार्यकर्ता के तौर पर जानते हैं। पर, आप शायद ही यह जानते होंगे कि अमेरिका में कृषिभूमि के सबसे बड़े मालिक बिल गेट्स हैं और उनके नाम कुल 2,42,000 एकड़ कृषि भूमि है जिसका मूल्य 69 करोड़ डॉलर से अधिक है। बिल गेट्स की कुल भूमि का क्षेत्र हांगकांग के क्षेत्र से भी अधिक है, यही नहीं बिल गेट्स के पास जितनी कृषि भूमि है, उतनी अमेरिका के मूल निवासियों के पास भी सम्मिलित तौर पर नहीं है। बिल गेट्स एक उदाहरण हैं जिससे पूंजीपतियों का भूमि के लिए लालच को समझ जा सकता है और यह उदाहरण आज के दौर के न्यू इंडिया के लिए महत्वपूर्ण है।
देश में कृषि कानूनों का विरोध भले ही समाचारों से गायब हो गया हो पर यह अभी थमा नहीं है। इस आन्दोलन की अनेकों विशेषताओं में से एक है - इस आन्दोलन द्वारा देश के दो बड़े पूंजीपतियों के विरुद्ध जोरदार आवाज बुलंद किया जाना। समस्या यह है कि हमारे देश में सामान्य जन से जुड़े मुद्दों को सरकार, मीडिया, सोशल मीडिया, भगवा ब्रिगेड, पुलिस और न्यायालय सभी मिलकर दबा देते हैं और सामान्य जनता दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने में ही व्यस्त रह जाती है।
किसानों ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि अडानी-अम्बानी प्राइवेट कृषि मंडी में अपने शर्तों और मूल्य पर अनाज खरीदेंगें और फिर भारी मुनाफे के साथ बाजार में बेचेंगें। किसानों का यह भी कहना है कि छोटे किसानों के लिए खेती इतनी दुरूह और दूभर कर दी जायेगी कि उनके पास अपनी जमीन बेचने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचेगा, और इसके बाद अडानी-अम्बानी सस्ते मूल्यों पर किसानों की जमीन खरीदना शुरू करेंगें और धीरे-धीरे देश की अधिकतर कृषि भूमि के मालिक यही उद्योगपति होंगें। फिर फसल, लोगों के खाने का अंदाज और बाजार सबकुछ अपनी सुविधा और मुनाफा के अनुसार बदल देंगें। सरकार और अडानी-अम्बानी अपनी तरफ से लगातार स्पष्ट करते रहे हैं कि किसानों की ऐसी शंका निर्मूल है और ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। पर क्या सही में ऐसा है?
अमेरिका के ही दूसरे अरबपति और बड़े मीडिया साम्राज्य के मुखिया टेड टर्नर के पास भी करींब 20 लाख एकड़ भूमि है, जिसमें वे भैसों को पालते हैं। यह अमेरिका में भैसों का सबसे बड़ा आवास है, पर इसमें से अधिकाँश भूमि कृषि योग्य नहीं है। अमेरिका और भारत की कृषि में अनेक समानताएं हैं, भारत में आज जो किसानों और खेती के स्थिति है, उसे अमेरिका 1970 और 1980 के दशक में देख चुका है। उस दौर में भारत की तरह खेती किसानों के जीने का अंदाज थी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था और परिवेश पूरी तरह इसपर निर्भर करता था। अमेरिका की पुर्दुए यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलॉजी के प्रोफ़ेसर एंड्रू फ्लाचस के अनुसार अमेरिका का मिडवेस्ट क्षेत्र भारत के ग्रामीण जीवन का आइना है। संभवतः इसी कारण अमेरिका के 87 किसान संगठनों ने दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर आन्दोलन कर रहे किसानों के समर्थन में 21 फरवरी को एक पत्र भेजा था, जिसमें लिखा था कि अमेरिकी किसान भी भारतीय किसानों की मांगों का समर्थन करते हैं, और अमेरिकी किसान ऐसा दौर लगभग 4 दशक पहले देख चुके हैं। अमेरिका में भी किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के मामले सामान्य ग्रामीण आबादी की तुलना में 45 प्रतिशत अधिक है।
1970 के दशक के अंत में और 1980 के दशक के शुरू में अमेरिका की कृषि व्यवस्था में बड़े बदलाव किये गए थे। सरकार से मिलने वाली मदद लगभग बंद कर दी गयी थी, कर्ज पर व्याज दर बेतहाशा बढ़ा दिया गया था और मुक्त वैश्विक अर्थव्यवस्था के कारण कृषि उत्पादों के दामों में भारी गिरावट होने लगी थी। उस दौर में राजधानी वाशिंगटन डीसी और दूसरे बड़े शहरों में किसानों ने कई बार ट्रैक्टर और ट्रक पैरेड किया था। इसके बाद वर्ष 1981 के राष्ट्रपति चुनावों के दौर में "अमेरिका इज बैक" रोनाल्ड रीगन का चुनावी नारा बना। अपने चुनावी भाषणों में रीगन ने किसानों के मुद्दे को खूब भुनाया। उनके कुछ वादे थे - वे ग्रामीण अमेरिका को फिर से खुशहाल करेंगे, कृषि को फिर से लाभकारी पेशा बना देंगें, छोटे किसानों को बढ़ावा देंगें, एक ऐसा मुक्त बाजार बनायेंगें जहां किसानों को अपने उत्पाद की मुंहमांगी कीमत मिल सकेगी और समाज में किसानों की प्रतिष्ठा बढ़ाएंगे।
रोनाल्ड रीगन के वादों को याद कर जाहिर है अपने प्रधानमंत्री मोदी जी की याद आ गयी होगी। वादों पर ही दुनियाभर में वोट मिलते हैं, और अमेरिका में भी रोनाल्ड रीगन राष्ट्रपति चुने गए और उनकी जीत में किसानों की बड़ी भूमिका थी। राष्ट्रपति बनने के बाद रीगन ने किसानों के भले के नाम पर बहुत सारे कदम उठाये, हरेक कदम को साहसिक बताया और दुनिया में अनूठा भी, पर कुछ वर्षीं में ही अमेरिका में लगभग सभी छोटे किसानों को अपने खेती की जमीन बेचनी पडी और केवल बहुत बड़ी जमीन वाले किसान ही रह गए। उसी दौर में औद्योगिक पैमाने पर खेती की शुरुआत की गयी, और परम्परागत फसलों के बदले कैश क्रॉप का क्षेत्र बढ़ने लगा।
वर्ष 1983 से वर्ष 1985 तक लगभग सभी छोटे किसानों ने खेती का पेशा छोड़ दिया और मजबूर होकर अपने खेत बेच दिए। अमेरिका के आयोवा प्रांत में 1983 के अप्रैल महीने में ही 500 से अधिक छोटे किसानों ने अपने खेत बेचे थे। आज के दौर में अमेरिका के कुल कृषि पर निर्भर वहां की महज 3 प्रतिशत जनसँख्या है, और हरेक किसान के पास औसतन 178 हेक्टेयर कृषि भूमि है। भारत में औसतन एक किसान के पास महज 1.06 हेक्टेयर कृषि भूमि है। अमेरिका में खेती अमीरों के हाथ में है, वहां के 1 प्रतिशत किसानों या फिर कंपनियों के पास कुल कृषि भूमि में से 70 प्रतिशत से अधिक का मालिकाना हक़ है।
भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी भी किसानों के हित की बहुत बातें करते हैं, उनकी आय दोगुनी करने की बातें करते हैं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधारने के दावे करते हैं, पर वास्तविकता तो यह है कि किसान मोदी जी के हरेक वादे के साथ पहले से अधिक बेबस और लाचार होता जा रहा है। अपने देश में किसानों का ही समुदाय ऐसा है जो प्रधानमंत्री के हरेक जुमले को समझ चुका है और फिलहाल छलावे में नहीं आने वाला है। उसे मालूम है कि प्रधानमंत्री मोदी कृषि बिलों के माध्यम से किसे फायदा पहुंचाना चाहते हैं। मोदी जी बार-बार उनकी शंका की पुष्टि ही कर रहे हैं, क्योंकि यदि किसानों के हितों का, उनकी समस्याओं का ध्यान उन्हें होता तो जाहिर है किसानों की बात भी सुनते।
अडानी-अम्बानी ने कहा है कि वे ना तो कृषि उत्पाद खरीद रहे हैं और ना ही किसानों की जमीन खरीद रहे हैं। अडानी ने तो हवाई अड्डों को अपने नाम कराने के पहले भी कभी नहीं कहा था की वे ऐसी योजना बना रहे हैं, या सरकारी तेल रिफाइनरी अपने अधीन करने के पहले अम्बानी ने भी यह नहीं कहा था। अडानी कृषि उत्पाद नहीं खरीदने की बात कर रहे हैं, पर देश में अनेक जगह बड़े-बड़े अत्याधुनिक अनाज भंडारण केंद्र बना रहे हैं और किसानों को बता रहे हैं की ये भंडारण केंद्र वे ऍफ़सीआई के लिए बना रहे हैं, हालां कि इस दावे की पुष्टि आजतक सरकार या फिर ऍफ़सीआई की तरफ से नहीं की गयी है। एक बार हम मान भी लें कि सब ऍफ़सीआई के लिए तैयार किया जा रहा है, पर प्रश्न तो यह है कि अडानी को ऍफ़सीआई पर कब्जा करने में कितना समय लगेगा?
यह बात सही है कि खेती करने के लिए जमीन खरीदने या कब्जा करने के मामले में अडानी या अम्बानी का नाम सामने नहीं आया है, पर दूसरे कार्यों के लिए कृषि भूमि का अधिग्रहण सभी कानूनों को ताक पर रखकर और स्थानीय निवासियों को धमकाकर बार-बार किया जाता रहा है। अडानी तो इस मामले में कुख्यात हैं, पर स्थानीय प्रशासन, पुलिस, राज्य सरकारें, केंद्र सरकार और न्यायालायें हरेक बार स्थानीय निवासियों का दमन करती हैं और गैर-कानूनी भूमि अधिग्रहण या फिर भूमि की लूट में अडानी का भरपूर साथ देती हैं। इस मामले में प्रतिष्ठित पत्रिका 'फ्रंटलाइन' ने 17 मई 2013 के अंक में "द ग्रेट लैंडग्रैब" के शीर्षक से एक कवर स्टोरी भी की थी। अडानी को गुजरात में मुंद्रा स्पेशल इकनोमिक जोन के नाम पर 10000 हेक्टेयर भूमि दी गयी, जिसे कहा गया की यह परती भूमि है या व्यर्थ भूमि है, जिसका कोई उपयोग नहीं है। पर, सच तो यह था की इसमें अधिकतर भूमि कृषि भूमि थी और स्थानीय किसानों के विरोध के बावजूद इसे ताकत के बल पर हथियाया गया था।
अडानी को दिए गए इस उपहार के बारे में कहा जाता है कि 2002 के गोधरा काण्ड के बाद जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि धूमिल होने लगी, तब गौतम अडानी ने अपने बलबूते पर 2003 ने गुजरात में दुनिया के अनेक बड़े उद्योगपतियों का शिखर सम्मलेन आयोजित कराया था और इसके बाद मोदी की धूमिल पड़ती छवि अचानक विकास और उद्योगों के मसीहा के तौर पर स्थापित हो गयी और गुजरात में विदेशी निवेश कई गुना बढ़ गया। अडानी को मुंद्रा स्पेशल इकनोमिक जोन इसी कारनामे के लिए उपहार स्वरुप दिया गया था, और उपहारों का सिलसिला अभी थमा नहीं है बल्कि पैमाना और बड़ा हो गया है।
मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री से बढ़कर देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान है। अब तो अडानी-अम्बानी जिस भी जमीन पर हाथ रखते हैं, वह जमीन उनकी हो जाती है और विरोध करने वाले जेल पहुँच जाते हैं। झारखण्ड के गोड्डा में यही किया गया था, जहां अडानी के ताप बिजलीघर स्थापित करने के लिए 2000 हेक्टेयर कृषि भूमि किसानों से हड़पी गयी थी। जाहिर है, अडानी-अम्बानी जिस दिन कृषि के लिए जमीन चाहेंगें, उसी दिन किसानों से छीनकर और उन्हें बेदखल कर सौगात के तौर पर दे दी जायेगी।
भूमि अमीरों की ताकत है, संपत्ति है और यह सत्ता की धमक का प्रतीक भी है। जमीन का मालिकाना हक़ जिसके पास होता है, जो जमीन पर काम करता है और जो जमीन की देखभाल करता है – तीनों समाज के अलग तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं। समाज की असमानता का दुनियाभर में बड़ा कारण भी यही है। अमीर जब खेती करते हैं तब उसे पर्यावरण अनुकूल खेती का नाम देते है, ग्रीन कैपिटलिज्म का नाम देते है – पर वास्तव में समाज और पर्यावरण का विनाश कर रहे होते हैं और गरीबों का निवाला छीन रहे होते हैं।