जनज्वार विशेष

महत्वपूर्ण लेख : अफगानिस्तान को रूसी चंगुल से मुक्त कर अमेरिका ने चालाकी से वहां खड़ी की आतंकवादियों की फौज

Janjwar Desk
16 Sep 2021 5:46 AM GMT
महत्वपूर्ण लेख : अफगानिस्तान को रूसी चंगुल से मुक्त कर अमेरिका ने चालाकी से वहां खड़ी की आतंकवादियों की फौज
x

(तालिबान शासन में बढ़ चुके हैं महिलाओं पर होने वाले अत्याचार)

म्यांमार व अफगानिस्तान की इस करुण-गाथा में भारत की सरकारों की भूमिका किसी मजबूत व न्यायप्रिय पड़ोसी की नहीं रही है, राष्ट्रहित के नाम पर हम समय-समय पर म्यांमार और अफगानिस्तान को लूटने वाली ताकतों का ही साथ देते रहे हैं....

एक कायर दुनिया के शर्मनाक चेहरे का सच उजागर करती वरिष्ठ गांधीवादी लेखक कुमार प्रशांत की टिप्पणी

जनज्वार। ऐसी दुनिया कभी नहीं थी कि नहीं, कहना मुश्किल है लेकिन ऐसी दुनिया कभी होनी नहीं चाहिए यह तो निश्चित ही कहा जाना चाहिए। ऐसी दुनिया है आज जिसमें सत्ताओं ने आपस में दुरभिसंधि कर ली है कि उन्हें जनता की न सुननी है, न उसकी तरफ देखना है। जिसके कंधों पर उनकी सत्ता की कुर्सी टिकी है, उस पर किसी की आंख नहीं टिकी है। यह हमारे इतिहास का बेहद कायर और क्रूर दौर है। इतने सारे देशों में, इतने सारे लोग, इतनी सारी सड़कों पर कब उतरे थे मुझे पता नहीं; लेकिन मुझे यह भी पता नहीं है कि कब इतने सारे लोगों की, इतनी सारी व्यथा इतने सारे शासकों व इतनी सारी सरकारों ने अपने-अपने स्वार्थों के चश्मे से देखकर, उसकी अनदेखी की थी।

लेकिन हमारे पास भी तो एक चश्मा होना चाहिए कि जो सत्ता को नहीं समाज को देखता हो! इतिहास में कभी भारत का हिस्सा रहे अफगानिस्तान (Afganistan) को हमें किसी दूसरे चश्मे से नहीं, अफगानी नागरिकों के चश्मे से ही देखना चाहिए- उन नागरिकों के चश्मे से जिनमें हमने कभी सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान की छवि देखी थी। हमें म्यांमार की तरफ भी उसी चश्मे से देखना चाहिए, जिस चश्मे से कभी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने उसे देखा था और जापान की मदद से, अंग्रेजों को हराते हुए भारत की सीमा तक आ पहुंचे थे।

म्यांमार तब भारत का आंगन हुआ करता था। आज वह अफगानिस्तान भी, और वह म्यांमार (Myanmar) भी घायल व ध्वस्त पड़ा है और सारी महाशक्तियां व उनके पुछल्ले अपने स्वार्थों का लबादा ओढ़े, लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए मुंह सिए पड़े हैं।

यह खेल नया नहीं है। न्याय व समस्याओं का मानवीय पहलू कभी भी महाशक्तियों की चिंता का विषय नहीं रहा है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तथाकथित मित्रों राष्ट्रों ने पराजित राष्ट्रों के साथ जैसा क्रूर व चालाक व्यवहार किया था, वह भूला नहीं जा सकता है। अरबों के सीने पर इसराइल किसी नासूर-सा बसा दिया गया और कितने ही देशों का ऐसा विभाजन कर दिया गया कि वे इतिहास की धुंध में कहीं खो ही गए। महाशक्तियों ने संसार को अपने स्वार्थगाह में बदल लिया।

उधर आतंकी संगठन अलकायदा ने तालिबान को बधाई दी, इधर भारत ने तालिबान से बात शुरू की : रवीश कुमार

अफगानिस्तानके बहादुर व शांतिप्रिय नागरिकों के साथ भी महाशक्तियों ने वैसा ही कायरतापूर्ण, बर्बर व्यवहार किया - सबसे पहले वैभव के भूखे ब्रितानी साम्राज्यवाद ने, फिर साम्यवाद की खाल ओढ़ कर आए रूसी खेमे ने और फिर लोकतंत्र की नकाब पहने अमरीकी खेमे ने। यदि अंतरराष्ट्रीय शर्म जैसी कोई संकल्पना बची है तो आज का अफगानिस्तान दुनिया के हर लोकतांत्रिक नागरिक के लिए शर्म का विषय है।

रूसी चंगुल से निकाल कर अफगानिस्तान को अपनी मुट्ठी में करने की चालों-कुचालों के बीच अमरीका ने आतंकवादियों की वह फौज खड़ी की जिसे तालिबान या अलकायदा या अल-जवाहिरी या ऐसे ही कई नामों से हम जानते हैं। अमरीकी राष्ट्रपति बार-बार इसका हिसाब देते हैं कि अफगानिस्तान पर किस तरह अरबों-अरब रुपये खर्च किए, हथियार दिए, अफगानियों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया। वे कहना यह चाहते हैं कि अफगानियों में अपनी आजादी बचाने का जज्बा ही नहीं है। तो कोई पूछे कि अमरीका जब जनमा था तब अफगानिस्तान था या नहीं? अगर वे अमरीका से पहले से धरती पर थे तो यही बताता है कि वे अपना देश बनाते भी थे और चलाते भी थे। अमरीकी यह नहीं समझ सके हैं कि उन्मादी नारों, भाड़े के हथियारों और उधारी की देशभक्ति से देश न बनते हैं, न चलते हैं।

अगर यह सच नहीं है तो कोई यह तो बताए कि अमरीका को अफगानिस्तान छोड़ना ही क्यों पड़ा? अमरीका कलिंग युद्ध के बाद का सम्राट अशोक तो है नहीं ! बहादुर अफगानियों को गुलाम बनाए रखने की तमाम चालों के विफल होने के बाद अमरीकी उसे खोखला व बेहाल छोड़ कर चले गए। यह सौदा भी सस्ता ही होता लेकिन अफगानी नागरिकों का दुर्भाग्य ऐसा है कि अब उनके ही लोग, वैसी ही हैवानियत के साथ, उन्हीं हथियारों के बल पर उसके सीने पर सवार हो गए हैं।

तालिबान किसी जमात का नहीं, उस मानसिकता का नाम है जो मानती है कि आत्मसम्मान के साथ आजाद रहने के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन हिंसा के बल पर किया जा सकता है। इस अर्थ में देखें तो महाशक्तियों का चेहरा तालिबानियों से एकदम मिलता है। सारी दुनिया की सरकारें कह रही हैं कि अफगानिस्तान से हम अपने एक-एक नागरिक को सुरक्षित निकाल लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन अफगानिस्तान के नागरिकों का क्या ? उनकी सेवा व विकास के नाम पर सभी वहां संसाधनों की लूट करने में लगे थे और आज सभी दुम दबाकर भागने में लगे हैं। हम देश से निकल भागने में लगे अफगानियों की तस्वीरें खूब दिखाई जाती हैं, अपनी कायरता की तस्वीर छुपा ली जाती है। लेकिन इतिहास गवाह है कि चाहे ब्रितानी हो कि रूसी कि अमरीकी कि हिंदुस्तानी, ऐसी ताकतें न कभी स्थायी रह सकी हैं, न रह सकेंगी।

तालिबान ने कहा - महिलाओं का काम सिर्फ बच्चे पैदा करना, नहीं संभाल सकतीं मंत्री का पद

म्यांमार में तो फौजी तानाशाही से लड़ कर जीते लोकतंत्र का शासन था न ! शू ची न महाशक्तियों की कठपुतली थीं, न आतंकवादियों की। उनकी अपनी कमजोरियां थीं लेकिन म्यांनमार की जनता ने, फौजी तिकड़मों के बावजूद, उन्हें अपार बहुमत से दो-दो बार चुना था। भरी दोपहरी में उनकी सरकार का गला घोंट कर फौज ने सत्ता हथिया ली। इसके बाद की कहानी जैसी अफगानिस्तान में है वैसी ही म्यांमार में है। वहां तालिबान के खिलाफ तो यहां फौजी गुंडागर्दी के खिलाफ आम लोग - महिलाएं-बच्चे-जवान- सड़कों पर उतर आए और अपना मुखर प्रतिरोध दर्ज कराया। दुनिया के हुक्मरान देखते रहे, संयुक्त राष्ट्रसंघ देखता रहा और वे सभी तिल-तिल कर मारे जाते रहे, मारे जा रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ आज यथास्थिति का संरक्षण करते हुए अपना अस्तित्व बचाने में लगा एक सफेद हाथी भर रह गया है। उसका अब कोई सामयिक संदर्भ बचा नहीं है। आज विश्व रंगमंच पर कोई जयप्रकाश है नहीं कि जो अपनी आत्मा का पूरा बल लगाकर यह कहता फिरे कि लोकतंत्र किसी भी देश का आंतरिक मामला नहीं होता है।

म्यांमार व अफगानिस्तान की इस करुण-गाथा में भारत की सरकारों की भूमिका किसी मजबूत व न्यायप्रिय पड़ोसी की नहीं रही है। राष्ट्रहित के नाम पर हम समय-समय पर म्यांमार और अफगानिस्तान को लूटने वाली ताकतों का ही साथ देते रहे हैं। हम यह भूल ही गए हैं कि ऐसी कोई परिस्थिति हो नहीं सकती है जिसमें किसी का अहित हमारा राष्ट्रहित हो।

शायद समय भी लगे और अनगिनत कुर्बानियां भी देनी पड़ें, लेकिन अफगानिस्तान की बहादुर जनता जल्दी ही अपने लोगों के इस वहशीपन पर काबू करेगी, अपनी स्त्रियों की स्वतंत्रता व समानता तथा बच्चों की सुरक्षा की पक्की व स्थाई व्यवस्था बहाल करेगी। सू ची फौजी चंगुल से छूटें या नहीं, फौजी चंगुल टूटेगा जरूर! हम खूब जानते हैं कि अपने पड़ोस में स्वतंत्र, समतापूर्ण और खुशहाल म्यांमार व अफगानिस्तान हम देखेंगे जरूर, लेकिन हम यह नहीं जानते कि इतिहास हमें किस निगाह से देखेगा।

Next Story

विविध