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सम्बल मस्जिद के बाद अजमेर दरगाह, भारतीय राजनीति-न्यायपालिका ने पैदा किया ऐसा भस्मासुर जो समाज में धार्मिक विभाजन को बना रहा और गहरा
वरिष्ठ लेखक राम पुनियानी की विशेष टिप्पणी
After Sambal Violence Ajmer Dargah Survey : सन 1980 के दशक में देश में शांति-व्यवस्था और प्रगति पर गम्भीर हमले हुए. साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ एक नया औज़ार लग गया. वे देश के पूजास्थलों के कथित अतीत का उपयोग साम्प्रदायिकता भड़काने के लिए करने लगे. लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली. उनकी मुख्य मांग यह थी कि जिस स्थल पर पिछले पांच सदियों से बाबरी मस्जिद खड़ी थी, ठीक उसी स्थल पर एक भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जाना चाहिए. इस मुद्दे पर बढ़ती कड़वाहट और तनाव के मद्देनज़र संसद ने एक नया कानून पारित किया जिसके तहत पूजास्थलों की जो प्रकृति 15 अगस्त 1947 को थी, उसे बदला नहीं जा सकेगा और वही बरकरार रहेगी.
बाबरी मस्जिद मामले में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को उचित ठहराया और यह भी कहा कि भविष्य में देश में शांति बनाए रखने की दिशा में यह कानून एक महत्वपूर्ण कदम है. सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने को अपराध बताया और यह भी कहा कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई मन्दिर दबा हुआ है. ‘सबरंग’ में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि “एक शीर्ष पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर सुप्रिया वर्मा, जो सन 2000 के दशक में बाबरी मस्जिद की भूमि पर हुई पुरातात्विक खुदाई में, एक अन्य पुरातत्वविद जया मेनन के साथ पर्यवेक्षक थीं, ने एक विवादास्पद बयान में कहा था कि मस्जिद के नीचे कोई मन्दिर तो था ही नहीं बल्कि अगर हम बारहवीं सदी से और पीछे जाकर चौथीं या छठवीं सदी अर्थात गुप्तकाल की बात करें तो ऐसा लगता है कि वहां एक बौद्ध स्तूप था.”
बाबरी मस्जिद को दक्षिणपंथी ताकतों के नेतृत्व में ढहाया गया था. ढहाने वाले नारे लगा रहे थे, “ये तो केवल झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है.” कुछ समय पहले काशी और मथुरा में सर्वेक्षण की बात कही गई थी. यह इसके बावजूद कि प्लेसेस ऑफ रिलीजियस वर्शिप एक्ट 1991 इसे प्रतिबन्धित करता है. जस्टिस चन्द्रचूड़ ने यह कहकर एक मुसीबत खड़ी कर दी है कि अधिनियम पूजास्थलों की प्रकृति में परिवर्तन को तो प्रतिबंधित करता है, मगर वह उनके सर्वेक्षण पर रोक नहीं लगाता. उन्होंने यह भी कहा कि हिन्दुओं को यह जानने का हक़ है कि जहां कोई मस्जिद खड़ी है, वहां पहले क्या था. इससे तोड़े-मरोड़े गए और काल्पनिक इतिहास का उपयोग अपने एजेण्डा को आगे बढ़ाने वालों की बन आई.
पहले उन्होंने कहा कि अगर अयोध्या, काशी और मथुरा में मस्जिदों के नीचे दबे मन्दिरों को उन्हें सौंप दिया जाता है तो वे अन्य पूजास्थलों के सम्बन्ध में यह मांग नहीं करेंगे, मगर अब स्थिति यह है कि अलग-अलग अदालतों में कम से कम 12 मस्जिदों और दरगाहों के सर्वेक्षण की मांग करते हुए याचिकाएँ लंबित हैं. इसके अलावा कमाल मौला मस्जिद, बाबा बुधनगिरी दरगाह, हाजी मलंग दरगाह आदि पर भी हिन्दुओं द्वारा दावे किए जा रहे हैं. सम्बल की जामा मस्जिद के बाद सदियों पुरानी अजमेर दरगाह पर भी हिन्दू सेना नामक एक नए संगठन द्वारा दावा किया जा रहा है. यह संगठन शायद इसी काम के लिए बनाया गया है.
इन सभी मामलों में कुछ दस्तावेजों का हवाला दिया जाता है, और अक्सर ये दस्तावेज शंकास्पद होते हैं. इनमें से कई मामलों में ब्रिटिश शासकों की अत्यन्त संदेहास्पद भूमिका रही है. जैसे, ‘बाबरनामा’ के अपने अनुवाद में बीवरिज ने बिना किसी प्रमाण के एक फुटनोट डाल दिया, जिसमें कहा गया था कि मस्जिद के नीचे कोई मन्दिर हो सकता है. इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के असंख्य उदाहरण हैं. इसी तरह मन्दिरों को तोड़ने के भी अनेक कारण थे, जिनमें मुख्य थे उनकी सम्पत्ति को लूटना और हारे हुए राजा को बेइज्जत करना.
अगर हम इतिहास की बात करें तो अनेक बौद्ध विहारों को धार्मिक कारणों से नष्ट किया गया. स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, “जगन्नाथ मंदिर एक पुराना बौद्ध मन्दिर है. हमने इस पर और कई अन्य बौद्ध मन्दिरों पर कब्ज़ा कर लिया और उनका पुनर्हिन्दूकरण किया...”. अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी दयानन्द सरस्वती, आदि शंकाराचार्य के योगदान की चर्चा करते हुए लिखते हैं, “उन्होंने 10 साल तक पूरे देश का भ्रमण किया, जिस दौरान उन्होंने जैन धर्म का खंडन किया और वैदिक धर्म की पैरोकारी की. जमीन खोदने पर जो टूटी-फूटी मूर्तियां इन दिनों मिलती हैं वे शंकर के समय तोड़ी गई थीं और जो साबुत मिलती हैं उन्हें जैनियों ने खुद इस डर से ज़मीन में गाड़ दिया था कि उन्हें तोड़ दिया जाएगा.”
प्राचीन भारतीय इतिहास के बौद्ध नरेटिव के अनुसार, मौर्य राज्यवंश के बौद्ध राजा बृहद्रथ की हत्या उसके ही सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा ईसा पूर्व 184 में की गई थी. इसके साथ एक सम्मानित और प्रतिष्ठित बौद्ध राजवंश (सम्राट अशोक भी जिसमें शामिल थे) का अंत हुआ और शुंग कुल के शासन की शुरूआत हुई. प्राचीन भारतीय इतिहास के लब्ध प्रतिष्ठित अध्येता डी. एन. झा लिखते हैं कि एक प्राचीन बौद्ध रचना ‘दिव्यवदाना’, जो संस्कृत में है, में वर्णित है कि बौद्धों के पीड़क पुष्यमित्र शुंग ने किस तरह अनेकानेक बौद्ध और जैन धार्मिक स्थलों को ढहाया था.
ऐसा बताया जाता है कि वो एक विशाल सेना के साथ पाटलीपुत्र से निकला और पूरे रास्ते स्तूपों को नष्ट करता गया. उसने बौद्ध विहारों को आग के हवाले कर दिया और बौद्ध भिक्षकों को मौत के घाट उतार दिया. वो पाटलीपुत्र से लेकर सकाल (जिसे अब सियालकोट कहा जाता है) तक गया और वहां पहुंचकर उसने यह घोषणा की कि किसी भी श्रमण व्यक्ति का कटा हुआ सिर लाने वाले को इनाम दिया जाएगा.
झा बताते हैं कि मथुरा, जो कुषाण युग में एक समृद्ध व्यापारिक केन्द्र था, वहां के कुछ मन्दिर जैसे भूतेश्वर और गोकरणेश्वर प्राचीन काल में बौद्ध पूजास्थल थे.
इतिहास की जो समझ हमारे समाज में है वह हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतों द्वारा गढ़ी गई है. इसकी जड़ में है अंग्रेज़ों की फूट डालो और राज करो की नीति जिसके अंतर्गत उन्होंने इतिहास का साम्प्रदायिक लेखन करवाया. इस इतिहास लेखन में राजाओं को उनके धर्म का प्रतिनिधि बताया जाता है. इस इतिहास लेखन का फोकस मध्यकाल पर है जिस दौरान देश में कई मुस्लिम शासक हुए.
जो चीज़ भुला दी जाती है और जिसे हमारी याददाश्त से मिटाने की कोशिश की जा रही है वह यह है कि औरंगज़ेब ने असम के कामाख्या देवी मन्दिर और उज्जैन के महाकाल मंदिर को भारी धनराशि भेंट के रूप में दी थी. हम यह भी जानते हैं कि हिन्दू राजा हर्षदेव ने देवोत्पतननायक नामक अधिकारी की नियुक्ति की थी, जिसका काम था मन्दिरों की मूर्तियां उखाड़ कर उनके नीचे दबी दौलत को लूटना. यह बात कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में कही गई है. इसी तरह यह भी भुला दिया जाता है कि मराठा राजाओं ने श्रीरंगपटनम में एक मंदिर को नष्ट कर दिया था. मध्यकाल में धर्म का इस संदर्भ में कोई विशेष महत्व नहीं था. धार्मिक स्थलों को लूटने और तोड़ने के पीछे धार्मिक कारण नहीं थे. इसके विपरीत मौर्यकाल के अंत के बाद बौद्ध धर्म को उखाड़ फेंकने के लिए बौद्धविहारों को नष्ट किया गया था.
भारतीय राजनीति और न्यायपालिका ने एक भस्मासुर पैदा कर दिया है, जो समाज में धार्मिक विभाजन को और गहरा बना रहा है. आज हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें हर मस्जिद को खोदकर देखना चाहिए कि उसके नीचे क्या कोई मन्दिर है? या फिर हमें पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में ‘आधुनिक मन्दिरों’ का निर्माण करना चाहिए. भाखड़ा नंगल बाँध की नींव रखते हुए पंडित नेहरू ने वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थाओं, इस्पात कारखानों, बिजली घरों और बाँधों को आधुनिक मन्दिर बताया था. हम आधुनिक मन्दिरों का निर्माण करेंगे या मस्जिदों के नीचे मन्दिर ढूंढते रहेंगे, इस पर ही हमारे देश की नियति निर्भर करेगी.
(मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे इस लेख का हिंदी अनुवाद अमरीश हरदेनिया ने किया है। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)