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दुनिया

अमेरिका के 20 लाख घरों में नहीं आता पानी तो 11 करोड़ लोगों तक पहुँचने वाला प्रदूषित और विषैला

Janjwar Desk
26 Jun 2020 11:30 AM GMT
अमेरिका के 20 लाख घरों में नहीं आता पानी तो 11 करोड़ लोगों तक पहुँचने वाला प्रदूषित और विषैला
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photo : google
10 वर्षों के भीतर अमेरिका में पानी की समस्या हो चुकी है विकराल, यहां पानी असमानता, गरीबी, प्रदूषण और व्यापार का बन चुका है पर्यायवाची....

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। हमारे प्रधानमंत्री रसातल में जा चुकी अर्थव्यवस्था के बाद भी 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की बातें करते हैं और जाहिर करते हैं मानो उसके बाद जनता की सारी समस्याएं हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगी। ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल किसी के भी मस्तिष्क में उठ सकता है, क्या अर्थव्यवस्था का विस्तार और जनता की सुविधाओं में कोई सम्बन्ध होता है?

आज की पूंजीवादी और बाजार पर टिकी अर्थव्यवस्था के दौर में इसका सीधा सा उत्तर है, नहीं। अर्थव्यवस्था के बढ़ने से देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती है और साधारण जनता और गरीब और सुविधाओं से वंचित हो जाती है। पिछले वर्ष के अंत तक हमारे देश की अर्थव्यवस्था 2.9 ट्रिलियन डॉलर की थी और इस समय देश में 102 अरबपति हैं, पर कोविड 19 के दौर में हम जनता की परेशानियां देख चुके। इस समय दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका की है, और भारत छठे स्थान पर है।

अमेरिका की अर्थव्यवस्था 21.5 ट्रिलियन डॉलर की है और वहां 614 अरबपति हैं और आबादी भारत से बहुत कम है। जाहिर है, वहां के नागरिकों को सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए, पर ऐसा नहीं है। दुनिया का सबसे शक्तिशाली और अमीर देश अमेरिका अपने सभी नागरिकों को पानी की आपूर्ति भी नहीं कर पाता है।

अमेरिका में लगभग 20 लाख लोगों के घर पानी नहीं आता और इनके घरों में मौलिक प्लम्बिंग की सुविधा नहीं है। इसके अतिरिक्त 3 करोड़ से अधिक आबादी के घरों में जो पानी आता है, वह सुरक्षित नहीं है। लगभग 11 करोड़ आबादी तक पहुँचने वाला पानी प्रदूषित है और इसमें विषैले रसायनों की भरमार है। लगभग 1.5 करोड़ आबादी को पानी का बिल नहीं भरने के कारण जल आपूर्ति की सुविधा से बेदखल कर दिया गया है। इन सबके बाद भी, अमेरिका में अरबों डॉलर की कमाई वाली बोतल-बंद पानी का बाजार साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है।

इन सभी चौकाने वाले आंकड़ों का खुलासा द गार्डियन ने अपनी एक रिपोर्ट में किया है, जिसे अनेक अमेरिकी संस्थानों के साथ मिलकर प्रकाशित करने की योजना है। लगभग 10 वर्ष पहले, संयुक्त राष्ट्र ने 28 जुलाई 2010 को, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत पानी को हरेक व्यक्ति का मौलिक अधिकार करार दिया था।

इसके अनुसार पानी का मतलब कैसा भी पानी नहीं बल्कि साफ, सुरक्षित और पर्याप्त मात्रा में पानी था। पर, इन दस वर्षों के भीतर ही अमेरिका में पानी की समस्या और विकराल हो गई। अब पानी असमानता, गरीबी, प्रदूषण और व्यापार का पर्यायवाची बन गया है।

पानी की कमी से सबसे अधिक प्रभावित ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब आबादी, अफ्रीकन अमेरिकन समुदाय, जनजातियाँ और प्रवासी आबादी है। यहाँ लोगों को पानी के अधिकार से वंचित कर खनन, कृषि और उद्योगों को प्राथमिकता दी जा रही है।

प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और पुराने जल-आपूर्ति तंत्र के बाद भी वर्ष 2010 से 2018 के बीच पानी के वार्षिक बिल में औसतन 80 प्रतिशत की बृद्धि हो गयी है, जिससे गरीब और माध्यम वर्ग की लगभग 40 प्रतिशत आबादी के पास इस बिल को भरने के पैसे नहीं हैं। कहीं-कहीं तो गरीबों की औसतन वार्षिक आय के 12 प्रतिशत से अधिक खर्च केवल पानी के बिल को भरने में चला जाता है।

इसी अवधि के दौरान जल आपूर्ति और सफाई के लिए मिलने वाली सरकारी मदद में लगभग 80 प्रतिशत की कटौती कर दी गई है। फ़ूड एंड वाटर वाच की वाटर जस्टिस एक्सपर्ट मैरी ग्रांट के अनुसार अमेरिका का हरेक क्षेत्र पानी के आपातकाल से जूझ रहा है, यहाँ पानी के बुनियादी ढाँचे में परिवर्तन की आवश्यकता है। पानी को किसी उत्पाद या फिर अमीरों की सुविधा के तौर पर नहीं देखना चाहिए।

अमेरिका में नस्लवाद और रंगभेद विरोधी आंदोलनों का एक बड़ा मुद्दा यह भी है, क्योंकि पानी की कमी से अफ्रीकन अमेरिकन, एशियाई और अल्पसंख्यक आबादी सबसे अधिक प्रभावित है। डेट्रॉइट की लगभग 80 प्रतिशत आबादी अफ्रीकन अमेरिकन और एशिया के लोगों की है, जाहिर है यहाँ पानी की किल्लत होगी और पानी का बिल नहीं भर सकने वाली आबादी भी अधिक होगी।

यहाँ पिछले 2 वर्षों के भीतर लगभग डेढ़ लाख घरों से जल आपूर्ति के कनेक्शन काटे जा चुके हैं। इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में चर्चा भी की जा चुकी है। दूसरी तरफ, पुराने और जर्जर जल-आपूर्ती ढाँचे के कारण अमेरिका में लगभग 6 अरब डॉलर मूल्य का पानी बर्बाद हो जाता है।

डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनाने के समय मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दिया था, और अब दुनिया उस महानता को प्यासे, भूखे, बेरोजगार, नस्लभेदी और सत्तालोभी राष्ट्रपति के तौर पर देख रही है, कट्टर पूंजीवाद में पानी और खाने की नहीं बल्कि जीडीपी की बात की जाती है।

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