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विमर्श

कोविड-19 पर संसद की पहली रिपोर्ट में क्या हैं अहम सिफारिशें, जिसे लागू करना चुनौती होगी?

Janjwar Desk
27 Nov 2020 2:30 AM GMT
कोविड-19 पर संसद की पहली रिपोर्ट में क्या हैं अहम सिफारिशें, जिसे लागू करना चुनौती होगी?
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कोविड-19 संक्रमण फैलने के नौ महीने बाद संसदीय समिति की इस पर पहली रिपोर्ट आयी है, इसमें कोरोना संक्रमण को लेकर देश व सरकार की तैयारियों को नाकाफी मानते हुए कई अहम सुझाव दिए गए है। पढिए उस विषय पर केंद्रित विस्तृत आलेख...

वरिष्ठ पत्रकार विमल कुमार का विश्लेषण

कोविड-19 पर संसद की पहली रिपोर्ट आ गई है जिसमें इस महामारी की रोकथाम के लिए सरकार की अदूरदर्शिता, विफलता, कुप्रबंधन, ढिलाई तथा बुनियादी मेडिकल सुविधाओं की कमी के लिए उसकी तीखी आलोचना की गई है और इसके लिए मोदी सरकार को जमकर फटकार भी लगाई गई है, लेकिन जिस तरह संसदीय समितियों की रिपोर्टों पर धूल जमी रहती है, उसे देखते हुए ये सवाल उठने लगे हैं कि क्या इस समिति की सिफारिशें तत्काल लागू हो पाएंगी और देशवासियों को कोविड-19 की रोकथाम में अगले वर्ष भी राहत मिल पाएगी?

30 जनवरी को देश मे कोरोना का पहला मामला सामने आया और 17 मॉर्च को देश मे लॉकडाउन हुआ। उसके करीब 8 माह बाद संसद की यह पहली रिपोर्ट आयी है, यानी एक रिपोर्ट के आने में जब पौन साल लग गए तो उसे लागू करने में कितना समय लगेगा? इसका अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं। वैसे भी, संसदीय समिति की रिपोर्ट को लागू करने के लिए सरकार बाध्य नहीं होती है और कई रिपोर्टें ठंडे बस्ते में चली जाती भी हैं पर उसकी सिफारिशें नीति निर्धारकों के लिए महत्वपूर्ण जरूर होती हैं। यह पहली समग्र रिपोर्ट कोविड पर है इसलिए इस रिपोर्ट का महत्व अधिक है और उम्मीद है कि सरकार इसे गंभीरता से लेगी।

लेकिन, राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू को पेश की गई 123 पेज की इस रिपोर्ट को पढ़ने पर पता चल जाता है कि सरकार इस महामारी को रोकथाम के लिए जो दावे पेश करती है जमीनी स्तर पर हक़ीक़त कुछ और है तथ उस हक़ीक़त को देखते हुए नहीं लगता कि जो देश वासी टीके की उम्मीद लगाए बैठे हैं उन्हें इस रोग से निकट भविष्य में मुक्ति मिलने वाली है।

समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव की अध्यक्षता वाली स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट से आपको पता चल जाएगा कि देश मे स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा इतना कमजोर है कि अगर अगले साल कोविड के टीके आ भी जाते हैं, तो भी उन्हें सबको लगाना उतना आसान नहीं होगा जितना आप सोच रहे होंगे। समिति ने तो साफ कह दिया है टीकों की ब्लैक मार्केटिंग न हो और पारदर्शी तरीके से उसका वितरण हो और हर नागरिक को लगे तथा टीका भी सस्ता हो। लेकिन इस बात की क्या गारंटी की अमीर और वीआईपी लोगों को पहले टीके न लग जाएं?

भारत मे 22 लाख स्वास्थ्यकर्मी हैं जिनमें आशा और आंगनबाड़ी के लोग हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत मे प्रति दस हज़ार 22 स्वास्थ्य कर्मी हैं जबकि विश्व का औसत 44 है यानी हम दुगने कम हैं। ऐसे में हर घर जाकर पल्स पोलियो के टीके की तरह कोरोना का टीका लगाना आसान नहीं। पल्स पोलियो के टीके भी कई साल लगे पर कोरोना के टीके के लिए देश इतना इंतज़ार नहीं कर सकता।

देश की अर्थव्यवस्था जिस तरह खाई में पहुंच गई है उसे देखते हुए 130 करोड़ लोगों को टीका दिलाना सरल काम नहीं है। इसके लिए लाखों की संख्या में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और कोल्ड चेन तथा भारी बजट की जरूरत होगी जो अगले 7 या 8 माह में किसी भी कीमत पर संभव नहीं दिखती है।

समिति ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि कोविड काल में सरकार ने इन स्वास्थ्यकर्मियों से काम तो करवा लिया पर उनका वेतन दिहाड़ी भी नहीं दिया। ऐसे में सरकार उनसे टीका लगवाने के काम कैसी लगी?

समिति ने स्वास्थ्य मंत्रालय का बजट बढ़ाने कोल्ड चैन और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की संख्या में वृद्धि करने की सिफारिश की है लेकिन मौजूदा बजट को देखते हुए यह संभव नहीं लगता है कि सरकार इतने कम समय में इस ढांचे को विकसित कर पायेगी क्योंकि अपने देश की नौकरशाही सुस्त ही नहीं है बल्कि भ्रष्ट भी है और लालफीताशाही भी बहुत है। समिति ने इन मुद्दों पर भी गौर किया है।

सरकार इस समय सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करती है और उसे 2025 तक बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत करने का इरादा रखती है। इस तरह अगले 5 साल में उसका बजट बढ़कर 6 लाख करोड़ से अधिक हो जाना चाहिए पर क्या मौजूद खस्ता अर्थव्यस्था को देखते हुए बजट में वृद्धि होगी। शिक्षा का बजट 6 प्रतिशत का लक्ष्य गत 60 साल में नहीं हो सका पर यूपीए और एनडीए सरकार भी बीस साल से अपने घोषणा पत्र में वादे करती रही लेकिन यह आज तक नहीं हुआ पर स्वास्थ मंत्रालयों के बजट में यह वृद्धि 5 सालों में होगी लेकिन कोविड को देखते हुए देश को अगले साल ही बजट में काफी वृद्धि की जरूरत है। अगले साल जनवरी के आरंभ में ही बजट पेश होगा इसलिए माइनस में चली गई विकास दर को देखते हुए अब एक माह में बजट में अत्यधिक वृद्धि संभव नहीं दिखती।

रिपोर्ट से सरकार की कोविड की रोकथाम के दावों की कलई भी आंकड़ों से खुल जाती है। देश में सरकारी अस्पतालों में 7,14,986 बिस्तर हैं। यानी दो हज़ार की आबादी पर करीब एक बेड हैं। 12 राज्यों में तो यह औसत भी कम है। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हालात कितने बदतर हैं। अब जबकि कोविड की दूसरी लहर देश में आ गयी है यूरोप में तीसरी लहर भी चल रही है, तो इसे देखते हुए स्थिति चिंताजनक लगती है। 25 जुलाई के आंकड़ों के अनुसार, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली और झाझर में कुल 3515 बिस्तर थे तो कोविड के लिए 1515 बिस्तर निर्धारित किये गए, सफदरजंग अस्पताल में 2873 बिस्तरों में से 289 बिस्तर ही कोविड के लिए निर्धारित किये गए जबकि राम मनोहर लोहिया में 1572 बिस्तरों में से केवल 242 बिस्तर ही कोविड के लिए तय किये गए। समिति ने इस पर आपत्ति व्यक्त की है और पूरे देश के सरकारी अस्पतालों के बिस्तरों और कोविड बिस्तरों का आंकड़ा सरकार से मांगा है। रिपोर्ट में दिल्ली समेत 9 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्र के केंद्रीय अस्पतालों के बिस्तरों और कोविड बिस्तरों के आंकड़े दिए गए हैं। रेलवे ने 813 कोचों में 13, 472 बिस्तर कोविड के लिए दिए पर केवल 454 कोविड मरीज भर्ती किये गए।

समिति ने इन सभी मसलों पर सरकार से जवाब तलब किया और संतोषजनक उत्तर मांगा है। गत वर्ष मई में ही भारतीय चिकित्सा परिषद आईसीएमआर ने सार्स दो के बारे में एक सर्वे कराया था लेकिन लगता है सरकार ने उससे कोई अधिक सीख नहीं ली और जितनी सतर्कता बरतनी चाहिए थी उतने उसने नहीं बरती। 2017 में नई स्वास्थ्य नीति बनी लेकिन इन तीन सालों में बुनियादी ढांचा नहीं बना। देश मे वाजपयी सरकार कार्यकाल में जो नए एम्स बनाने की घोषणा हुई थी उसे बनाने में करीब 15 साल लग गए। इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है सरकार कोविड से रोकथाम कैसे करेगी? करीब 8 माह में हम कोरोना के 13 करोड़ जांच कर पाए। इस गति से तो पूरे देश मे सात साल लग जाएंगे।

समिति ने सरकार द्वारा बजट मद की राशि में कटौती पर भी चिंता व्यक्त की है। आईसीएमआर का वर्ष 2021 में बजट 2300 करोड़ रुपए का था लेकिन केवल 1795 करोड़ ही आवंटित हुए यानी 669 करोड़ कम आवंटित किये गए। देश की सर्वोच्च चिकित्सा संस्था को ही जब उसके बजट का पूरा पैसा नहीं मिल पाता है तो कोविड के खिलाफ लड़ाई वह कैसे लड़ेगा? चिकित्सा संबंधी विभिन्न परियोजनाओं में जो बजट रखा गया है, उसमें इस साल 7132 करोड़ 72 लाख कम आवंटित हुए।

जहां तक स्वास्थ्य क्षेत्र में शोध और अनुसंधान का सवाल है गत वर्ष सबसे कम राशि थी, यानी मात्र 1900 करोड़ रुपए का बजट था। इस वर्ष इसे बढ़ा कर 2100 करोड़ किया गया, लेकिन क्या इतने कम बजट में इतने बड़े देश मे शोध कार्य संभव है, खास कर कोविड की चुनौतियों को देखते हुए? समिति ने इसके लिए सरकार की आलोचना की है। यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार भारत मे शोध एवं अनुसंधान पर 0.65 प्रतिशत ही खर्च होता है। जबकि विश्व का औसत 1.72 प्रतिशत व अमेरिका में 2.84 प्रतिशत है। अमेरिका की जीडीपी भी भारत से कई गुना अधिक है और उसकी आबादी भी बहुत कम, जबकि भारत 130 करोड़ लोगों का देश है। इस से आप अपने देश का हाल का अंदाज़ा लगा सकते हैं। चीन भी 2.19 प्रतिशत खर्च करता है। समिति ने दो साल के भीतर विश्व औसत के बराबर शोध पर खर्च करने को कहा है पर क्या सम्भव हैघ्

भारत मे दस लाख की आबादी पर 252 अनुसंधानकर्ता हैं जबकि चीन में 1370। ऐसे में कोविड जैसे रोगों की रोकथाम में भारत बहुत कुछ नहीं कर सकता। चूंकि सारी जानकारी मीडिया के जरिये जनता तक कम पहुंचती है इसलिए देश के नेता लोगों को बहकाते हैं और उनको चुनाव में इनकैश कर लेते हैं।

आयुष्मान भारत मे डेढ़ लाख हेल्थ वेलनेस सेंटर बनाने की बात है। अगर ये बन पाए तभी तो गरीब लोगों को टीके लग पाएंगे। प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना और आयुष्मान भारत के लिए गत इस साल 6400 करोड़ आवंटित हुए पर बाद में केवल 3200 करोड़ ही जारी हुए। समिति ने इस पर कड़ी आपत्ति की है और कहा है कि पूरा फंड इस्तेमाल होने चाहिए। उसने अपनी 118वीं रिपोर्ट में भी यह बात कही थी लेकिन उसे अभी तक लागू नहीं किया गया। इसलिए सरकार रिपोर्ट को पूरी तरह लागू कर पाए इसकी संभावना कम लगती है। समिति ने निजी अस्पतालों द्वारा कोविड में मनमानी फीस वसूलने पर भी सरकार को फटकार लगाई है। टेस्ट तो अब सस्ते हुए हैं पर निजी अस्पताल लाखों रुपये इलाज के नाम पर वसूल रहे हैं। इस पर अंकुश क्या लगेगा लेकिन देश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी सेक्टर का विस्तार चिंताजनक है। 2090 तक निजी क्षेत्र का प्रतिशत 14 प्रतिशत था जो 2018 में बढ़कर 67 प्रतिशत हो गया। 78 प्रतिशत डॉक्टर निजी अस्पताल में हैं 63 प्रतिशत दवाईयां भी निजी क्षेत्र में हैं। ऐसे में क्या कोविड की रोकथाम अगले वर्ष हो पाएगी? कोविड अभी खत्म होने वाला नहीं है। यह अपने देश में साल तो रहेगा ही।

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