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'कुछ समय और जारी रहता लॉकडाउन तो भूख से मरने वालों में पहला नम्बर वकीलों का होता'
लॉकडाउन में वकालत के पेशे से जुड़े लोगों की मुश्किलों को बयां करती मोतिहारी से हुसैन ताबिश की विशेष रिपोर्ट
जनज्वार। 'लाॅकडाउन में अधिवक्ताओं की हालत रिक्शा चालक और दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर हो गई थी। दिहाड़ी खेतिहर मजदूरों को लाॅकडाउन में भी काम मिल रहा था, उन्हें सरकार की तरफ से मुफ्त और सस्ते दर पर अनाज एवं कैश की सहायता मिल रही थी, लेकिन वकीलों का काम आठ महीने तक बिल्कुल बंद रहा। उन्हें किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली।' यह कहते हुए मोतिहारी (पूर्वी चंपारण) सिविल कोर्ट में सिविल मामलों के अधिवक्ता विजय कुमार इमोशनल हो जाते हैं।
वह आगे कहते हैं, 'सरकार विधि व्यवसायी यानी वकील को कल्याणकारी योजनाओं से वंचित कर देती है। सरकार की नजर में विधि व्यवसायी आर्थिक रूप से एक संपन्न पेशेवर होता है, लेकिन वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। हम रोज कमाने और खाने वाले लोग हैं। प्रैक्टिस करने वाले 80 प्रतिशत अधिवक्ता आर्थिक रूप से कमजोर हैं। वकालत के अलावा उनकी आय का कोई दूसरा साधन नहीं है। लाॅकडाउन के कारण वकीलों की कमर टूट गई, अगर यह कुछ दिन और जारी रहता तो भूख से मरने वाले लोगों में सबसे पहला नम्बर अधिवक्ता समाज का ही आता।'
केंद्र की मोदी सरकार द्वारा कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए भारत में 24 मार्च से 30 जून तक पांच चरणों में देशभर में लाॅकडाउन लगाया गया था। हालांकि पांचवे चरण के लाॅकडाउन से ही काफी रियायतें भी दी जाने लगी थीं। सरकार ने 8 जून से तीन चरणों में धीरे-धीरे सार्वजनिक स्थानों को खोलने और वहां नागरिकों की आवाजाही की छूट दे दी थी। इसके बावजूद लाॅकडाउन के दौरान और उसके बाद देश में बहुत कुछ बदल चुका है। लाॅकडाउन और उसके बाद न सिर्फ देश का विकास और उसकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुई और देश में बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी बढ़ने के साथ आर्थिक विषमता की खाई चौड़ी हुई है, बल्कि इसके साथ ही देश के कई संवैधानिक संस्थाओं को भी नुकसान पहुंचा है और वह कमजोर हुई हैं।
लाॅकडाउन के बाद कुछ अति आवश्यक किस्म के आपराधिक मामलों में न्यायालय द्वारा जमानत देने की कार्यवाही को अगर दरकिनार कर दिया जाए तो गंभीर अपराध, परिवार, पाॅक्सो व अन्य दिवानी मामलों की सुनवाई के लिए अदालतें पूरी तरह बंद रहीं। वकीलों, वादी-प्रतिवादी, गवाहों, तरह-तरह के वेंडरों और दुकानदारों से हमेशा गुलजार रहने वाले कोर्ट परिसर मुर्दा शांति में तब्दील हो गया।
पूरे लाॅकडाउन के दौरान देश के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त बिना किसी भेदभाव के न्याय पाने के अधिकारों से अगर वंचित होना पड़ा, तो इस न्यायिक प्रक्रिया में अपनी सहभागिता निभाकर अपना जीविकोपार्जन करने वाले वर्गों को भी तालाबंदी का गंभीर दुषप्रभाव झेलना पड़ा है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि अधिवक्ता समाज जो दूसरों को न्याय दिलाने और उसके आवाज को बुलंद करता है, वही समाज लाॅकडाउन के दौरान घोर सरकारी और सामाजिक उपेक्षा का शिकार रहा। अधिकांश वकीलों की माली हालत रोजाना होने वाली मुकदमों की सुनवाई और अपने मुवक्किलों से रोज होने वाली आमदनी पर ही निभर्र करती है। लॉकडाउन में कोर्टों में तालाबंदी से यह तबका बुरी तरह प्रभावित हुआ और इसे किसी तरह की सहायता भी नहीं मिली।
अधिवक्ता मानस पाण्डेय की आंखों में कोरोनाकाल में झेली तकलीफें झलकने लगती हैं, कहते हैं 'वकील समाज सबसे अधिक कष्ट सहने वाला वर्ग है। कोरोना में भी सर्वाधिक परेशानी नए वकीलों को हुई। वह किराए के घर पर शहर में रहते हैं। बैंक से ईएमआई पर बाइक खरीद कर चलते हैं। मोतिहारी में 200 से अधिक ऐसे वकील थे जो कोरोनाकाल में काम बंद होने के कारण वापस गांव चले गए। कई लोगों पर मकान मालिक और राशन दुकानदारों का बकाया है। कोरोना संकट में अधिवक्ताओं ने अपनी जमा पूंजी खर्च कर दी। आर्थिक तंगी के कारण बेटियों के विवाह टल गए, बेटे की पढ़ाई छूट गई। बीमार वकीलों को समय से इलाज नहीं मिल पाया।'
मानस पाण्डेय एक नई बात बताते हैं, 'लाॅकडाउन के दौरान भले ही सरकार ने वकीलों के लिए कोई व्यवस्था नहीं की हो लेकिन वकील के मुवक्किलों ने उन्हें कई तरह से मदद की है। गांव के रहने वाले कई क्लाइंट ने शहर में रहने वाले अपने वकीलों को अनाज, सब्जियां और दूध तक पहुंचाया है।'
'लॉकडाउन में हम वकालत के साथ घर पर सुबह-शाम साइंस के 12वीं के छात्रों को कोचिंग देते थे। लाॅकडाउन में वकालत बंद होने के साथ मेरा कोचिंग भी बंद हो गया था। आमदनी के दोनों स्रोत एक साथ समाप्त हो गए। गांव में घर है, लेकिन वहां आना-जाना कम हो गया था, इसलिए संकट के समय गांव जाना उचित नहीं लगा। वहां भी मेरे परिवार का खर्चा कौन उठाता? हमारे लिए एक-एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था। पत्नी के जेवर तक बेचने पड़ गए। भगवान यह दिन किसी को न दिखाए।' यह कहते हुए अधिवक्ता धीरज सिंह का गला भर आता है।
धीरज झेंपकर अपनी नजरें चुराते हुए कहते हैं, लाॅकडाउन के कारण अधिवक्ता समाज के अधिकांश लोग दस साल पीछे चले गए हैं। उन्हें संभलने में काफी समय लगेगा। आर्थिक हालात खराब होने और समय पर इलाज न मिलने पर कुछ अधिवक्ताओं की असमय मृत्यु भी हो गई।
राजीव कुमार द्विवेदी, कन्हैया सिंह, नरेंद्र देव, ध्रुव पाण्डेय, शम्भू सिंह, सतीश प्रसाद सिन्हा, कामेश्वर प्रसाद सिन्हा, जयराम सिंह और मोहम्मद कासिम शहर के टाॅप वकीलों की श्रेणी में आते हैं। इन टाॅप-10 वकीलों में तीन वकील ओबीसी वर्ग से संबंध रखते हैं। हालांकि इन तीनों के सरनेम सवर्ण जातियों जैसे हैं। इनके पास सभी आधुनिक तकनीकी सुविधाएं और जूनियर वकीलों की पूरी टीम है। सर्वाधिक कलाइंट इन्हीं वकीलों के पास हैं। लाॅकडाउन के दौरान भी इनके पास काम की कमी नहीं थी। वर्चुअल कोर्ट और सुनवाई के लिए इनके पास मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध था। यही वजह है कि लाॅकडाउन के दौरान थोड़े-बहुत जो काम हो रहे थे उनमें इन्हीं टाॅप वकीलों की संलग्नता थी, शेष वकील पूरे लाॅकडाउन के दौरान इस सीमित न्यायिक प्रक्रिया से दूर ही रहे। इसका कारण यह था कि अधिकांश वकीलों के घरों में स्मार्ट फोन, कंप्यूटर, लैपटाॅप और इंटरनेट की सुविधा नहीं थी। अगर किसी के पास ये सुविधाएं थी भी तो वह उनका प्रयोग करना नहीं जानते थे। इसलिए वर्चुअल कोर्ट और सुनवाई से ऐसे वकील खुद को जोड़ नहीं पाए।
ओबीसी, अति पिछड़ा व अन्य वर्गों के जो वकील हैं उनमें अगर 10 लोगों को छोड़ दिया जाए तो शेष अधिवक्ता मेडिओकर श्रेणी के हैं और उनकी प्रैक्टिस बहुत अच्छी नहीं चलती है।
अधिवक्ता कुमार कुंज रमण कहते हैं, 'यहां कोर्ट परिसर में रोजाना 500 से लेकर 2000 तक कमाने वाले अधिवक्ताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। इससे ऊपर जाएं तो रोजाना 5 हजार, 20 हजार और फिर कुछ लोगों की प्रतिदिन लाखों की इनकम है। हालांकि ऐसे लोगों की संख्या गिनती की है। इसे अधिवक्ताओं की मासिक औसत कमाई नहीं मानी जा सकती है। कचहरी में कुछ ऐसे भी अधिवक्ता हैं, जिन्हें किसी दिन एक रुपये की भी कमाई नहीं होती है।'
अधिवक्ता प्रभु सहनी कहते हैं, 'कुछ वकीलों को छोड़ दें तो सवर्ण समाज के भी अधिकांश अधिवक्ताओं की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। लाॅकडाउन में उन सभी की कमर टूट गई है, लेकिन उनकी फटेहाली घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं आ पाई, जबकि बहुजन समाज के वकीलों की हालत किसी से छुपी नहीं है। लाॅकडाउन के दौरान मेरे एक परिचित अधिवक्ता ने मुंह में गमछा बांधकर आटो चलाने और एक ने साइकिल पर फल बेचने तक का काम किया है।'
महिला वकीलों की हालत और लॉकडाउन की परेशानियां
सिविल मामलों की वकील और डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन की पूर्व ज्वाइंट सेक्रेटरी सुजाता सिंह कहती हैं, 'मेरे पति एक पाॅलिटेकनिक काॅलेज में अतिथि व्याख्याता के तौर पर पढ़ाते थे, लाॅकडाउन में काॅलज बंद होने के कारण उनकी नौकरी भी छूट गई। आर्थिक संकट के कारण मैं गहरे तनाव में चली गई थी। बड़ी मुश्किल से इस संकट से उबर पाई हूं।' सुजाता सिंह आगे कहती हैं, मेरे तीन बच्चें हैं जो अभी पढ़ाई कर रहे हैं। मोतिहारी से बाहर जाकर उनके बच्चों की पढ़ाई की योजना इसलिए टाल दी गई है क्योंकि घर की माली हालत अभी ठीक नहीं है।
मोतिहारी कोर्ट में महिला अधिवक्ताओं की संख्या काफी कम होने के पीछे क्या वजह है? सुजाता कहती हैं, 'सच पूछिए तो यह पेशा महिलाओं के लिए है ही नहीं। कोई भी महिला शौक से कोर्ट नहीं आती है। कोई न कोई मजबूरी के तहत ही वह इस पेशे को अपनाती है और फिर इसे जारी रखती है।'
सुजाता सिंह के अुनसार, 'पुरुष अधिवक्ताओं की तरह महिला वकील भाग दौड़ नहीं कर सकती है। वह उस अनुपात में सक्रिय नहीं हो पाती हैं, जितने की यहां जरूरत है। क्लाइंट तो यहां पकड़ना पड़ता है। वह खुद चलकर आपके पास नहीं आता है।' एक दूसरी समस्या की तरफ इशारा करते हुए वह कहती हैं, 'मुवक्किलों को महिला अधिवक्ताओं पर पुरुष अधिवक्ताओं के मुकाबले थोड़ा कम भरोसा होता है। उन्हें इस बात का संशय रहता है कि महिला वकील मुकदमा जीत सकेगी या नहीं? कई बार एक महिला वकील के मुकदमा लड़ने के बावजूद साथ में एक पुरुष वकील भी लोग रख लेते हैं। जब इसी बात को सुूजाता सिंह से कैमरे पर बोलने का उनसे आग्रह किया जाता है तो वह इंकार कर देती हैं और अपनी तस्वीर लेने से भी मना कर देती हैं।
इसी कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाली महिला अधिवक्ता रितु कुमारी सुजाता सिंह के बयान से इत्तेफाक नहीं रखती हैं। वह कहती हैं, 'आज महिला हर क्षेत्र में अच्छा कर रही है। अपनी अलग पहचान और मुकाम बना रही है। महिला अधिवक्ताओं को खुद में यह आत्मविश्वास पैदा करना होगा। मैं तो सात सालों से प्रैक्टिस कर रही हूं, लेकिन मुझे कभी कोई दिक्कत नहीं हुई है।'
वहीं वरिष्ठ अधिवक्ता कुमारी आशा कहती हैं, ''मैं क्रिमिनल मामलों के मुकदमे देखती हूं। मुझे कभी किसी तरह की दिक्कत महसूस नहीं हुई। लाॅकडाउन के दौरान भी हमें बहुत ज्यादा परेशानी इसलिए नहीं हुई, क्योंकि हमारे दो लड़के दिल्ली में प्राइवेट नौकरी करते हैं और भगवान की दया से उनकी नौकरी कोरोनाकाल में भी सुरक्षित थी।' हालांकि कुमारी आशा मानती हैं कि यह उनके हमपेशा वकीलों के लिए निहायत ही बुरा दौर था। वह कहती हैं कि आजकल लोग एक दूसरे से आपसी समस्याएं साझा नहीं करते हैं, इसलिए अधिवक्ताओं को होने वाले आर्थिक संकट के वास्तविक स्थिति का आकलन या उसकी जानकारी लेना कठिन है, लेकिन यह भी सच है कि लाॅकडाउन के दौरान कई वकीलों के घर दाना-पानी तक की आफत थी।
मुस्लिम महिला वकील मासूम जन्नत बताती हैं, लाॅकडाउन और उसकी वजह से अदालतों में तालाबंदी उनके लिए किसी मनहूस यादों की तरह है, जिसे भूलने में अरसा लगेगा। लाॅकडाउन के वक्त मुझे कुछ सप्ताह की मुझे प्रेग्नेंसी थी। इस वक्त मुझे पैसों की कुछ ज्यादा जरूरत थी, लेकिन मेरी आमदनी अचानक बंद हो गई। मुश्किलें कभी भी अकेले नहीं आती हैं, जब आती हैं तो एक साथ कई परेशानियां आती हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। मेरे पति जावेद आबिद पाॅल्ट्री फाॅर्मिंग का बिजनेस करते हैं। लाॅकडाउन में अफवाहें फैल गई कि चिकन खाने से कोरोना संक्रमण हो रहा है, इसलिए लोगों ने चिकन खाना बंद कर दिया। मेरे पति के फाॅर्म की मुर्गियां बिकनी मुश्किल हो गई। पाॅल्ट्री का कोई खरीदार नहीं था और मुर्गियां बड़ी होती जा रही थीं। मुर्गी जितनी बड़ी होती है वह उतना ही ज्यादा दाना खाने लगती है। हमारे फाॅर्म की मुर्गियां रोजाना 20 हजार का दाना खा रही थी। ऐसे में या तो उन मुर्गियों को मारना पड़ा या फिर जबर्दस्ती लोगों को मुफ्त में बांटना पड़ा।'
जन्नत कहती हैं, 'मेरे पति का लाखों का नुकसान हो गया। उनकी जमा पूंजी समाप्त हो गई और महीनों तक पाॅल्ट्री फाॅर्मिंग का व्यवसाय बंद रहा। घर की माली हालत बेहद खराब हो गई, लेकिन ऊपर वाला बहुत बड़ा है, अब हम उस खराब दौर से धीरे-धीरे उबर रहे हैं।' मासूम जन्नत शहर के कुछ वरिष्ठ और संपन्न अधिवक्ताओं की तारीफ भी करती हैं, जिन्होंने लाॅकडाउन के दौरान जरूरतमंद वकीलों की मदद की थी।
मोतिहारी सिविल कोर्ट में महिला वकीलों की कम भागिदारी पर जन्नत कहती हैं, 'मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी इसलिए कम है, क्योंकि यहां शिक्षा का स्तर न्यूनतम है। इस समाज की महिलाएं तो हर क्षेत्र में कम दिखती है, तो यहां भी उनकी भागिदारी स्वाभाविक तौर पर कम होगी ही। हालांकि समग्र रूप से महिला अधिवक्ताओं की कमी पर वह एक समस्या की तरफ इशारा करती हैं कि 'कोर्ट परिसर वुमन फ्रैंडली नहीं है। यहां जो वकीलों को बैठने की जगह मिलती है, उसके ऊपर छप्पड़ या प्लास्टिक की चादर तानकर नीचे अपनी कुर्सियां और टेबुल लगाना होता है। यह न तो गर्मियों के मौसम के लिहाज से ठीक रहता है, न ही सर्दी के मौसम के हिसाब से। अगर बारिश हो जाए तो यहां की कच्ची जमीन पर कीचड़ हो जाता है। यहां बैठना और यहां आना-जाना सब दूभर हो जाता है। यहां ऐसा कोई महिला काॅमन रूम नहीं है जहां महिला वकील जाकर पल-दो पल के लिए बैठ सके, आराम कर सके। कोर्ट परिसर में महिलाओं के लिए पर्याप्त संख्या में टाॅयलेट नहीं है, जो हैं भी वह इतने गंदे रहते हैं कि उनमें जाना सेहत के लिहाज से ठीक नहीं है। यहां कोई फर्स्टएड या मेडिकलकिट की भी व्यवस्था नहीं रहती है। अगर किसी महिला वकील के पास दूध पीता बच्चा हो तो वह कोर्ट परिसर में उसे कहां दूध पिलाएगी? निजी कंपनियां और कई राज्यों की सरकारें अपने दफ्तरों में महिला काॅमन रूम बना रही है तो सरकारें कोर्ट-कचहरी परिसर में ऐसा क्यों नहीं कर रही है?'
जन्नत कहती हैं, 'आप मुझे ही देख लीजिए मैं दो घंटे से ज्यादा देर कोर्ट में नहीं रुक पाती हूं। मुझे दो घंटे बाद ही अपने बच्चे को दूध पिलाने जाना पड़ता है।' जन्नत चाहती हैं कि समाज की महिलाएं इस पेशे में आएं। खासकर वह मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों को वकालत के पेशे में देखना चाहती हैं। वह कहती हैं, बदलाव एक दिन में नहीं आता है, लेकिन हमें इसके लिए मुसलसल कोशिशें करती रहनी चाहिए। मोतिहारी कोर्ट में कई अन्य महिला अधिवक्ताएं भी थीं, लेकिन वह सुजाता सिंह, कुमारी आशा और जन्नत की तरह खुलकर बातचीत करने से हिचकिचाती हुई दिखीं।
आर्थिक हालात बिगड़ने पर तनाव में हुई कई वकीलों की मौत
लाॅकडाउन के दौरान मोतिहारी सिविल कोर्ट के दो अधिवक्ताओं मनोरंजन कुमार श्रीवास्तव और अनिरूद्ध प्रसाद सिंह की कोरोना से मौत हो गई। मनोरंजन के पिता अशोक कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, 'मनोरंजन अतिरिक्त आय के लिए अपनी पत्नी की आईडी पर सहारा इंडिया के लिए भी काम करता था। 2017 में एक बीमारी में उसकी पत्नी की मौत हो गई थी। कोरोनाकाल में कोर्ट बंद होने के कारण उसे आर्थिक तंगी ने घेर लिया था। वह काफी तनाव में चल रहा था। सितंबर में मनोरंजन की करोना से मौत हो गई। कोरोना से मरने पर सरकार की ओर से मिलने वाला चार लाख का मुआवजा अभी तक मनोरंजन के परिवार को नहीं मिला है। मनोरंजन के दो लड़के और एक लड़की है, जिनकी परवरिश उनके दादा अशोक श्रीवास्तव कर रहे हैं।
सिविल कोर्ट में मनोरंजन के साथी अधिवक्ता विवेक तिवारी बताते हैं, 'मनोरंजन आर्थिक रूप से बहुत परेशान चल रहे थे। वह पैसों के लिए बीमार होने के बावजूद कोर्ट चले आते थे। जिस दिन उनकी मृत्यु हुई थी, उससे एक दिन पहले भी वह बुखार की हालत में कोर्ट चले आए थे। उनका पूरा शरीर तप रहा था। साथी अधिवक्ताओं ने उन्हें घर भेज दिया था और उसके बाद वह कभी वापस नहीं लौट सके।'
लाॅकडाउन के दौरान जिला न्यायालय में काम करने वाले 13 अन्य वकीलों की भी मौत हो गई। उनमें से अधिकांश के मौत का कारण हार्टअटैक बताया गया और उनकी उम्र 40 से 50 के बीच थी। जिले के 13 अन्य वकीलों की भी इस दौरान मौत हुई जो सब-डिविजन सिविल कोर्ट या एसडीएम कोर्ट में प्रैक्टिस करते थे। अधिवक्ताओं की मानें तो लाॅकडाउन के दौरान और उसके बाद के दिनों तक 70 प्रतिशत वकील अवसाद के शिकार हो चुके थे। पहले से भी वकीलों में उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और डायबिटीज जैसी समस्याएं आम हैं।
बिहार स्टेट बार काउंसिल के सदस्य और शहर के टाॅप वकीलों में से एक पप्पू दुबे कहते हैं, 'कोरोना संकट के दौरान बिहार स्टेट बार काउंसिल और बार काउंसिल आफ इंडिया की तरफ से जरूरतमंद अधिवक्ताओं को 4-4 हजार रुपये की मदद दी गई थी। शहर के सक्षम और संपन्न वकीलों ने एक निजी कोष बनाकर भी वकीलों की मदद की थी, लेकिन मदद चाहने वाले वकीलों की तुलना में हमारा कोष बहुत ही सीमित था। हम चाहकर भी सभी जरूरतमंद अधिवक्ताओं की मदद नहीं कर सके। बहुत से अधिवक्ता ऐसे भी थे जिन्हें पैसों की बहुत जरूरत थी लेकिन उन्होंने लोकलाज के कारण किसी के सामने अपना हाथ नहीं फैलाया।''
कुछ वकीलों ने कैश सहायता देने में जिला विधिक संघ पर पक्षपात का भी आरोप लगाया। उनका कहना है कि संघ में जबर्दस्त गुटबाजी है। 1500 रुपये की सहायता कुछ लोगों को दी गई थी, लेकिन यह रकम भी उन्हें मिली थी जो पदाधिकारियों के गुट के थे।
जिला विधिक संघ के महासचिव कन्हैया सिंह कहते हैं, 'लाॅकडाउन के दौरान संघ ने मुख्यमंत्री, कानून मंत्री, जिले के सांसद और विधायक सभी को वकीलों की आर्थिक दुर्दशा से अवगत कराकर उनके लिए राहत की मांग की थी, लेकिन कहीं से कोई सहायता नहीं मिली। यहां वकीलों को किसी प्रकार के सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है। कुछ साल पहले तक जिला बार एसोसिएशन अपने सदस्यों को बीमारी की अवस्था में अध्यक्ष और महासचिव के कोष से 4-4 हजार रुपया मेडिकल सहायता के रूप मेें उपलब्ध कराता था, लेकिन अभी वह भी बंद है। अभी जिला बार एसोसिएशन अपने सदस्य वकीलों की मृत्यु पर उनके आश्रितों को एक्सग्रेशिया के रूप में 2 लाख रुपये की आर्थिक सहायता देता है।
जिला बार एसोसिएशन से जुड़े एक वकील कहते हैं, हमारे कोष का स्रोत सदस्यता शुल्क और वकीलों के पंजीकरण से होने वाली आय है। इसके आलावा कोर्ट परिसर में हाजिरी फाॅर्म, शपथ-पत्र, वकालतनामा और बेल बाॅन्ड जैसे प्रपत्र बेचने का काम भी जिला बार एसोसिएशन की तरफ से किया जाता है, जिससे उसे आय होती है। जिला बार एसोसिएशन के कार्यालय में लगभग 32 निजी कर्मचारी भी काम करते हैं, जिन्हें बार के कोष से मानदेय दिया जाता है।
यहीं से जानकारी मिलती है कि अधिवक्ताओं के कल्याण के लिए एडवोकेट वेलफेयर ट्रस्ट कमिटी नाम की एक और संस्था है, जो वकीलों की दुर्घटना मृत्यु की स्थिति में उनके आश्रितों को 5-7 लाख रुपया उपलब्ध कराती है। यह अधिवक्ताओं के सेवानिवृति पर भी अपने कोष से उन्हें दो से ढ़ाई लाख रुपया देती है। यह सुविधा सिर्फ इस संस्था के सदस्यों के लिए है। सदस्यता शुल्क और एडब्ल्यूटीसी स्टांप बेचने से होने वाली आय से इसका कोष चलता है। वकीलों का कहना है कि इस संस्था के वेलफेयर स्कीम का लाभ सभी वकीलों को नहीं मिलता है और इसमें भी भारी अनियमितता है।
न्याय की आस लगाये मुवक्किलों का भी बुरा हाल
मोतिहारी की रजपुरिया की रहने वाली कुशवा देवी का पटना निवासी अपने पति नवीन कुमार गुप्ता से तलाक हो चुका है। कुशवा कहती हैं, 'मेरे दो बच्चे हैं, जो मेरे साथ रहते हैं। तीन साल पहले परिवार अदालत ने मुझे बच्चों के भरण-पोषण के लिए पति से दस हजार रुपया मासिक गुजारा भत्ता तय कर दिया था। लाॅकडाउन लगने के बाद पति ने उसे गुजारा-भत्ता देना बंद कर दिया। आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं था इसलिए बिना पैसों के अपना और बच्चों का भरण-पोषण करना लिए कठिन हो गया। भूखे मरने की नौबत आ गई, लेकिन कोर्ट बंद होने की वजह से मै। अपने पति से गुजारा-भत्ता पाने के लिए कानून की मदद नहीं ले सकी।'
इसी तरह मोतिहारी की ढाका निवासी दीपा देवी नौतन के रहने वाले अपने पति दिलीप पासवान से तलाक ले चुकी हैं। उनके दो बच्चे हैं, जो दीपा के साथ रहते हैं। दीपा बताती है, 'दिसंबर 2019 में फैमिली कोर्ट ने गुजारा-भत्ता के तौर पर 8 हजार रुपया मासिक तय किया था। लाॅकडाउन के पहले ही पति ने मुझे और बच्चों को गुजारा-भत्ता देना बंद कर दिया। अब बकाया ही 1.23 लाख रुपया हो गया है। लाॅकडाउन में मुझे अपने बच्चों के साथ भारी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। दीवानी अदालत बंद रहने के कारण मुझे कोई कानूनी मदद नहीं मिल सकी।'
मोतिहारी की तुकौलिया निवासी रुखसाना और जानपुर निवासी उनके पति अबूजर के बीच आपसी विवाद है। फैमिली कोर्ट ने उनके बीच समझौते का कोई आसार नहीं देखते हुए आपसी रजामंदी से तलाक लेने की सलाह दी थी। सेटलमेंट के तौर पर तीन लाख रुपया और 3 हजार मासिक गुजारा-भत्ता देने का कोर्ट ने फैसला दिया था। लाॅकडाउन के बाद अदालत के इन फैसलों की तामील नहीं हुई और रुखसाना न्याय की आस लगाये बैठी रहीं। अब कोर्ट में सुनवाई शुरू होने के बाद उपरोक्त तीनों मामले में अदालत ने प्रोडक्शन वारंट जारी कर फैसले की तामील कराने और बकाया भुगतान का आदेश दिया है।
इसी तरह रक्सौल के सुखारी मियां और इस्लाम मियां के बीच एक कीमती जमीन को लेकर आपस में विवाद था। 2015 में अदालत ने इस विवादित भूमि का निरीक्षण कराने के बाद इस जमीन पर निषेधाज्ञा लागू कर दिया। इस मामले की लगातार सुनवाई चल रही थी, लाॅकडाउन के दौरान प्रतिवादी इस्लाम ने स्थानीय पुलिस-प्रशासन और दबंग लोगों को मिलाकर उस विवादित भूमि पर बड़ी से बिल्डिंग खड़ी कर उस पर अपना कब्जा कर लिया। न्यायालय में दीवानी मामलों की सुनवाई बंद होने से सुखारी मियां कानून की शरण नहीं ले सके।
एक दूसरा किस्सा भिलाई थाना के पलनवा निवासी धमनाथ पटेल और नागेंद्र पटेल के बीच का है, जिनका वर्ष 2019 से भूमि विवाद चल रहा है। इस केस में भी एक पक्ष ने दबंगई से विवादित जमीन पर कब्जा कर लिया और दूसरा पक्ष देखता रह गया। वह पुलिस और कानून की मदद नहीं ले पाया। धमनाथ पटेल कहते हैं, 'प्रतिवादी एक प्रभावशाली व्यक्ति है। पुलिस और प्रशासन को उसने अपने पक्ष में कर लिया था। ऐसे में जब न्यायालय बंद था तो हम अपनी फरियाद लेकर किसके पास जाते।'
दीवानी मामलों में वादी को हुई इस तरह की परेशानियों की यह एक बानगी भर है। लॉकडाउन लगने के बाद यानी 24 मार्च से लेकर 1 जून तक दीवानी अदालतें पूरी तरह बंद रहीं। इस अवधि में ऐसे सैकड़ों मामले हुए जिनमें पीड़ितों को न्याय की जरूरत थी, लेकिन अदालत के दरवाजे उनके लिए बंद थे। सर्वाधिक परेशानी उन महिलाओं को हुई, जिनके मामले परिवार अदालत में हल होने थे। उनका गुजारा-भत्ता का केस हो या पति से झगड़े का केस हो, तमाम पुराने मामले पेंडिंग रहे और नए केस अदालत में रजिस्टर्ड नहीं हुए।
गुजारा-भत्ता पाने वालों का हुआ सबसे बुरा हाल, भूखों मरने की आई नौबत
ढाका की रहने वाली 20 वर्षीय शबनम के पति सलमान की 2019 में गांव में हत्या हो गई थी। इस मामले में सभी आरोपी जेल में हैं। शबनम कहती है, 'हत्यारों को सजा दिलाकर पति को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ रही हूं, लेकिन लाॅकडाउन में ससुराल वालों ने मुझे घर से निकाल दिया। गांव के सरपंच और स्थानीय पुलिस से शिकायत की, लेकिन उन लोगों ने ससुराल पक्ष का ही साथ दिया। जब अपने वकील को फोन कर इसकी जानकारी दी तो कोर्ट बंद होने का हवाला देकर उन्होंने भी इस मामले में कोई सहायता न करने की अपनी असमर्थता जाहिर की। मेरे ससुर के पास तीन एकड़ जमीन है, मगर बेटे की हत्या के बाद वह मुझे और मेरे एक साल के बेटे से पिंड छुड़ाना चाहते हैं। मेरे माता-पिता नहीं हैं और भाई बिहार के बाहर कहीं मजदूरी करता है। मैं अभी अपने एक वर्ष के बेटे के साथ किसी पड़ोसी के घर में रह रही हूं।'
शबनम कहती हैं, 'एक महिला के पति की हत्या हो जाए, उसे पति के घर से निकाल दिया जाए और उसके लिए इंसाफ के दरवाजे भी बंद हो तो उस महिला पर क्या बीती होगी इस दर्द को महसूस करना किसी के लिए आसान नहीं होगा।'
सुखारी मियां, धमनाथ पटेल और शबनम जैसे सैकड़ों लोग हैं, जिन्हें कोरोना संक्रमण के खतरे के कारण लागू किए गए लाॅकडाउन से न्याय पाने के अधिकार से वंचित होना पड़ा। राज्य अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कर पाने में पूरी तरह विफल रहा। आम नागरिकों का कानून-व्यवस्था और न्याय प्रणाली से भरोसा कमजोर हुआ।
मोतिहारी सिविल कोर्ट के अधिवक्ता रामाकांत पाण्डेय कहते हैं, 'भारत में जब से न्यायिक व्यवस्था की शुरुआत हुई है, तभी से जजों के बैठने की जगह और वकीलों के बैठने की जगह के बीच दो मीटर से अधिक की दूरी होती है। गवाह के खड़े होने की जगह भी न्यायाधीश की जगह से पर्याप्त दूरी पर होती है। इसके बावजूद कोरोना संक्रमण और सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर न्यायालयों को पूरी तरह ठप कर दिया जाना आश्चर्यजनक है। अदालत में कौन आता है? समाज का गरीब, दबा-कुचला, सहमा समाज, निम्न और मध्यम वर्ग के लोग आते हैं। जब न्याय और राहत मिलने के सभी रास्ते और विकल्प बंद हो जाते हैं तो आखिरी उम्मीद में लोग अदालत का रुख करते हैं, ऐसे में उन्हें न्याय से वंचित कर देना न्याय के मूल्यों का गला घोंटने के बराबर है।'
एक अन्य वकील नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, 'लाॅकडाउन में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुसार, अति आवश्यक आपराधिक मामलों की सुनवाई बंद नहीं की गई थी। इसमें फिजिकल और वर्चुअल दोनों मोड में सुनवाई चल रही थी। कोर्ट के आदेशानुसार सात साल तक की सजा वाले केस में अभियुक्त को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकती थी। उन्हें पर्सनल बाॅन्ड पर जमानत दी जा रही थी।जेल में बंद आरोपियों को अंतरिम जमानत पर जेल से रिहा करने का भी प्रावधान था। एक्साइज केस में भी अभियुक्तों को पर्सनल बाॅन्ड पर बेल दिया जा रहा था।'
एक्साइज एक्ट के अभियुक्तों को लॉकडाउन में हुई सबसे ज्यादा तकलीफ
अवर लोक अभियोजक और सामाजिक कार्यकर्ता प्रभाष त्रिपाठी कहते हैं, 'लाॅकडाउन के दौरान बिहार में एक्साइज एक्ट के अभियुक्तों को सबसे ज्यादा तकलीफ झेलनी पड़ी है। पुलिस और वकील दोनों ने उनका शोषण किया है। इसकी वजह है कि एक्साइज के केस में अधिकांशतः समाज का गरीब, शोषित और वंचित तबका पकड़ा जाता है, जिसकी इस अपराध में छोटी-मोटी भूमिका होती है। इस अपराध में बड़े अपराधी कभी पकड़े नहीं जाते हैं क्योंकि उनका राजनीतिक कनेक्शन है।'
लाॅकडाउन के दौरान अभियुक्तों को मिलने वाली राहत पर वरिष्ठ अधिवक्ता और स्टेट बार काउंसिल के सदस्य राजीव कुमार द्विवेदी कहते हैं, 'क्रिमिनल मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित रियायत के बावजूद जमानत मिलने में लोगों को काफी परेशानी हुई। छोटे-छोटे मामलों में जो लोग पहले से गिरफ्तार होकर जेल चले गए थे या जेल में बंद थे उन्हें जमानत नहीं मिली, उनकी रिहाई नहीं हो पाई। ऐसे आरोपियों को नाहक में जेल में रहना पड़ा। अग्रिम जमानत की प्रक्रिया भी पूरी तरह बंद थी। इस बीच छोटे-छोटे मामलों को लेकर पुलिस ने भी गरीब लोगों को परेशान किया। उनका शोषण किया और अनुचित तरीके से उनसे धन की उगाही की।'
अधिकांश वकीलों का मानना है कि पूरे लाॅकडाउन के दौरान कानून-व्यवस्था एक तरह से ध्वस्त हो गयी थी। इस दौरान पुलिस लाॅकडाउन का हवाला देकर केस दर्ज नहीं करती थी। किसी के साथ कोई आपराधिक घटना हो जाती थी तो लोग पुलिस और न्यायालय में जाने के बजाए उसे सहन कर लेते थे।
वहीं अधिवक्ता शिवशंकर यादव कहते हैं, 'लाॅकडाउन के दौरान क्रिमिनल मामलों के जमानत स्वीकार करने में जिला अदालत और न्यायाधीशों का रुख बहुत ही व्यावहारिक और सहयोगात्मक था लेकिन वर्चुअल सुनवाई और कार्यवाही में वकील सक्षम नहीं थे। लाॅकडाउन में क्रिमिनल मामले के अधिकांश वकील घर पर थे। उनके पास इंटरनेट, वाइफाई, लैपटाॅप और कंप्यूटर जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण नहीं थे। बिजली व्यवस्था ठीक नहीं रहती थी। वकील आनलाइन अपनी बात नहीं रख पाते थे। वकील और मजिस्ट्रेट एक दूसरे को ठीक से सुन नहीं पाते थे। एक दूसरे का चेहरा नहीं देख पाते थे। यहां तक कि कागज पर लिखा पढ़ने के आदी वकीलों को डिजिटल टैक्स्ट पढ़ने और समझने में भी समस्याएं होती थी। ऐसे हालात में निर्बाध रूप से न्यायिक प्रक्रिया का चलना और लिटिगेंट्स को इंसाफ दिलाना न सिर्फ अव्यावहारिक था, बल्कि नामुमकिन भी हो गया था।'
जिला विधिक संघ के अध्यक्ष शेष नारायण कुंवर कहते हैं, 'जिले में बार के 50 प्रतिशत वकीलों के पास स्मार्ट फोन तक नहीं है। जिनके पास फोन है भी वह काॅलिंग और मैसेजिंग से आगे मोबाइल के फंकशन का प्रयोग करना भी नहीं जानते हैं। ऐसे अधिवक्ताओं के भरोसे आनलाइन या वर्चुअल सुनवाई और उनके क्लाइंट को कितना न्याय मिला होगा?'
लाॅकडाउन के दौरान जहां डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी के कारण वर्चुअल न्यायालय लगने के बावजूद लोगों को न्याय पाने में असुविधा हुई, वहीं उच्च न्यायालयों में मुकदमों के अंबार और जजों की कमी की वजह से न्याय प्रक्रिया की रफ्तार धीमी रही। जिला सिविल कोर्ट से खारिज जिन मामलों का बेल हाइकोर्ट से मिलना था उनमें भी अभियुक्तों को बेल मिलने में देरी हुई है।
अधिवक्ता लालधारी प्रसाद कहते हैं, 'मेरा क्लाइंट मंसूर मियां एक अक्टूबर 2020 से जेल में बंद है। हाईकोर्ट से उसकी जमानत होनी है। उसका केस हाईकोर्ट में लिस्ट हो गया है, लेकिन छह माह बाद भी सुनवाई नहीं हुई है।'
अधिवक्ता रजनीकांत प्रसाद के मुताबिक हाईकोर्ट से रेग्यूलर बेल मिलने में चार से छह माह और एंटिसिपेटरी बेल मिलने में साल-साल भर का समय लग रहा है। हाईकोर्ट में मुकदमों का अंबार लगा है। सुनवाई की गति इतनी धीमी है कि पीड़ित न्याय की उम्मीद छोड़ देता है।
उल्लेखनीय है कि मोतिहारी जिले के सिविल न्यायालयों में वर्तमान में लगभग 66 न्यायाधीश हैं जिनमें रक्सौल, अरेराज और ढाका सब-डिविजन के सिविल कोर्ट के जज भी शामिल हैं। इनके अलावा जिले के छह सब-डिविजनअरेराज, पकरी दयाल, चकिया, ढाका, रक्सौल और मोतिहारी में एसडीएम कोर्ट भी है। सिविल कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश, अतिरिक्त न्यायाधीश, सब-जज, जुडिशियल मजिस्ट्रेट और मुंसिफ स्तर के जज हैं। इनमें ट्रांसफर आदि के कारण सब-जज के कुछ पद हमेशा खाली रहते हैं।
रजनीकांत प्रसाद बताते हैं, 'जिले के सिविल न्यायालयों में सालाना औसतन 1500 दीवानी मामले दायर होते हैं। लाॅकडाउन के पहले के आंकड़ों के अनुसार, सिविल और क्रिमिनल मामलों को मिलाकर कुल 1 लाख 20 हजार मुकदमे पेंडिंग हैं। कोरोनाकाल के बाद इन आंकड़ों में भारी इजाफा होने की संभावना है, क्योंकि लगभग 7-8 महीने सिविल के एक भी केस का निपटारा नहीं हुआ है। लाॅकडाउन समाप्त होने के बाद भी सिविल कोर्ट के रिकाॅर्ड और आर्डर शीट अभी भी अपडेट नहीं किए जा रहे हैं। यहां सरकारी विधिक कर्लक और चर्तुथ श्रेणी के कर्मचारियों का भीषण संकट है।'
वकीलों और मुवक्किल दोनों के लिए असहज वर्चुअल कोर्ट
लॉकडाउन में क्रिमिनल मामलों के बेल को छोड़कर सभी तरह की अदालती कार्यवाही बंद हो गईं थीं। पब्लिक प्रोस्टक्यूटर दिग्विजय नारायण सिन्हा कहते हैं, '2 जून से वर्चुअल मोड में आवश्यक मामलों के जमानत की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। फिर 2 जुलाई को हाईकोर्ट के एक आदेश के मुताबिक सिविल कोर्ट को बंद कर दिया गया। 17 अगस्त से जिला न्यायालय और परिवार न्यायालय में लगातार वर्चुअल सुनवाई चल रही है। दिसंबर से अदालतों को एक दिन वर्चुअल और एक दिन फिजिकल मोड में चलाया जा रहा है। हालांकि मुवक्किलों को दिसंबर तक कोर्ट आने से मना किया गया था। जनवरी से फिजिकल कोर्ट में वादी-प्रतिवादी और गवाह भी सुनवाई के लिए आ रहे हैं।'
आधे कोर्ट तीन दिन वर्चुअल और तीन दिन फिजिकल मोड में चलने की व्यवस्था 22 मार्च या हाईकोर्ट का कोई आदेश मिलने तक जारी रहने की संभावना वकील जताते हैं। इस व्यवस्था के विपरीत फिलहाल जिला न्यायाधीश, परिवार न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, सीजीएम, सीजीएम द्वितीय-एक्साइज, अतिरिक्त जिला न्यायाधीश प्रथम-एससी/एसटी और अतिरिक्त जिला जज-पोस्को नियमित रूप से रोजाना फिजिकल सुनवाई कर रहे हैं।
वर्चुअल सुनवाई को लेकर वकीलों में बहुत ज्यादा नाराजगी है। नाराजगी का कारण अगर जिला सिविल कोर्ट के 10-15 अधिवक्ताओं को छोड़ दिया जाए तो शेष अधिवक्ता वर्चुअल सुनवाई में खुद को सहज नहीं पाते हैं। कुछ न्यायाधीशों के कार्यालय में एलईडी स्क्रिन और वादी-प्रतिवादी-गवाह के लिए एक दूसरे कमरे में एलईडी स्क्रिन और माइक की व्यवस्था कर वर्चुअल सुनवाई का सेटअप तैयार किया गया है, लेकिन यह व्यवस्था ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रही है।
5 मार्च को चकिया से अपने केस की सुनवाई के लिए आए बहाउद्दीन शेख कहते हैं, 'हम घर से सुबह के चले हुए हैं। चार बजे हाकिम के पास मेरा नम्बर आया था, लेकिन हाकिम इजलास में नहीं आए थे। मेरे वकील साहब मोबाइल पर ही मुकदमा लड़ रहे हैं। अब वह मोबाइल पर क्या बोले, हम तो सुनने नहीं गए। हम बाहर ही बैठे रहे। हमें अब अप्रैल माह की अगली तारीख मिली है।'
वरिष्ठ अधिवक्ता रामाकांत पाण्डेय कहते हैं, 'वर्चुअल सुनवाई के लिए न तो बार के पास कोई व्यवस्था है और न ही बेंच के पास कोई ठोस इंफ्रास्ट्रक्चर है। विधिवत व्यवस्था नहीं होने से यहां वाट्सएप ही वर्चुअल सुनवाई का एकमात्र साधन है। वाट्सएप काॅलिंग पर ही सुनवाई हो जाती है, जूम और गूगल मीट जैसे वर्चुअल एप का यहां कोई प्रयोग नहीं करता है। वर्चुअल कोर्ट काम न करने का एक बहाना है। न्यायिक अधिकारियों को पता है कि डिजिटल मोड में काम करने के लिए कोरोनाकाल के दौरान या उसके बाद कोई मेकैनिजम विकसित नहीं किया गया, इसके बावजूद काम न करने और अपने वेतन लेने को न्याययोचित ठहराने के लिए वर्चुअल कोर्ट का बहाना बनाया जा रहा है।'
अवर लोक अभियोजक कामाख्या नारायन सिंह के अनुसार, वर्चुअल सुनवाई में कोई काम नहीं हो पा रहा है। दूरदराज के गांवों से लोग सुनवाई के लिए आते हैं और शाम को बिना काम के वापस घर चले जाते हैं। उनका पैसा और समय भी बर्बाद होता है।'कामाख्या नारायण सिंह और रामाकांत पाण्डेय की बातों को पुष्ट करते हुए अधिवक्ता भगवान प्रसाद कहते हैं, 'जब जिला जज रोज सुनवाई कर रहे हैं तो उनके मातहत जूनियर मजिस्ट्रेट एक दिन के अंतराल पर क्यों बैठ रहे हैं।'
वर्चुअल कोर्ट को समाप्त कर फिजिकल उपस्थिति में सुनवाई की मांग करने के लिए अधिवक्ता जिला न्यायाधीश से कई बार मुलाकात कर चुके हैं, लेकिन जिला जज हाईकोर्ट के आदेशों का हवाला देकर इस मामले में अपनी असमर्थता प्रकट कर देते हैं।
कोरोना संक्रमण के खतरे को देखते हुए वर्चुअल कोर्ट सुनवाई और अल्टरनेट-डे कोर्ट चलाने की व्यवस्था की गई है, लेकिन इस व्यवस्था के अलावा कोर्ट परिसर में किसी भी कोरोना गाइडलाइन का पालन होता हुआ नहीं दिख रहा है। कोर्ट परिसर में आने वाले वकील, उनके सहायक, विधिक लिपिक और मुवक्किलों में पांच प्रतिशत लोग भी मास्क का प्रयोग नहीं करते हैं। सामाजिक दूरी का कहीं पालन नहीं हो रहा है। कोर्ट परिसर में सीमित स्थान और लोगों की रोजाना आने वाली भीड़ के कारण सामाजिक दूरी का पालन यहां संभव भी नहीं है।
लिपिक हो गए हैं कर्जदार, पहुंच गए भुखमरी के कगार पर
लाॅकडाउन के कारण 50 वर्षीय विधि लिपिक उषा पाण्डेय का काम कई महीने से बंद था। पुरोहित का काम करने वाले उनके पति को भी लंबे समय से कोई जजमान नहीं मिल रहा था। इस तरह घर की आमदनी पूरी तरह बंद होने से उषा पाण्डेय मानसिक तनाव और कई तरह की बीमारियों से घिर गई थीं। उन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पाया और पिछले साल हार्टअटैक से उनकी मृत्यु हो गई। उषा पाण्डेय के अलावा पिछले एक साल के कारोना काल में मोतिहारी सिविल कोर्ट के 18 मुंशियों की मौत हो गई है। इनमें से अधिकांश के मौत का कारण आर्थिक तंगी के कारण उपजा तनाव, बीमारी और समय पर इलाज न मिलना रहा है।
बिहार में वकीलों के निजी विधिक लिपिक को मुंशी, ताईद, मोहर्रिल और कारप्रदाज आदि कई नामों से जाना जाता है। मोतिहारी सिविल कोर्ट और जिले के सब-डिविजन में स्थापित अन्य न्यायालयों में लगभग 800 विधिक लिपिक या निजी मुंशी जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय के नियमों के तहत पंजीकृत हैं। इनमें पांच महिला मुंशी भी हैं। पंजीकृत विधि लिपिकों के अलावा कुछ अपंजीकृत लिपिक भी काम करते हैं। पूरे राज्य में विधि लिपिकों की अनुमानित संख्या लगभग 80 हजार के आसपास है और इस तरह इस पेशे से लगभग 6 से 7 लाख लोगों का भरण-पोषण होता है। इनके काम करने की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता दसवीं होती है, जबकि आयु सीमा का कोई बंधन नहीं है। मोतिहारी कोर्ट में 25 साल के युवक से लेकर 75 साल तक के मुंशी काम करते हुए आसानी से मिल जाते हैं।
न्यायालयों में जज और वकीलों का काम सुबह दस बजे से शाम 6 बजे तक होता है, लेकिन मुंशियों को सुबह आठ बजे अपने वकीलों के घर पहुंच जाना होता है। वह शाम को कोर्ट से आने के बाद रात 8-9 बजे तक फिर वकीलों के घर पर अपनी सेवाएं देते हैं।
मुंशियों की जिम्मेदारियों की बात करें तो क्लाइंट की हाजिरी, रीप्रेजेंटेशन, मुकदमों की गवाही और सुनवाई की तारीख का रिकाॅर्ड, क्राॅस एग्जामिनेशन, वकालतनामा फाइल करना, बेलबाॅन्ड और शपथपत्र लिखने से लेकर तमाम मुकदमों पर नजर रखना और उनसे अपने वकील को अवगत कराना मुंशियों का काम होता है। काम के लिहाज से उनकी हैसियत एक पर्सनल सेक्रेटरी और वकीलों के सहायक जैसी होती है, लेकिन उन्हें इस काम के बदले बमुश्किल प्रतिमाह 5 से 20 हजार रुपये मिलते हैं। अधिकांश मुंशियों की मासिक आय 10 हजार से भी कम है। वकील रोजाना की अपनी कमाई में से कुछ हिस्सा इन्हें देते हैं या फिर उनके क्लाइंट से विधिक लिपिक को अपना हिस्सा खुद लेना पड़ता है।
न्यायिक प्रक्रिया का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा होते हुए भी विधिक लिपिक को किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती है। बीमारी, दुर्घटना बीमा, मृत्यु या काम से सेवानिवृत होने पर इन्हें किसी तरह का आर्थिक लाभ नहीं मिलता है।
लाॅकडाउन के दौरान मुंशियों सामने रोजी-रोटी का भीषण संकट उत्पन्न हो गया था। जिला विधिक लिपिक संघ के महासचिव नरेंद्र कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, 'लाॅकडाउन के दौरान अपनी ही चिंता में हर कोई उलझा हुआ था। ऐसे में दूसरे साथियों की सुध कौन लेता है और हम जैसे फटेहाली में जीने वाले लोग दूसरों की सहायता क्या करेंगे?
विधिक लिपिक देवेंद्र कुमार सिंह कहते हैं, 'जब कोर्ट में पर्व-त्यौहारों को लेकर एक से अधिक दिन अवकाश हो जाता है, उतने में ही हमारा मासिक बजट बिगड़ जाता है। ऐसे में अगर सात-आठ महीने कोर्ट-कचहरी का काम बंद हो जाने के बाद भी आज हम जिंदा हैं, ये ही बहुत बड़ी बात है।'
देवेंद्र कुमार सिंह और अन्य कई लिपिकों से बातचीत से पता चलता है कि मोतिहारी सिविल कोर्ट में काम करने वाले लगभग 600 मुंशियों में सिर्फ तीन देवेंद्र मिश्र, देवेंद्र सिंह और महाराज सिंह ही ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके पुत्र आर्मी, बैंक और रेलवे में सरकारी नौकरी करते हैं। शेष किसी के घर में कोई सरकारी नौकरी में नहीं है। मुंशियों में सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों के पास स्मार्ट फोन और 2 प्रतिशत के पास अपनी बाइक है। बाकी लोग या तो साइकिल से या फिर पब्लिक ट्रांसपोर्ट से रोजाना गांव से शहर आना-जाना करते हैं। कुछ पुराने और बड़े वकीलों के साथ काम करने वाले लिपिक किराए के मकान पर शहर में भी रहते हैं।
लिपिक विश्वनाथ तिवारी कहते हैं, 'अब हमारे घर के लड़के छोटा-मोटा कोई व्यवसाय कर लेते हैं, लेकिन इस काम में वह नहीं आना चाहते हैं। हम भी नहीं चाहते हैं कि इतने कम पैसे और इतना ज्यादा तनाव लेने वह इस पेशे में आएं।'
विधिक लिपिक संघ के महासचिव नरेंद्र कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, 'सरकार हमारे लिए कुछ नहीं करती है। तमिलनाडु, आंध्रपेदश, झारखंड, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की सरकारों ने विधिक लिपिक कल्याण के लिए कानून बनाया है। उनके लिए एक न्यूनतम वेतन, स्वास्थ्य, दुर्घटना बीमा और मासिक पेंशन की व्यवस्था की है। हम इसकी मांग वर्ष 1986 से करते आ रहे हैं। कई बार पटना में हम लोगों ने धरना और प्रदर्शन भी किया, लेकिन हमारी मांगें नहीं मानी गई।'
पाई-पाई को मोहताज हुए दस्तावेज लेखक
मोतिहारी कोर्ट परिसर के अंदर ही जिला निबंधन कार्यालय है। लाॅकडाउन में यह कार्यालय लगभग ढ़ाई से तीन माह तक पूरी तरह बंद था। जून के बाद यहां आंशिक तौर पर काम शुरू हुआ। यहां 70 पंजीकृत और लगभग 300 गैर पंजिकृत कातिब/दस्तावेज लेखक काम करते हैं। जमीन की खरीद-बिक्री का यह मजमून बनाने का काम करते हैं। इनमें एक भी महिला कातिब नहीं है। एक तरह से यह पुरुष वर्चस्व वाला पेशा है, इसलिए महिलाएं इसमें नहीं आती है। इ
जिला दस्तावेज नवीस संघ के सचिव अशोक कुमार कहते हैं, 'हम रोज कमाते हैं तो हमारा घर चलता है। लाॅकडाउन में हमारी कमाई पूरी तरह बंद हो गई। बचत के पैसे से हमारा घर चला। कई लोगों की लड़की की शादी इसलिए टल गई कि उनके पास पैसे नहीं हैं। पढ़ाई करने वाले जो बच्चे बाहर से घर आ गए या जिन्हें बाहर जाना था अब वह घर पर हैं क्योंकि अभिभावक के पास उन्हें देने के लिए पैसे नहीं हैं।'
जिला दस्तावेज नवीस संघ के अध्यक्ष मोहम्मद अमजद बताते हैं, 'लाॅकडाउन में हमारे कई साथी ठेले पर फल और सब्जियां बेचने को मजबूर हो गए थे। अभी भी काम पहले की तरह पटरी पर नहीं लौटा है। निबंधन कार्यालय में काम कम हो रहा है, लोग कम आ रहे हैं। लोगों के पास पैसे नहीं है। बेचने वाले ज्यादा हैं और खरीदार कम हैं। वापस पहली वाली स्थिति में लौटने में दो-ढ़ाई साल का वक्त लग सकता है।'
अमजद कहते हैं, 'हमें किसी तरह की कोई सहायता नहीं मिलती है। सदस्यों की मृत्यु पर हम अपने कोष से 10 हजार की आर्थिक सहायता उनके आश्रितों को देते हैं। बीमारी के उपचार के लिए हमारे पास कोई फंड नहीं है।'
अदालत में टाइपिस्टों, स्टांप विक्रेताओं और स्टेशनरी बेचने वालों का हाल
45 वर्षीय टाइपिस्ट मनोज महतो रोज बस से 50 किमी की दूरी तय कर रामगढ़वा से मोतिहारी सिविल कोर्ट आते हैं। उन्हें रोजाना 80 रुपया बस का किराया लगता है, जबकि उनकी मासिक आय 6 हजार से अधिक नहीं है। महतो इंग्लिश टाइपिंग करते हैं जिसका प्रति पेज उन्हें 15 रुपया तक मिल जाता है। जब लोकल ट्रेन चलती थी तो रोज का आने-जाने का उनका किराया 40 रुपये ही लगते थे। ट्रेन बंद होने से उनके मासिक यात्रा बजट पर अतिरिक्त भार बढ़ गया है। ऐसे में मनोज महतो ने गांव के साहूकार से 4 प्रतिशत ब्याज पर मैंने पैसा उठाया, तब कहीं जाकर घर में राशन-पानी का इंतजाम हुआ। मनोज महतो के पास लगभग एक एकड़ खेतिहर भूमि भी है, जिस पर वह खुद से खेती करते हैं। कहते हैं, 'अपनी खेती का घर में कुछ अनाज था और सरकार ने जो अनाज और 500 रुपया दिया उससे भी काफी राहत मिली थी।'
मनोज महतो के पास ही 55 वर्षीय विमल सहनी भी अपनी टूटी-फूटी कुर्सी और टेबुल पर टाइपिंग में व्यस्त है। वह हिंदी टाइपिस्ट हैं। उन्हें प्रति पेज टाइपिंग का 10 से 15 रुपया तक मिल जाता है। वह अपनी मासिक आय पांच हजार रुपया बताते हैं। विमल बताते हैं, कुछ टाइपिस्ट 15 से 20 हजार रुपया तक मासिक आय कर लेते हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। वह पिछले 30-40 सालों से इसी कोर्ट कैंपस में बैठ रहे हैं और उनका सामाजिक दायरा भी बड़ा है। इसलिए उनके पास औरों के मुकाबले ज्यादा काम आते हैं।
मोतिहारी कोर्ट परिसर में लगभग 35 से 40 टाइपिस्ट हैं। इसके अलावा 20 अन्य लोग कंप्यूटर टाइपिंग का भी काम करते हैं। टाइपिस्टों के लिए कोई सुविधा नहीं है। कुछ लोग प्लास्टिक के छप्पर के नीचे काम करते हैं तो कुछ को खुले आसमान और कच्ची जमीन पर ही अपनी कुर्सी और टेबुल लगाकर काम करना होता है। बरसात और गर्मी के दिनों में उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अधिकांश टाइपिस्ट अपने काम से संतुष्ट नहीं हैं। वर्षों से उनके काम का रेट स्थिर है।
टाइपिस्ट हरिओम शिकायत करते हैं, 'सभी चीजों के दाम बढ़ गए हैं, लेकिन टाइपिंग का रेट पिछले 20-25 सालों से इतना ही है। हम अपने बच्चों को इस काम में नहीं आने देंगे। हमें आज छह हजार महीने का कोई दूसरा काम मिल जाए तो आज हम ये काम छोड़ देंगे।' कोर्ट परिसर में एक भी महिला टाइपिस्ट नहीं है। इसका कारण बताते हुए हरिओम कहते हैं, एक तो पैसा कम है और दूसरा सुरक्षा का सवाल है। इसलिए इस काम में महिलाएं नहीं आती हैं। टाइपिस्टों के हित की रक्षा और उनके कल्याण के लिए लड़ने के लिए कोई संगठन भी नहीं है।''
फोटोकॉपी दुकानदार गुड्डू कुमार मोतिहारी से 25 किलोमीटर दूर पिपरा कोठी से रोजाना बस से कोर्ट आते हैं। उनका रोज का 60 रुपया किराया लग रहा है। ट्रेन से आने पर यह खर्चा 40 रुपये था। गुड्डू कहते हैं, 'पिछले साल मार्च में दुकान बंद होने के बाद दिसंबर में दुकान खुली। इन नौ महीने में फोटोकाॅपी मशीन खराब हो चुकी थी। उसे फिर से चालू करने में 15 हजार रुपये का खर्च आया है, जिसे किसी से ब्याज पर लिया है। उम्मीद है कि कोर्ट अगर चलती रहेगी तो दो तीन माह में कर्ज चुका दूंगा। अभी तो मुझे दस माह का दुकान का किराया और बिजली का बिल भी भरना है।'
यहां कोर्ट परिसर में फोटोकाॅपी की कुछ ऐसी भी दुकानें हैं, जिसे मालिक कर्मचारी रखकर उसे चलाते हैं। ऐसी ही एक दुकान है 'जय माता दी फोटो काॅपी' जिसके मालिक हैं लक्ष्मी नारायण प्रसाद। यहां चंदन प्रसाद और सूरज कुमार दो कर्मचारी दुकान चलाते हैं। दुकान 24 मार्च 2020 को बंद हुई थी और जनवरी में खुली है। चंदन और सूरज दुकान में 4 हजार रुपये मासिक की पगार पर नौकरी करते हैं।'
मोतीहारी कोर्ट परिसर में लगभग 20 दुकानें हैं। कोई खुद चलाता है तो कोई कर्मचारी रखकर दुकान चलाता है। जिस उम्र में इंसान सांसारिक मोहमाया त्याग कर धर्म और आध्यात्म में लग जाता है, उस उम्र में 80 वर्षीय मालती वर्मा अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कोर्ट परिसर में स्टांप बेचती हैं। उनके पति की वर्षों पहले मृत्यु हो चुकी है।' मालती वर्मा को वृद्धा पेंशन नहीं मिलती है। कहती हैं, उन्हें लाॅकडाउन के दौरान किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं मिली।
होटल और अन्य दुकानदार हुए बदहाल
कोर्ट परिसर में होटल, चाय-पान और भूजे की दुकान के अलावा स्टेशनरी, स्टूडियो और चश्मे की भी दुकानें हैं। इस तरह की लगभग 50 रजिस्टर्ड दुकानें हैं, जबकि इतनी ही दुकानें बिना नियोजन के स्थाई रूप से चल रही हैं। इन दुकानों का उनके आकार के अनुसार, सालाना दो हजार से लेकर 14 हजार रुपये तक किराया है। इसके अलावा बिजली बिल अलग से देना होता है। लाॅकडाउन के दौरान इस तरह सैंकड़ों परिवार के सामने रोजी-रोटी का संकट उत्पन्न हो गया था।
पिपरा निवासी पान दुकानदार अमित कुमार कहते हैं, 'आठ माह से मेरी दुकान बंद थी, इसके बावजूद 4.5 हजार का बिजली बिल दुकान के नाम पर डयूज है। अभी मैंने 10 हजार रुपया ब्याज पर लेकर दुकान का सामान खरीदा है, जो पुराना सामान था वह अब खराब हो चुका है।
चाय की दुकान चलाने वाले 65 वर्षीय राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं, 'मेरा घर यहां से 7 किमी दूर मिसकौट गांव में है, लेकिन पास खेती की कोई जमीन नहीं है। मुझे बीपी और शुगर की बीमारी है, जबकि लाॅडाउन में पत्नी को लकवा मार दिया। हमारे पास आमदनी का कोई दूसरा स्रोत नहीं था। हमने इलाज और खाने-पीने के लिए 3 लाख रुपया कर्ज लिया है। पत्नी का कुछ जेवर था, वह भी बेचने पड़ गये।'
ढाबा चलाने वाले राजन और उसकी चाची ललिता देवी की अलग तरह की समस्याएं हैं। उन दोनों का अपना छोटा-छोटा सा होटल है, लेकिन उनके पास घर नहीं है। वह रात में उसी होटल और उसके पीछे सरकारी जमीन में बनी झोपड़ी में अपनी रात गुजारते हैं। तालाबंदी में उन्हें उसी होटल में रहना पड़ा, जबकि कोर्ट परिसर पूरी तरह बंद था। राजन कहते हैं, 'मुझे राशन-पानी के लिए अपनी बेटी की शादी के लिए जोड़े गए गहनों को बेचना पड़ा। लड़की की शादी भी अभी नहीं हो पाई है। होटल का 14 हजार किराया और बिजली बिल भी अभी देना है।'
वहीं राजन की चाची ललिता देवी कहती हैं, 'सरकारी सहायता से मिलने वाले अनाज से उनके परिवार को दो वक्त की रोटी नसीब हुई। होटल दोबारा चलाने के लिए ब्याज पर रुपया लिया है। पहले 5 किलो मटन रोज बिक जाता था, लेकिन अभी 2 किलो मटन भी नहीं बिक पा रहा है।' ललिता के मुताबिक, कोर्ट खुल गया है, लेकिन दुकानदारी में अभी पहले जैसी तेजी नहीं आई है। पहले 600 रुपया रोज आमदनी होती थी, अभी रोजाना 200 रुपये की बचत भी नहीं हो पा रही।
जमीन पर चटाई बिछाकर स्टेशनरी का सामान, लाल किताब, जंत्री और कैलेंडर बेचने वाले जितेंद्र कुमार कहते हैं, '24 मार्च के बाद 6 दिसंबर को मैंने दुकान दोबारा लगायी है। मुझे कोरोना हो गया था। मैंने ब्याज पर 70 हजार रुपया लेकर सामान खरीदा था, तभी लाॅकडाउन लग गया और मेरा पैसा और सामान फंस गया।मेरा घर बहुत जर्जर हो गया है कभी भी गिर सकता है, इसलिए अपना घर छोड़कर 1500 मासिक देकर किराए के घर में रहते हैं। हमें बहुत परेशानी हुई। बच्चे को दूध देने के लिए पैसे नहीं थे। सरकार की तरफ से मिलने वाले अनाज से घर का खाना-पीना चल रहा था।'
मोतिहारी के अधिवक्ता जयराम सिंह कहते हैं, 'लाॅकडाउन में बहुत से वकीलों ने तो नमक-रोटी खाकर गुजारा किया है। वकीलों के साथ दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ये भी है कि कोई दुकानदार उन्हें उधारी पर राशन का सामान भी नहीं देता है। कोरोनाकाल के लगभग दो माह बाद दुकानदारों ने वकीलों राशन देना बंद कर दिया था। दुकानदार भी जानते हैं कि वकीलों को कोई वेतन तो मिलता नहीं है तो वह दो-तीन माह बाद एक मुश्त पैसा कहां से लाकर देंगे? रिश्तेदारों के अलावा उन्हें कोई कर्ज भी नहीं देता है। यहां तक कि बैंकों से भी उन्हें किसी तरह का कर्ज लेने में परेशानी होती है। वकील स्वाभिमानी होते हैं। समाज में उनका एक रुतबा होता है, इसलिए अपनी परेशानी वह कभी किसी से साझा नहीं करते हैं। हम पूरे लाॅकडाउन के दौरान घर में रहे, कानून का पालन किया। सरकार के आदेशों को माना, लेकिन सरकार ने अधिवक्ता समाज के लिए कुछ नहीं किया। हम आम जनता के हक की लड़ाई लड़ते हैं, लेकिन अपने हक की ही बात नहीं कर पाते।'
(यह रिपोर्ट ठाकुर फैमिली फाउंडेशन द्वारा समर्थित एक प्रोजेक्ट का हिस्सा है। ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस प्रोजेक्ट पर किसी तरह का कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं रखा है।)