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कोविड -19

वैज्ञानिकों को नहीं रखा जाता हाशिये पर तो महामारी नहीं बनती कोरोना, भारत में भी दूसरी लहर नहीं होती हावी

Janjwar Desk
31 May 2021 1:28 PM GMT
वैज्ञानिकों को नहीं रखा जाता हाशिये पर तो महामारी नहीं बनती कोरोना, भारत में भी दूसरी लहर नहीं होती हावी
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हमारे देश में कोविड 19 की दूसरी घातक लहर से होने वाले नुकसान वायरस से अधिक वैज्ञानिकों की चेतावनियों की उपेक्षा का परिणाम

वैज्ञानिक कोविड 19 के तथ्यों को लगातार उजागर करते रहे और सरकार लगातार उन पर परदे डालती रही, इस काम में केवल सरकारें ही नहीं, बल्कि देश की मीडिया, न्यायपालिका और सभी संवैधानिक संस्थाएं बराबर की भागीदार हैं...

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। याद कीजिये, पिछले वर्ष बिहार के चुनावों के ठीक पहले कोविड 19 के मामले पूरे देश में रहस्यमय तरीके से कम होने लगे थे, इससे होने वाली मौतों का आंकड़ा अचानक लगभग नगण्य होने लगा था। इसके बाद बिहार में चुनाव कराये गए और फिर पश्चिम बंगाल समेत 5 राज्यों और पुदुचेरी में चुनाव संपन्न हुए। पश्चिम बंगाल के दूसरे चरण का चुनाव होते-होते बाकी सभी जगह के चुनाव ख़त्म हो गए।

इसके बाद कोविड 19 का भयावह दौर आया। इस समय फिर यही सिलसिला चल रहा है, उत्तर प्रदेश के चुनाव पर बीजेपी की बड़ी-बड़ी बैठकें शुरू हो चुकी हैं, और कोविड 19 के मामले फिर से रहस्यमय तरीके से कम होने लगे हैं। जाहिर है, जैसे ही उत्तर प्रदेश के चुनावों का दौर शुरू होगा, फिर से इसके मामले और भी तेजी से बढेंगे।

पूरे कोविड 19 के दौर में सबसे अधिक हाशिये पर वैज्ञानिक धकेले गए हैं। वैज्ञानिक तथ्यों को लगातार उजागर करते रहे और सरकार लगातार उन तथ्यों पर परदे डालती रही। इस काम में केवल सरकारें ही नहीं, बल्कि देश की मीडिया, न्यायपालिका और सभी संवैधानिक संस्थाएं बराबर की भागीदार हैं। तभी तो रामदेव इतनी हिम्मत से सभी वैज्ञानिकों का, चिकित्सकों का और यहाँ तक की पूरे स्वास्थ्य तंत्र का खुलेआम कर रहे हैं और सरकार, मीडिया, न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थाएं इसका समर्थन करती नजर आ रही हैं।

सरकार के विरुद्ध बोले गए एक भी वाक्य का स्वतः संज्ञान लेने वाली न्यायपालिका की इस मसाले पर खामोशी उसकी मंशा जाहिर कर देती है। देश के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने सरकारों को ऑक्सीजन, मरीजों की पर्याप्त चिकित्सा और टीकाकरण से सम्बंधित आदेश और निर्देश दिए हैं, इनमें से सभी मामले उसी चिकित्सा पद्धति से जुड़े हैं, जिसका रामदेव खुलेआम मजाक उड़ा रहे हैं, फिर भी न्यायपालिकाओं को यह अवमानना का मामला नहीं लगता, इससे अधिक आश्चर्य और क्या हो सकता है।

अपने देश की सरकार से तो कोई ऐसी उम्मीद भी व्यर्थ है, क्योंकि जिस देश के प्रधानमंत्री से लेकर सभी मंत्री और सत्तापक्ष के नेता बारी-बारी से कोविड 19 के उपचार से सम्बंधित अफवाह और झूठी खबरें उड़ा रहे हों, वहां कोई उम्मीद तो बचती ही नहीं है। इस देश को यदि कोविड 19 से सही में पार पाना है तो देश के स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन और नीति आयोग के कोविड टास्क फोर्स के अध्यक्ष के के पॉल से छुटकारा पाना होगा, पर ऐसा फिलहाल संभव नहीं है। वैसे भी जिस सरकार का पूरा दिन केवल विपक्ष को कोसने में बीतता हो, उसे देश की समस्या समझने की फुर्सत कहाँ होगी।

यदि आपको लगता है कि कोविड 19 के मामलों का देश के शासकों से कोई सम्बन्ध नहीं है, तो फिर आप कम से कम अमेरिका की हालत ही देख लीजिये। जब तक ट्रम्प राष्ट्रपति रहे, कोविड 19 के मामले और इससे होने वाली मौतें अनियंत्रित रहीं। यह हालात तब सुधारे जब जो बाइडेन ने राष्ट्रपति पद संभाला। इस समय अमेरिका में कोविड 19 के मामलों में जो राष्ट्रपति के सलाहकार हैं, उन्होंने ट्रम्प के शासन के दौरान भी इस पद को संभाला था, पर उनकी सलाह को ट्रम्प ने कभी नहीं माना, फिर फाउची ने सलाहकार पद से इस्तीफ़ा दे दिया। फाउची स्वयं एक वाईरोलोजिस्ट हैं, और साथ में अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक भी हैं।

सभी दक्षिणपंथी निरंकुश शासक वैज्ञानिक विचारधारा की कितनी अवहेलना करते हैं, इसका उदाहरण कोविड 19 के इलाज के लिए मलेरिया के इलाज में काम आने वाली क्लोरोक्विन है। सबसे पहले इसका नाम ट्रम्प ने उछाला, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर अमेरिका के साथ पूरे दुनिया के वैज्ञानिक इसे इलाज में कारगर नहीं मानते थे। ट्रम्प द्वारा इसे प्रचारित करने के बाद भारत के प्रधानमंत्री मोदी और ब्राज़ील के राष्ट्रपति बोल्सेनारो सरीखे निरंकुश शासक इसके प्रचार में जुट गए, और वैज्ञानिकों के विरोध के बाद भी इसे कोविड 19 के इलाज में शामिल करते रहे।

भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि सुधारने के लिए अपने देश की जरूरत को ताक पर रखकर वैक्सीन मैत्री के रास्ता चुना है, उसी तरह पहले क्लोरोक्विन मैत्री का रास्ता चुना था, और अमेरिका, ब्राज़ील, मेक्सिको सरीखे देशों को इसका खूब उपहार भेजा। आप ध्यान दीजिये, एक समय मोदी जी देश को बता रहे थे कि क्लोरोक्विन भेजकर वे दुनिया की मदद कर रहे हैं और हम विश्वगुरु बन रहे हैं, पर अब कभी चर्चा भी नहीं करते।

दुनिया में वैज्ञानिकों का एक समूह ऐसा भी है, जो सामान्यतया कोई अनुसंधान नहीं करते बल्कि समय और परिस्थिति के अनुसार झूठे और अपर्याप्त आंकड़ों के साथ शोधपत्र प्रकाशित करते हैं और कुछ समय के लिए ही सही, पर अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर लेते हैं। कोविड 19 के शुरुआती दौर में जब दुनिया इसके इलाज के सन्दर्भ में असमंजस में थी, तब ऐसे अनेक शोधपत्र प्रकाशित किये गए थे और क्लोरोक्विन के अफवाह का मामल भी ऐसा ही था। इसकी शुरुआत हमेशा विवादों से घिरे रहने वाले फ्रांस के वैज्ञानिक डॉ डिडिएर रौलट का एक शोधपत्र था, जिसमें उन्होंने कोविड 19 के इलाज के लिए क्लोरोक्विन की वकालत की थी।

इस शोधपत्र के प्रकाशित होने सप्ताह भर के भीतर ही, दुनियाभर के वैज्ञानिकों ने इस शोधपत्र को झूठ का पुलिंदा करार दिया था, पर तब तक इस शोधपत्र के निष्कर्ष की भनक ट्रम्प को लग चुकी थी, और वे इसका खुलेआम प्रचार करने लगे थे। ट्रम्प के बाद मोदी जी भी क्लोरोक्विन का अंतरराष्ट्रीय दुष्प्रचार करने लगे।

फ्रांस के जिस वैज्ञानिक डॉ डिडिएर रौलट ने यह शोधपत्र प्रकाशित किया था, बाद में वैज्ञानिकों ने उनके लगभग हरेक शोधपत्र को विज्ञान के नाम पर खिलवाड़ करार दिया था। नीदरलैंड की वैज्ञानिक डॉ. एलिसाबेथ बिक दुनियाभर में वैज्ञानिक शोधों में गलत तरीकों को अपनाने और गलतियों को उजागर करने के लिए विख्यात हैं। बहुर सारे वैज्ञानिक जर्नल और संस्थाओं की वे सलाहकार हैं। इन्होंने ही सबसे पहले डॉ डिडिएर रौलट के शोधपत्र के झूठ और भ्रामक निष्कर्ष को उजागर किया था। इसके बाद डॉ एलिसाबेथ बिक ने इन वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित पहले के 62 शोधपत्रों का भी बारीकी से विश्लेषण किया और लगभग हरेक शोधपत्र वैज्ञानिक कसौटियों पर खरे नहीं उतरते थे।

फ्रांस के वैज्ञानिक डॉ डिडिएर रौलट को फ्रांस और यूरोपीय संघ के देशों में भी कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, इसीलिए क्लोरोक्विन के उपयोग को अमेरिका, भारत और ब्राज़ील में मान्यता मिलने के बाद भी फ्रांस या यूरोपीय संघ के देशों में कभी मान्यता नहीं दी गईं। हास्यास्पद यह है कि तमाम घपलों से वैज्ञानिक शोध को बदनाम करने वाले फ्रांस के वैज्ञानिक डॉ डिडिएर रौलट ने फ्रांस की अदालत में डॉ एलिसाबेथ बिक के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया है।

इसके बाद से डॉ एलिसाबेथ बिक के समर्थन में फ्रांस के ही 500 से अधिक वैज्ञानिकों ने फ्रांस सरकार और सम्बंधित न्यायालय को पत्र लिखा है, और अब डॉ डिडिएर रौलट के खिलाफ याचिका दायर करने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसा ही ऑस्ट्रेलिया के 100 से अधिक वज्ञानिक सम्मिलित तौर पर कर रहे हैं। हाल में ही दुनियाभर के 1000 से अधिक वैज्ञानिकों ने डॉ एलिसाबेथ बिक के समर्थन में खुला पत्र लिखते हुए इसे वैज्ञानिक समुदाय पर कुठाराघात बताया है।

हमारे देश में भी कोविड 19 की दूसरी घातक लहर से होने वाले नुकसान वायरस से अधिक वैज्ञानिकों की चेतावनियों की उपेक्षा का परिणाम है। वैज्ञानिकों ने फरवरी के अंत में ही सरकार को दूसरे लहर की चेतावनी दी थी, जिसे सरकार ने डस्टबिन में फेक दिया था। कोविड 19 के जीनोम से सम्बंधित वैज्ञानिक कमेटी से हाल में ही अध्यक्ष शहीद जमील ने इस्तीफ़ा दिया है, उन्होंने भी सरकारी अकर्मण्यता की बात कही है। हमारे देश में वैज्ञानिकों की उपेक्षा वैसे भी कोई नई बात नहीं है।

पर सरकारों द्वारा विज्ञान और वैज्ञानिक तथ्यों को नकारने का आम जनता पर पड़ते दुष्प्रभाव का उदाहरण हाल में ही यूरोपीय देश बेल्जियम में देखने को मिला। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि इटली और स्पेन को छोड़कर दूसरे यूरोपीय देशों की तरह बेल्जियम में कोविड 19 का सफल प्रबंधन नहीं किया गया था। हाल में ही बेल्जियम में तैनात एक कट्टरपंथी विचारधारा वाले सैनिक ने अपने पूरे हथियार के साथ एक वाईरोलोजिस्ट मार्क वनरोस्ट के घर जाकर उनके साथ मारपीट की और जान से मारने की धमकी भी दी। वाईरोलोजिस्ट मार्क वनरोस्ट का कसूर इतना था कि वे हरेक शाम पूरे समुदाय को कोविड 19 के कारण, इससे बचाव और टीकाकरण के फायदे पर संबोधित करते थे, और यह कट्टरपंथी विचारधारा को पसंद नहीं था।

कोविड 19 काल को समाज में बहुत सारे बदलाव के लिए हमेशा याद किया जाएगा, और इसमें विज्ञान और वैज्ञानिकों की उपेक्षा भी शामिल होगा। यह उपेक्षा किसी एक देश तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक समस्या बन चुकी है।

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