12 साल बाद काठमांडू से घर लौटी आदिवासी लड़की एतवरिया उरांव की मार्मिक कहानी, गांव की ही महिला ले गयी थी फुसलाकर
12 साल बाद घर लौटी एतवरिया उरांव अपनी मां और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ
विशद कुमार की रिपोर्ट
जनज्वार ब्यूरो। झारखंड में बेरोजगारी का आलम यह है कि रोजगार की तलाश में राज्य से बाहर गये आदिवासी दूसरे राज्यों में जाकर बंधुआ मजदूर बने रहने को मजबूर हो जाते हैं, तो दूसरी तरफ आदिवासी लड़कियां मानव तस्करों के गिरफ्त में फंसकर कई तरह की प्रताड़ना का शिकार होने को अभिशप्त हैं।
इसी कड़ी में पिछले 30 वर्षों से अंडमान निकोबार में बंधुआ मजदूर रहे झारखंड के गुमला जिला व प्रखंड के फोरी गांव निवासी 60 वर्षीय फुचा महली (आदिवासी) को 3 सितंबर 2021 को झारखंड लाया गया। उसके बाद अब 5 सितंबर की शाम लोहरदगा की बेटी एतवरिया उरांव को 12 साल बाद झारखंड लाया गया है।
एक तरफ जहां फुचा महली के अपने परिवार से मिलकर आंखों में आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे, वहीं उनकी पत्नी लुंदी देवी की आंखों से आंसू भावुकता में अविरल बहते रहे थे। 12 साल बाद एतवरिया उरांव से मिलने के बाद उसकी मां धनिया उरांव व उसके स्वजनों सहित गांव वालों में भी जो खुशी देखने को मिली, वह शब्दो में बयान नहीं किया जा सकता।
झारखंड के लोहरदगा जिले के भंडरा थाना व प्रखंड के अंतर्गत मसमोना गांव की रहने वाली 32 वर्षीय एतवरिया उरांव को राज्य सरकार व जिला प्रशासन की पहल पर 12 वर्षों बाद नेपाल के काठमांडू से पिछले 5 सितंबर की शाम लोहरदगा उसके गांव लाया गया।
बेटी के लौटने की खुशी मां धनिया उरांव व उसके स्वजनों सहित गांव वालों में भी देखने को मिली, जो शब्दो में बयान नहीं किया जा सकता। बेटी के आने की खुशी में घर में स्वजनों ने तरह-तरह के झारखंडी पकवान व्यंजन बनाकर रखा था। 12 वर्षों बाद बेटी से मिलकर मां धनिया उरांव की आंखों में आंसू छलक आए। बेटी के घर पहुंचते ही मां व उसके स्वजनों ने एतवरिया का मिठाई खिलाकर स्वागत किया। मां ने बेटी को गले लगाकर कहा कि 'अब कहीं मत जाना।' मां से मिलकर एतवरिया की आंखें भी भर आई थी। उसके पिता बिरसू उरांव अब इस दुनिया में नहीं हैं।
एतवरिया का नेपाल के काठमांडू जाने की कहानी अभी तक साफ नहीं हो पाई है। एक तरफ जहां सरकारी सूत्र बताते हैं कि 12 वर्ष पूर्व एतवरिया उरांव अपने पिता बिरसू उरांव के साथ यूपी के गोरखपुर में ईंट भट्ठे में काम करने गई थी। इसी दौरान किसी ने बहला फुसलाकर एतवरिया को पहले यूपी से हरियाणा ले गया था, जहां से फिर उसे नेपाल भेज दिया गया। वहीं एतवरिया बताती है कि उसे गांव की एक चमार जाति की एक महिला ले गई थी। यह बात वह कई बार पूछने के बाद भी दोहराती रही, जबकि उसके परिवार वाले सरकारी सूत्र को ही दुहराते रहे।
एतवरिया के परिवार में दो बहनें और एक भाई हैं। बड़ी बहन मंजू उरांव जिसकी उम्र 35 वर्ष है, वह अपने ससुराल में रहती है। छोटी बहन अंगनी उरांव उम्र 29 साल, अपने बच्चों पति के साथ माँ धनिया उरांव साथ रहती है, क्योंकि उसके पिता बिरसू उरांव के मरने के बाद माँ धनिया अकेले पड़ गई थी। अत: अंगनी उरांव मां की देखभाल व सेवा करती है। बिरसू उरांव का करीब 5 साल पहले मौत हो गई थी।
एतवारिया का छोटा भाई सनी उरांव उम्र 26 साल, जो ईंट भट्ठा में काम करने के लिए दूसरे राज्य में चला गया है, उसका भी कोई अता पता नहीं है। 12 साल बाद वापस लौटी एतवरिया से मिलने वालों का उनके घर में हुजूम उमड़ पड़ा था। हर कोई एतवरिया से मिल कर उसका हाल पूछना चाह रहा था।
गौरतलब है कि इसी गांव का ही लुटूवा उरांव, पिता गोना उरांव 20 साल से लापता हैं। बिसु उरांव की बेटी लगभग 9-10 साल से लापता है। गन्दुर महतो का बेटा 1 साल से लापता है। माडो उरांव, पिता सुखू उरांव 6 माह से लापता है। वे कहां हैं? किस हाल में हैं? जिसकी कोई जानकारी घर वालों को नहीं है। ऐसे कई मामले हैं, जो इस बात के सबूत हैं कि आदिवासी विकास के नाम पर बना झारखंड अलग राज्य और एकीकृत बिहार के राजनैतिक चरित्र में आज तक कोई बदलाव नहीं आया है।
ऐसे हालात पर नरेगा वॉच के झारखंड राज्य संयोजक जेम्स हेरेंज कहते हैं, 'एतवारिया 12 वर्षों तक गुमनाम जिन्दगी बिताने के बाद अपनों के बीच अपने घर वापस आई है, यह वाकया किसी चमत्कार से कम नहीं है, लेकिन राज्य से करीब 15 लाख आदिवासी व दलित सामुदाय के लोग देश के विभिन्न शहरों में मजबूरीवश हर साल पलायन करते हैं, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। हेमंत सरकार को चाहिए कि अपने ही राज्य में दक्षता और क्षमता के अनुसार रोजगार के बेहतर अवसर मुहैया कराए। यदि मजबूरी में बाहर पलायन करना ही पड़े, तो अप्रवासी मजदूरों के लिए बने कानून के तहत ऐसे मजदूरों का रिकॉर्ड पंचायतों में रखना सुनिश्चित करते हुए उनको न्यूनतम वेतन, जान माल तथा सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करे।'
वहीं इसी गांव की समाज सेविका शनियारो कहती हैं, झारखंड से रोजगार को लेकर पलायन रोकने के लिए हर मजदूर को मनरेगा में साल में 100 दिन की जगह 150 दिन का काम मिले। वे कहती हैं कि कुटीर उद्योग को बढ़ावा मिले, जैसे - अगरबत्ती बनाने का, नमकीन बनाने का, मिट्टी के बर्तन बनाने का, साड़ी व अन्य कपड़ों की रंगाई का, बेकरी कार्नर, मसाला बनाने का, फर्नीचर बनाने का कुटीर उद्योग पर सरकार को ध्यान देना चाहिए।
कहना न होगा कि झारखंड में खनिज संपदाओं के अलावा कृषि, मछली पालन व वनोपज की अपार संभावनाएं हैं। कुटीर व लघु उद्योग से बेरोजगारी को बड़े स्तर पर दूर किया जा सकता है। लेकिन जो भी सरकारें आती हैं सभी कॉरपोरेट उद्योग के चक्कर में अपना राजनीतिक दाव-पेंच में लगी रहती हैं।
लोहरदगा लौटने के बाद एतवरिया ने श्रम अधीक्षक धीरेंद्र महतो के साथ उपायुक्त दिलीप कुमार टोप्पो से मुलाकात की। एतवरिया ने भी उसे नया जीवन देने के लिए राज्य सरकार और लोहरदगा जिला प्रशासन को धन्यवाद कहा है। लोहरदगा के जिलाधीश दिलीप कुमार टोप्पो ने दिल्ली से 5 सितंबर को एतवरिया के लौटने पर उसे बुके देकर स्वागत किया, साथ ही उसके उज्जवल भविष्य के लिए शुभकामनाएं भी दी उसे नकद राशि के अलावा पहचान पत्र, आधार कार्ड, राशन कार्ड और मनरेगा में कार्य देने के लिए जॉब कार्ड बनाने संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिया है।
उन्होंने आश्वासन दिया कि एतवरिया अब रोजगार को लेकर दूसरे प्रदेश में नहीं जाएगी, बल्कि वह अपने गांव में ही काम करेगी। इसके अलावा लोहरदगा जिला प्रशासन की ओर से उसे अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ प्रावधान के तहत दिया जाएगा, का भी आश्वासन दिया गया। लेकिन अभी तक कोई अधिकारी उसे देखने उसके गांव भी नही गया है। अलबत्ता गाँव के राशन डीलर द्वारा मात्र 20 किलो ग्राम चावल देकर औपचारिकता पूरी कर ली गयी है, कोई भी अधिकारी अभी तक इसके गांव झांकने तक नहीं आया। मतलब केवल घोषणा से ही काम चला लिया गया है।
12 वर्ष बाद लोहरदगा लौटने के बाद कैसा लग रहा है? पूछने पर एतवरिया कहती है, अपने गांव आने की खुशी कितनी है, वह बता नहीं सकती। अब किसी भी स्थिति में अपने गांव को छोड़कर दूसरे प्रदेश कभी नहीं जाएंगे। बारह वर्ष बाद लौटने के बाद बहुत अच्छा लग रहा है।
एतवरिया के गायब होने के बाद परिवार वाले उसे पाने की उम्मीद खो चुके थे। इसी बीच नेपाल के किसी व्यक्ति ने ट्वीट किया कि लापता हुई एतवरिया काठमांडू के एक आश्रम में है। इसकी जानकारी मिलने के बाद झारखंड सरकार ने उसकी वापसी के प्रयास शुरू किये।
नेपाल के काठमांडू से ट्वीट के जरिये एतवरिया की जानकारी मिलने के बाद उसकी सुरक्षित घर वापसी के लिए राज्य सरकार ने पहल की और नेपाल और भारत के दूतावासों से साथ बातचीत की। फिर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए उसकी मां और बड़ी बहन से उसकी पहचान कराई गई, तो पता चला कि वह बिरसू उरांव की बेटी है। हालांकि बिरसू अब इस दुनिया में नहीं हैं।
झारखंड के गुमला जिला व प्रखंड के फोरी गांव निवासी 60 वर्षीय फुचा महली (आदिवासी) 30 वर्षों बाद 3 सितंबर 2021 को अंडमान निकोबार से लाया गया था। फुचा महली 30 साल पहले काम की तलाश में अंडमान गए थे, परंतु वहां फंस गये थे। वे वहां पैसा कमाने गए थे, ताकि परिवार को बेहतर सुविधा मुहैया करा सकें। अचानक कंपनी बंद हो गई। खाने के लाले तक पड़ गए। घर का रास्ता तो पता था, लेकिन किराए के लिए पैसा कहां से लाते। न जाने कितनों को गुहार लगायी, लेकिन किसी ने मदद नहीं की। कई दिन और रातें भूखे गुजारनी पड़ी। लोगों के लिए लकड़ी चीरते थे, तब वे खाना देते थे। खाने के लिए लोगों के घरों में नौकर बनकर उनकी गाय को खिलाने, चराने का काम किए, तब किसी तरह दो टाइम का खाना मिलता था।
कहना ना होगा कि ऐसे मामले हैं जो अभी पर्दे में हैं। झारखंड आदिवासी बहुल क्षेत्र से काफी संख्या में महिला-पुरूष रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं। मगर लगभग लोग फुचा महली और एतवरिया जैसी स्थिति के शिकार होकर तड़पते रहते हैं। बहुत कम लोग एतवरिया व फुचा जैसे है, जिन्हें देर से ही सही लेकिन उन्हें अपनी धरती नसीब होती है।