कोरोना महामारी ने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च सबको किया फालतू साबित, विज्ञान ही आया काम
हमारे देश में वैज्ञानिक चेतना बहुत दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती, समाज में पथरी, पीलिया, कैंसर का इलाज से लेकर सामान्य बुखार और दस्त के इलाज भी झाड़-फूंक से ही होते रहते हैं। शर्तिया लड़का होने की दवा धड़ल्ले से बिकती है....
वरिष्ठ लेखक प्रेमपाल शर्मा का विश्लेषण
जनज्वार। विज्ञान और वैज्ञानिक सोच समझ के चलते दुनियाभर में यह यकीन लौट रहा है कि कोरोनावायरस पर जल्दी जीत मिलेगी। पहली बार दुनिया का कोई देश इस महामारी से अछूता नहीं रहा और यह भी पहली बार हो रहा है कि लोगों की आस्था चर्च मंदिर मस्जिद या दुनियाभर के धर्म द्वीपों से हटकर विज्ञान और उसकी प्रयोगशालाओं की तरफ लौटी है।
इसका तुरंत असर शिक्षा व्यवस्था और विशेषकर विज्ञान की शिक्षा पर पड़ना लाजिमी है। निश्चित रूप से आर्थिक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी बदलाव आएगा लेकिन इन सब बदलावों की बुनियाद में रहेगी शिक्षा और उसका चरित्र। इसी शिक्षा के बूते नौजवान पीढ़ी को रोजगार मिलेगा और उसी के बूते देश का विकास। मनुष्य के इतिहास ने इसे बार-बार सिद्ध किया है।
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यूरोप के पुनर्जागरण को याद करें! लगभग 500 वर्ष पहले इसी वैज्ञानिक सोच तर्कशक्ति का अंजाम था भौतिकी रसायन से लेकर डार्विन के विकासवाद तक के सिद्धांत। पोप और उनके धर्मावलंबियों को चर्च तक सीमित कर दिया गया और कोलंबस, वास्कोडिगामा, कप्तान कुक विज्ञान के रथ पर बैठकर निकल पड़े दुनिया को जीतने।
भारत की खोज भी यूरोपियों के लिए उसी अभियान का हिस्सा थी और वैसे ही अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के दीपों की, लेकिन विज्ञान सफल तो तभी होगा जब आपके स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली पीढ़ी उसे समझेगी और आगे बढ़ाएगी। कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड और दूसरे विश्वविद्यालय इन्हीं खोजों, शोध और सिद्धांत के लिए दुनियाभर में मशहूर हुए, जिसे कुछ उपनिवेशवाद कहते हैं वह उन देशों के लिए नए रोजगार नए साम्राज्य की तलाश थी।
भारत, चीन जैसे देशों की सभ्यता हजारों साल पुरानी जरूर थी, लेकिन वे विज्ञान के आगे कहीं नहीं टिक पाए। उन्हें गुलाम होना पड़ा और इस गुलामी से मुक्ति मिली दूसरे विश्वयुद्ध के बाद। पहले और दूसरे विश्व युद्ध में भी विज्ञान की पताका ही फहराई। बड़े-बड़े रासायनिक उद्योग, ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री हवाई जहाज, परमाणु बम से लेकर पेनिसिलिन और दूसरी दवाएं। यानी जितना बड़ी घटना होगी, होमो सेपियंस की जिजीविषा बताती है उतने ही बड़े बदलाव होंगे।
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कोरोनावायरस की महामारी को तो मनुष्य जाति के ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी परिघटना माना जा रहा है। भारत में लॉकडाउन और दूसरे कदम तुरंत उठाते हुए अभी तक अद्वितीय सूझबूझ का परिचय दिया है। अंजाम भी सामने हैं। दुनिया की 22% आबादी वाले देश में महामारी का प्रकोप 2% से भी कम है, लेकिन यही वक्त है उत्तर कोरोना काल के लिए तुरंत तैयार रहने का। इसमें जो जीता वाही सिकंदर!
दुनियाभर के वैज्ञानिक अभी भी ऐसी संभावनाओं से घिरे हुए हैं कि जब तक इस वायरस की कोई मुकम्मल काट नहीं खोज ली जाती और दुनियाभर में यदि एक भी व्यक्ति उस से संक्रमित रहता है तो इसकी वापसी फिर वैसा ही कहर ढा सकती है।
हम सबने देश के लाखों मजदूरों को हाल ही में सड़कों पर रोते-बिलखते देखा है और वह अभी भी है। एक एक पल ऐसे ही निर्वासन में आधा पेट काट रहे हैं। पूरी व्यवस्था के लिए शर्मनाक! अच्छी बात यह है कि देश के डॉक्टर, नर्स, पुलिस जान की परवाह न करते हुए इसके मुकाबले के लिए अग्रिम मोर्चे पर तैनात हैं।
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लेकिन भविष्य तो शिक्षा में बुनियादी बदलाव से ही संभव है। शिक्षा के बुनियादी बदलाव में विज्ञान की वैसे ही वापसी करनी होगी, जैसे 1957 में शीत युद्ध के दौर में रूस के अंतरिक्ष विज्ञान में आगे बढ़ने की भनक ने अमेरिका की विज्ञान नीति को सदा के लिए बदल डाला था। या पिछले दो दशक में चीन ने विज्ञान और तकनीकी के बूते युद्ध, शोध, शिक्षा, रोजगार, राजनय उद्योग के हर समीकरण बदल दिए हैं।
कोरोनावायरस चीन से शुरू जरूर हुआ है, लेकिन विज्ञान के बूते ही चीन पर उतना असर नहीं हुआ जितना सारी दुनिया पर। यहां तक कि उत्तर कोरोना काल में चीन अपने विज्ञान और शिक्षा के बूते और बेहतर ढंग से दुनिया पर कब्जे की तरफ अग्रसर है। पिछले वर्ष चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कांग्रेस में चीन ने 2035 और 2050 तक दुनिया पर छा जाने की मुनादी पहले ही कर रखी है और हर क्षण वह उसी रास्ते पर बढ़ रहा है। हमारा सबसे नजदीकी और विपक्षी पड़ोसी होने के नाते यह हमारे लिए और भी बड़ी चुनौती है।
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पुरानी कहावत का सहारा लें तो लोहा ही लोहे को काट सकता है, यानी 21वीं सदी में विज्ञान, तकनीकी की चुनौतियों को विज्ञान और तकनीकी से ही परास्त करने की जरूरत है धर्म के काढ़े से नहीं। यह अटकलबाजी जरूर चल रही है कि दुनियाभर की बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन का विकल्प भारत में खोज रही हैं। यह हकीकत से बहुत दूर की कौड़ी है। क्या हमारे पास ज्ञान विज्ञान में चीन की टक्कर की पढ़ी-लिखी पीढ़ी है?चीन के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं?
एशिया के दस सर्वश्रेष्ठ में चीन के चार, दो हॉंगकॉंग के। दुनिया के पहले सौ में उनके आठ, हम पांच सौ में मुश्किल से। हम भले ही दुनिया की सबसे नौजवान आबादी पर फक्र करते रहें, उस आबादी के बारे में हाल ही में एक प्रसिद्ध ग्लोबल एजेंसी ने दावा किया है कि हमारे ग्रेजुएट में से 60% किसी काम के नहीं है। ना उनके पास तकनीकी स्किल हैं न दूसरे सामान्य सूझबूझ। सिर्फ सर्टिफिकेट बांटने से हम चीन का मुकाबला नहीं कर सकते।
श्रम सस्ता जरूर है बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए, लेकिन गुणवत्ता यदि नहीं मिली तो वे फिर चीन की तरफ ही लौटेंगे। चीन में लोकतंत्र की कमी, तानाशाही, सूचनाओं पर पाबंदी, उनका कम्युनिस्ट होना यह सब बातें चीन में पहले से ही लगातार रही हैं और इसके बावजूद भी यूरोप अमेरिका की कंपनियां अपने मुनाफे और बाजार की खातिर चीन की शरण में ही जाती रही हैं। इसलिए इसका मुकाबला शिक्षा में आमूल परिवर्तन से ही संभव है। स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों तक की।
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वैसे तो कोरोनावायरस ने अमीरों को अमेरिका यूरोप भागने से डरा दिया है, लेकिन देश की सत्ता के लिए यही मौका है उनकी टैलेंट और ऊर्जा को राष्ट्र के निर्माण की तरफ रोकने का।
मौजूदा वक्त को चौथी क्रांति कहा जाता है, यानी कि ज्ञान की इंटरनेट और दूसरे माध्यमों से असीमित उपलब्धता। पहली तीन क्रांतियों में भारत कई कारणों से फिसड्डी साबित हुआ है, लेकिन मौजूदा कोरोना ने पढ़े-लिखे लोगों से लेकर गांव-देहात तक प्लाज्मा, न्यूमोनिया, बैक्टीरिया, वैक्सीन, एंटीबॉडीज, मास्क, आरोग्य सेतु जैसे वैज्ञानिक शब्दों को पहुंचा दिया है।
यानी विज्ञान की बुनियादी बातें साफ-सफाई, बीमारियों के कारण, शारीरिक दूरी, स्वावलंबन रोज मीडिया जन जन तक पहुंचा रहा है। इन सब बातों को तुरंत पाठ्यक्रम और दूसरे मंचों के जरिए नई पीढ़ी के दिमाग में एक सहज तर्क से डालने की जरूरत है। मौजूदा पाठ्यक्रम रटने से शिक्षा का सड़ा हुआ चौखटा नहीं टूटने वाला। ऑनलाइन शिक्षा में भी इससे बचना होगा और इसके लिए शिक्षकों के दिमाग और समाज को भी बदलने की जरूरत तुरंत है।
अफसोस की बात है कि हम आजादी के बाद वैज्ञानिक चेतना के नारे तो दीवारों पर लिखते रहे हैं, समाज में वैज्ञानिक चेतना बहुत दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। वहां पथरी, पीलिया, कैंसर का इलाज से लेकर सामान्य बुखार और दस्त के इलाज भी झाड़-फूंक से ही होते रहते हैं। शर्तिया लड़का होने की दवा धड़ल्ले से बिकती है।
पुराने ज्ञान, आयुर्वेदिक प्रणाली आदि को नए वैज्ञानिक ढंग से दुनियाभर के सामने आजमाने और प्रस्तुत करने की जरूरत है और साथ ही नई वैज्ञानिक खोजों को भी तुरंत आत्मसात करने की। रोजगार भी उन्हीं को मिलेगा जो ऐसी वैज्ञानिक शिक्षा से सुसज्जित हों। अप्रैल 2020 के अंत में खबर है कि बिहार, यूपी के आधे जिलों में जितने कोरोना के मरीज़ हैं उतने आईसीयू, बिस्तर, अस्पताल नहीं। लाखों किट चीन से आयात की हैं, वे भी घटिया निकलीं। काश हम ये किट अपने लिये भी बना पाते और दुनिया के लिए भी। लाखों को रोजगार भी मिलता।
विज्ञान पढ़ाने का पूरा ढंग बदलना होगा और तुरंत। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हजारों डिग्री धारी सर्टिफिकेटों के बावजूद भी कोरीना की वैक्सीन के शोध में भारत की किसी प्रयोगशाला का नाम दुनिया में नहीं गिना जा रहा। उसके साफ कारण हैं हमारी शिक्षा और विश्वविद्यालय की पढ़ाई के रंग ढंग। आजादी के पहले भी विज्ञान और शोध की स्थिति ब्रिटिश दौर में कहीं बेहतर थी।
सीवी रमन, प्रफुल्ल चंद्र रे, जगदीश चंद्र बसु, मेघनाथ साहा, सत्येंद्र बोस की गिनती दुनिया के वैज्ञानिकों में होती थी। आजादी के बाद हर बीते दशक में विज्ञान और शोध में हम पिछड़े हैं। जो भी कुछ मूल शोध हो पाया है, वह तभी जब इस देश के मेधावी वैज्ञानिक दूसरे देशों में बस गए हैं। इसीलिए कुछ दिनों पहले 2009 के नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकट रामकृष्णन ने भारत में वैज्ञानिक शोध की स्थितियों को मजाक उड़ाते हुए इसे सर्कस का नाम दिया था।
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कहां तो यूरोप का उदाहरण है, जहां ऑस्ट्रिया का पादरी जोसेफ ग्रिगोर मेंडल अपनी आनुवंशिकी सिद्धांत, प्रयोग, प्रमाणों के आधार पर डेढ़ सौ वर्ष पहले फादर ऑफ जेनेटिक्स बनता है और कहां 21वीं सदी का भारत जहां के इंजीनियर डॉक्टर अपने अंधविश्वासों और वैज्ञानिक मान्यताओं के चलते पादरी पंडों जैसा व्यवहार करते हैं।
ऐसे नाजुक वक्त में भी एक कवि की दो पंक्तियां यह कहकर चारों तरफ फैलाई जा रही हैं कि हमने तो 400 वर्ष पहले ही ऐसे चमगादड़ की भविष्यवाणी कर दी थी। अफसोस की बात कि वायरस शब्द उन्होंने मौजूदा शब्दावली से उठाकर उस कविता में ठूंस दिया।
ऐसे शब्द, अंधविश्वास, किवदंती, गप्पे हर धर्म में फैले हुए हैं। वह चाहे यूरोप हो, ईरान हो पाकिस्तान हो या भारत में तबलीगी गुरु। उत्तर कोरोना काल में धर्म ग्रंथों की विदाई का वक्त भी आ गया है और इसी रास्ते समाज की और भी बड़ी बाधायें जाति-धर्म से भी मुक्ति मिल सकती है। जो राष्ट्र समाज इसे जितना जल्दी समझेंगे उत्तर कोरोना काल में जीत उन्हीं की होगी।