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पर्यावरण

महासागरों के सबसे निचले हिस्सों में मानव निर्मित प्लास्टिक बरपा रहा कहर, मगर नहीं चेत रहा है इंसान

Janjwar Desk
14 May 2021 6:00 AM GMT
महासागरों के सबसे निचले हिस्सों में मानव निर्मित प्लास्टिक बरपा रहा कहर, मगर नहीं चेत रहा है इंसान
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प्रतीकात्मक फोटो

तापमान वृद्धि के कारण हजारों वर्षों से ध्रुवों पर जमी बर्फ की चादर ख़त्म होती जा रही है और इसके पिघलने पर पानी महासागरों के माध्यम से पूरी दुनिया में पहुँच रहा है....

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की​ टिप्पणी

जनज्वार। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि एक ऐसी समस्या है, जिसके नाम पर दुनियाभर में निरंतर बड़े अधिवेशन आयोजित किये जाते हैं, दुनियाभर की सरकारें अपने आप को इसके रोकथाम के लिए सजग बताती हैं, अंतरराष्ट्रीय समझौते किये जाते हैं – और इन सबके बीच यह समस्या लगातार पहले से अधिक विकराल होती जाती है। दुनियाभर के तमाम वैज्ञानिक भी इसके लगातार नए प्रभाव उजागर करते हैं।

अप्रैल 2021 में ही वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि तापमान वृद्धि और भूजल के अत्यधिक दोहन से पृथ्वी के ध्रुवों की देशा बदल रही है, और इसके बाद दूसरे अनुसंधान से यह स्पष्ट है कि वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के अनियंत्रित उत्सर्जन के कारण वायुमंडल में पराबैंगनी किरणों को रोकने वाले समतापमंडल (stratosphere) की मोटाई सिकुड़ रही है। एक अन्य अनुसन्धान के अनुसार तापमान वृद्धि के कारण वायुयानों में उड़ते समय तेजी से हिलने या हलचल की दर तीनगुना अधिक बढ़ जायेगी।

जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वर्ष 1980 के बाद से पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव अपनी जगह से हटकर 4 मीटर पूर्व में पहुँच गया है। यह तथ्य वैज्ञानिकों को पता था, पर अब तक इसका कारण प्राकृतिक माना जाता था। पर चाइनीज अकादमी ऑफ़ साइंसेज के वैज्ञानिक शंशन डेंग के अनुसार इसका कारण तापमान वृद्धि के कारण दोनों ध्रुवों पर पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारी मात्रा में बर्फ का पिघलना और दुनियाभर में भूजल का अनियंत्रित उपयोग है।

दरअसल पृथ्वी समेत किसी भी वस्तु का ध्रुव पूरी सतह पर भार के वितरण से तय होता है। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के कारण हजारों वर्षों से ध्रुवों पर जमी बर्फ की चादर ख़त्म होती जा रही है और इसके पिघलने पर पानी महासागरों के माध्यम से पूरी दुनिया में पहुँच रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में ध्रुवों का वजन कम हो रहा है और दूसरी तरफ यह वजन महासागरों में बहने लगा है।

इस शोधपत्र के अनुसार जैसे-जैसे तापमान वृद्धि की दर बढ़ रही है, पृथ्वी के ध्रुवों के अपनी जगह से हटाने की दर भी बढ़ रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 1981 से 1995 की तुलना में वर्ष 1996 से 2020 तक पृथ्वी के ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघलने की दर कई गुना बढ़ी, जिसके कारण ध्रुवों के अपने जगह से विस्थापित होने की दर में 17 गुना अधिक वृद्धि हो गयी।

वैज्ञानिक शंशन डेंग के अनुसार केवल ग्लेशियर के पिघलने से ही भूमि पर वजन का असमान वितरण नहीं हो रहा है, बल्कि भूजल का दुनियाभर में अंधाधुंध दोहन भी यही काम कर रहा है। अनुमान है कि पिछले 50 वर्षों के दौरान 18 ट्रिलियन टन से अधिक भूजल का दोहन किया गया है, और इसकी भरपाई नहीं की जाती। भूजल जमीन के अन्दर गहराई से आता है और उपयोग के बाद नदियों के माध्यम से महासागरों तक पहुंचता है। इससे भी पृथ्वी के ध्रुवों का विस्थापन संभव है।

एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता अधिक होने के कारण वायुमंडल की महत्वपूर्ण परत समतापमंडल सिकुड़ रही है। समतापमंडल पृथ्वी से 20 किलोमीटर से 60 किलोमीटर ऊपर है, और इसी में ओजोन परत होती है जो सूर्य से आने वाली पराबैगनी किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है।

अध्ययन के अनुसार समतापमंडल वर्ष 1980 के बाद से 400 मीटर से अधिक सिकुड़ चुकी है, और यदि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन ऐसी ही होता रहा तो फिर वर्ष 2080 तक समतापमंडल 1 किलोमीटर से अधिक सिकुड़ चुका होगा। इससे उपग्रहों की दक्षता, रेडियो कम्युनिकेशन और ग्लोबल पोजिशनिंग बताने वाला जीपीएस व्यवस्था प्रभावित होगी।

अध्ययन के अनुसार वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड गर्म होकर फैलता है और फिर समतापमंडल को ऊपर की तरफ धकेलता है। वैज्ञानिकों को पहले से ही अनुमान था कि समतापमंडल सिकुड़ रहा है, पर अनुमान था कि इसका कारण ओजोन परत का वायरल होना है। नया अध्ययन बताता है कि इसका कारण ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती सांद्रता है।

अधिकतर वैज्ञानिक पृथ्वी के इस दौर को मानव युग का नाम दे रहे हैं, क्योंकि पूरे भ्रह्मांड में मानव के चिह्न मिलने लगे हैं। मानव की करतूतें पृथ्वी के ध्रुवों को विस्थापित कर रही हैं, पृथ्वी से 60 किलोमीटर ऊपर समतापमंडल सिकुड़ रहा है और महासागरों के सबसे निचले हिस्सों में मानव निर्मित प्लास्टिक कहर बरपा रहा है। फिर भी हम सचेत नहीं हो रहे हैं।

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