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RSS व जनसंघ का जमकर मुकाबला किया था नेहरू ने, प्रथम प्रधानमंत्री की 69 साल पुरानी बात क्या आज सच साबित हो रही है
पंडित जवाहर लाल नेहरू महात्मा गाँधी के साथ
जनज्वार ब्यूरो, दिल्ली। आज भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि है। पंडित जवाहरलाल नेहरू को आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में याद किया जाता है। भारत में शासन की एक लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली को स्थापित करने में पंडित जवाहरलाल नेहरू का महत्वपूर्ण योगदान था। पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों व विदेश नीति (गुटनिरपेक्षता की नीति) के लिए विश्व भर में पहचाने जाते हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म इलाहाबाद में 14 नवंबर 1889 को हुआ था। पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के स्वतंत्रता सेनानी व कांग्रेस पार्टी के नेता मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे। उनकी माता का नाम स्वरूपरानी था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इंग्लैंड से वकालत की पढ़ाई की थी। वकालत की पढ़ाई के बाद वे भारत लौट आये। भारत लौटने के बाद वे देश के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से कूद पड़े। गाँधी जी की नेतृत्व में उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पंडित जवाहरलाल नेहरू 9 बार जेल भी गए थे।
सांप्रदायिकता के खिलाफ अंतिम सांस तक लड़े नेहरू-
नेहरू ने देखा था कि कैसे साम्प्रदायिकता ने राष्ट्रपिता बापू महात्मा गाँधी को देश से छीन लिया था। उन्होंने विभाजन के दौरान हुये धार्मिक दंगों और दंगों के कारण हुई मानवीय त्रासदी को भी करीब से देखा और समझा था।
देश के बंटवारे के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सरदार बल्लभ भाई पटेल व राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा था। यह पत्र नेहरू के गहरे लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को दर्शाता है। अपने पत्र में उन्होंने लिखा था- 'हमारे देश में एक मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज है। और उसकी तादाद इतनी बड़ी है कि वह चाह कर भी कहीं नहीं जा सकते। यह एक मौलिक तत्व है जिस पर कोई बहस नहीं हो सकती। पाकिस्तान की तरफ से जो भी उकसावे की कार्यवाही हो या वहां के अल्पसंख्यकों को किसी भी अमानवीय व्यवहार व आतंक से गुजरना पड़े हमें अपने अल्पसंख्यकों के साथ सभ्य तरीके से पेश आना है। हमें उन्हें पूर्ण सुरक्षा देनी है और उन्हें एक लोकतांत्रिक देश के नागरिकों को मिलने वाले सभी तरह के अधिकार मिलने चाहिए ।अगर हम ऐसा करने में नाकाम होते हैं तो हमारे देश में एक बजबजाता हुआ फोड़ा पैदा हो जाएगा जो आने वाले वक्त में हमारी पूरी राजनीतिक प्रणाली को खत्म कर देगा। पत्र में आगे वे लिखते हैं- सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपनी नागरिक सेवाओं को सांप्रदायिक राजनीति के विषाणु से मुक्त रखें।'
1952 के आम चुनावों में 30 सितंबर को शहर लुधियाना से अपने चुनावी अभियान का श्रीगणेश करते हुये नेहरू ने अपने भाषण में सांप्रदायिकता के खिलाफ एक आर-पार की लड़ाई छेड़ने का आह्वान किया था। उन्होंने जनसंघ व अन्य सांप्रदायिक संगठनों की निंदा की थी। ये वे संगठन थे जो हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के नाम पर लोगों में विभाजन करना चाह रहे थे। नेहरू ने कहा था- ये शैतानी सांप्रदायिक तत्व अगर सत्ता में आ गए तो देश में बर्बादी और मौत का तांडव लाएंगे। उन्होंने 5 लाख लोगों की जनसभा में लोगों को अपने दिमाग की खिड़की खुली रखने और पूरी दुनिया की हवा उसमें आने दे की बात कही थी। नेहरू के द्वारा 69 साल पहले कही गयी यह बात आज हमारी आँखों के सामने सच होती दिख रही है।
2 अक्टूबर 1952 को महात्मा गांधी को याद करते हुए दिल्ली में जनसभा को संबोधित करते हुए नेहरू ने साम्प्रदायिकता को अपना सबसे बड़ा दुश्मन बताया था। उन्होंने कहा था- इसके लिए देश में कोई भी जगह नहीं रहने दी जाएगी और हम अपनी पूरी ताकत के साथ साम्प्रदायिकता पर प्रहार करेंगे।
नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के गृह राज्य बंगाल में जनसंघ (जो अब भाजपा है) को आरएसएस और हिंदू महासभा की नाजायज औलाद कहकर खारिज कर दिया था।
नेहरू ने जनसंघ और RSS के मंसूबों को किया था नाकाम
1959 में एक भारतीय संपादक ने जो नेहरू की नीतियों के कड़े विरोधी थे ने नेहरू की दो उपलब्धियों को रेखांकित किया था। संपादक ने लिखा-अगर नेहरू ने जरा भी कमजोरी दिखाई होती तो यह साम्प्रदायिक ताकतें भारत को एक हिंदू राज्य में तब्दील कर चुकी होतीं। जिसमें अल्पसंख्यकों को जरा भी सुरक्षा और अधिकार हासिल नहीं होता। इस बात का सदाबहार श्रेय भी नेहरू को ही जाता है कि उन्होंने अछूत जातियों को बराबरी का अधिकार देने पर जोर दिया था ताकि सार्वजनिक जीवन में और सरकारी क्रियाकलापों में भारत की धर्मनिरपेक्ष राज्यव्यवस्था में मनुष्य की बराबरी को पूरी तरह कायम रखा जा सके।
नेहरू के कार्यकाल पर इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं- छुआछूत को दूर करने में हुई प्रगति या सभी नागरिकों को समान अधिकार देने की बात जरूर असमान रही, या इसके बेचैन सुधारकों के हिसाब से जरूर धीमी रही लेकिन फिर भी भारत की आजादी के पहले 17 सालों में शायद उतनी प्रगति तो जरूर हुई, जितनी इससे पहले की 17 शताब्दियों में नहीं हुई थी।