कोरोना पर लापरवाही के लिए इटली के PM से वहां हुई 3 घंटे पूछताछ, क्या मोदी से भी कोई पूछेगा सवाल?
लोक अभियोजकों ने इटली के प्रधानमंत्री कोंटे से तीन घंटे की पूछताछ में लॉकडाउन पॉलिसी को लेकर कई सवाल किए। लोगों का आरोप है कि सरकारी लापरवाही की वजह से संक्रमण फैला।
जनज्वार ब्यूरो। कोरोना वायरस की महामारी को रोकने में लापरवाही के आरोप लगने के बाद इटली के प्रधानमंत्री ज्यूसेप कोंटे से लोक अभियोजकों ने तीन घंटे तक पूछताछ की। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक कोरोना संक्रमण से मारे गए गए लोगों के परिजनों ने शुक्रवार को मामला दर्ज करवाया था। इसके बाद न केवल प्रधानमंत्री बल्कि गृहमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री से भी लोक अभियोजकों के द्वारा लंबी पूछताछ की गई।
खबरों के मुताबिक लोक अभियोजकों ने प्रधानमंत्री कोंटे से तीन घंटे की पूछताछ में लॉकडाउन पॉलिसी को लेकर कई सवाल किए। लोगों का आरोप है कि सरकारी लापरवाही की वजह से संक्रमण फैला। सरकार ने समय रहते कोरोना वायरस के हॉटस्पाट को सील नहीं किया। प्रधानमंत्री से पूछताछ के साथ ही भारत में इस बात पर चर्चा होनी शुरु हो गई है कि इटली में स्वतंत्र निकाय किस तरह से काम कर रहे हैं।
वहीं इस बात को लेकर भी चर्चा होनी शुरु हो गई है कि क्या भारत में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार से भी क्या इसी तरह से सवाल किए जा सकते हैं? या यहां तक कि उनकी पार्टी की जिन राज्यों में सरकार है क्या वहां के मुख्यमंत्रियों से ऐसी पूछताछ की जा सकती है? शायद नहीं। बीते कुछ सालों से हो रही घटनाओं की ओर देखें तो उल्टे उससे सरकार की मंशा पर सवाल उठने शुरु हो गए हैं। आइए कुछ मामलों पर नजर दौड़ाते हैं।
पीएम केअर्स फंड की पारदर्शिता पर उठ रहे सवाल -
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में 28 मार्च को पीएम केअर्स फंड की स्थापना की गई थी। इसकी घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री ने कोरोना से जंग से निपटने के लिए लोगों से इस फंड में दान करने को कहा था। इसके चेयरपर्सन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जबकि वरिष्ठ केबिनेट सदस्य ट्रस्टी हैं। घोषणा के कुछ ही दिनों के भीतर इस फंड में बॉलीवुड अभिनेताओं से लेकर उद्योगपतियों ने करोड़ों रूपये जमा कर दिए। लेकिन इसके साथ सरकार की मंशा पर सवाल खड़े होने शुरू हो गए। सबसे पहले अप्रैल को खबर सामने आई जिसमें एनडीटीवी ने सीएजी कार्यालय के सूत्रों के हवाले से खबर दी कि भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की ओर से पीएम केअर्स फंड का ऑडिट नहीं किया जाएगा। सीएजी कार्यालय के सूत्रों ने कहा था कि चूंकि फंड व्यक्तियों और संगठनों के दान पर आधारित है, इसलिए हमें चैरिटेबल संगठन का ऑडिट करने का कोई अधिकार नहीं है।
ग्रेटर नोएडा के निवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत तोगड़ ने 21 अप्रैल 2020 को सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत एक आवेदन दायर किया था, जिसमें पीएमओ से पीएम केअर्स फंड की फाइलों को 'सार्वजनिक' करने समेत 12 बिंदुओं पर जानकारी मांगी गई थी। पीएमओ ने केवल छह दिन बाद 27 अप्रैल को एक जवाब भेजा जिसमें यह कहते हुए जानकारी देने से इनकार किया गया कि आवेदन में कई और विविध विषयों पर कई अनुरोध हैं जिसके परिणामस्वरूप जानकारी प्रदान नहीं की जा सकती है।
पीएमओ ने जवाब में लिखा था, 'आरटीआई अधिनियम के तहत आवेदक के लिए एक आवेदन में कई अनुरोधों की एक श्रृंखला पर तब तक जवाब नहीं दिया जा सकता है जब तक इन अनुरोधों को अलग से नहीं माना जाता है और तदनुसार भुगतान किया जाता है।
इसके बाद बेंगुलुरु स्थित अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में एलएलएम की छात्रा हर्षा ने भी आरटीआई के जरिए पीएम केअर्स फंड के ट्रस्ट डीड और इसके गठन और संचालन से संबंधित सभी सरकारी आदेशों, अधिसूचनाओं और परिपत्रों की प्रतियां मांगी थीं जिसके जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा कि सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा 2 (एच) के तहत पीएम केअर्स फंड 'सार्वजनिक प्राधिकरण' (Public Authority) नहीं है। हालांकि इस जवाब के बाद सोशल मीडिया पर इस बात की भी चर्चा रही कि जब पीएम केअर्स फंड सार्वजनिक प्राधिकरण नहीं है तो इसका प्रचार सरकार की आधिकारिक वेबसाइट में क्यों किया जा रहा है।
यही नहीं इसके बाद जब दिल्ली हाईकोर्ट में अधिवक्ता देबप्रियो मुलिक और आयुष श्रीवास्तव के माध्यम से दायर की गई एक याचिका में जब पीएम केअर्स फंड को सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित करने की मांग की गई तो प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से इस पर कोर्ट में आपत्ति दर्ज की गई।
गुजारात हाईकोर्ट के जज को मजदूरों की सुनवाई वाले बेंच से हटाया-
11 मई को जस्टिस इलेश वोरा ने मजदूरों के प्रति रवैये को लेकर गुजरात की रूपाणी सरकार की तीखी आलोचना की थी। उन्होंने अहमदाबाद में सिविल अस्पतालों की व्यवस्थाओं को नरकीय बताया था। इसके बाद जस्टिस इलेश वोरा को सरकार ने उस बेंच से हटा दिया था जो मजदूरों की समस्याओं को लेकर सुनवाई कर रही थी। उससे पहले कोरोना और उससे निपटने को लेकर जनहित याचिकाएं दाखिल हो रही थी तो अहमदाबादा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस इलेश वोरा को सुनवाई को अधिकार था। बता दें कि गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य भी है जहां से उनकी राजनीतिक शुरुआत हुई है। इसके अलावा राज्य में लंबे समय सत्ता में भाजपा की सरकार है।
आरोग्य सेतु ऐप से जनता की प्राइवेसी में सेंध का खतरा-
कोरोना महामारी जब देश में अपने पैर पसार रही थी तभी इस बीच सरकार ने कोरोना ट्रेसिंग के नाम पर आरोग्य सेतु नाम की एक ऐप को 2 अप्रैल 2020 को लॉन्च कर दिया। इस ऐप को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के द्वारा लॉन्च किया गया। इसके साथ ही इसे कई सार्वजनिक जगहों जैसे रेलवे में ट्रैवलिंग के दौरान इसे अनिवार्य रूप से डाउनलोड करने के लिए कहा जाने लगा। इसके साथ एक बार फिर सरकार की मंशा पर लोगों की प्राइवेसी से छेड़छाड़ सवाल खड़े होने लगे। दरअसल इस बीच एक फ्रैंच हैकर रॉबर्ट बैप्टिस्ट ने इस ऐप में सेंध लगाने का दावा किया। रॉबर्ट बैप्टिस्ट ने एक ट्वीट में आरोग्य सेतु ऐप को टैग करते हुए कहा था, 'आरोग्य सेतु ऐप की सिक्योरिटी में खामी मिली है। 9 करोड़ भारतीय यूजर्स की प्राइवेसी खतरे में है, क्या आप प्राइवेट में कॉन्टैक्ट कर सकते हैं।'
यही नहीं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीएस श्रीकृष्ण ने भी इसको लेकर सवाल खड़े किए थे। उन्होंने कहा था कि अरोग्य सेतु के इस्तेमाल को अनिवार्य करना गैर-कानूनी है। किसी पर भी इसके लिए दबाव नहीं बनाया जा सकता कि वह इसका इस्तेमाल करें। न्यायूमर्ति श्रीकृष्ण व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक मसौदे की समिति के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। उन्होंने कहा था कि जो कदम उठाने का दावा हो रहा है, वह डेटा की सुरक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें कई सारी खामियां है। यह देखने में तो अच्छा लग रहा है, लेकिन यदि डेटा लीक होता है तो जिम्मेदार कौन होगा?
इसके अलावा हरियाणा स्टेट केमिस्ट एसोसिएशन ने आरोग्य सेतु पर विदेशी दवा कंपनियों के उत्पाद के प्रचार का आरोप लगा कर इस ऐप को एक बार फिर से विवादों में ला दिया था। एसोसिएशन के अध्यक्ष मनजीत शर्मा ने बताया था कि इस ऐप से विदेशी दवा कंपनियां अपने उत्पाद का प्रचार कर रही है। विदेशी कम्पनियों के माध्यम से ऑनलाइन दवा व्यपार करने वाली कई कम्पनियों की ऐड /विज्ञापन इस ऐप पर देखे जा सकते हैं। सरकार ने इस ऐप को मोबाइल में डाउन लोड करना जरूरी कर रखा है। ऐप पर पहले ही सवाल उठ रहे थे। विशेषज्ञों का भी कहना है कि ऐप से निजी जानकारी लीक होने का खतरा है।
फंसे हुए प्रवासी मजदूरों का घर वापसी का संकट-
कोरोना वायरस का संक्रमण जब देश में फैल रहा था तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिना किसी पूर्व नियोजित तरीके से राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी। इस घोषणा के मात्र कुछ घंटों के भीतर राष्ट्रव्यापील लॉकडाउन लागू हो गया। लाखों-करोड़ो दिहाड़ी मजदूर देश के भिन्न-भिन्न इलाकों में अपनी-अपनी जगहों पर फंस गए। मजदूरों के सामने आजीविका के संकट खड़ा हो गया। लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूरों दूसरे राज्यों से अपने राज्यों की ओर पैदल चलने लगे। इस दौरान पैदल चल रहे मजदूरों पर पुलिस की ओर से बर्बर तरीके लाठीचार्ज और उत्पीड़न के मामले भी सामने आयी। स्थिति यहां तक पहुंच गई कई गर्भवती मजदूर महिलाएं भी देश के दूसरे हिस्सों से पैदल ही अपने गांवों तक पैदल पहुंचीं। यह मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में भी खूब सुना गया।
वहीं इस मसले पर देश की सुप्रीम कोर्ट की ओर से हस्तक्षेप किया गया तो प्रवासी मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए श्रमिक ट्रेनों की व्यवस्था की गई। श्रमिकों से रेलवे टिकट का पैसा भी लिया गया। इन श्रमिक ट्रेनों में भी कहीं भूख से मजदूरों के मौत की खबरें आईं तो कहीं रेलवे ट्रैक पर सो रहे मजदूरों के कटने की खबर भी सामने आईं। कटिहार रेलवे स्टेशन पर मजदूरों को बिल्कुट को लेकर झीनाझपटी की घटना हुई जो काफी वायरल हुई। इसके अलावा प्रवासी मजदूरों के साथ सबसे क्रूर मजाक का मामला तो तब सामने आया जब श्रमिक ट्रेनें अपने गंतव्य से दूसरे स्थानों तक पहुंचने लगी।
वहीं इस बीच बिहार चुनाव को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने बिहार चुनाव के लिए वर्चुअल रैली करनी शुरू कर दी। इसके साथ बिहार के अलग-अलग इलाकों में गरीबों के बीच 72000 एलईडी स्क्रीन लगाने की खबरें भी सामने आईं। इसके साथ ही सवाल उठने शुरू हो गए कि जब भाजपा 72000 एलईडी स्क्रीन लगा सकती है तो प्रवासी मजदूरों के लिए 72 बसों का इंतजाम क्यों नहीं कर सकी।