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जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि प्रधानता वाला हमारा देश गंभीर खतरे में, खाने-पीने के सामान की कीमत में होगी बेतहाशा वृद्धि

Janjwar Desk
2 Dec 2023 9:43 PM IST
जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि प्रधानता वाला हमारा देश गंभीर खतरे में, खाने-पीने के सामान की कीमत में होगी बेतहाशा वृद्धि
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संयुक्त राष्ट्र वैश्विक खाद्य सम्मेलन में किसानों के बजाय पूंजीपतियों को मिला महत्व (photo : Dharmender Srivastava)

Climate change : भारत के 40% कार्यबल को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से गंभीर खतरे में है। फसल पैदावार कम होने के चलते इस साल पहले ही खाद्य कीमतों में 11.51% की वृद्धि देखी जा रही है और इस बीच बढ़ते तापमान के चलते पैदावार के और कम होने की पूरी संभावना है....

Climate Change : भारत के 40% कार्यबल को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से गंभीर खतरे में है। फसल पैदावार कम होने के चलते इस साल पहले ही खाद्य कीमतों में 11.51% की वृद्धि देखी जा रही है और इस बीच बढ़ते तापमान के चलते पैदावार के और कम होने की पूरी संभावना है।

'भारत में कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव' नामक एक हालिया विश्लेषण में, क्लाइमेट ट्रेंड्स ने बदलते ग्रीष्मकालीन मानसून के प्रति भारत की कृषि की संवेदनशीलता को दर्शाने वाले साक्ष्य जुटाये हैं। यह साक्ष्य हमारी कृषि पर अत्यधिक निर्भर अर्थव्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।

वैज्ञानिक साक्ष्य और सार्वजनिक डेटा से पता चलता है कि 1950 के दशक के बाद से ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा में 6% की गिरावट आई है, जो मध्य क्षेत्र में 10% तक पहुँच गई है, जहाँ 60% कृषि बारिश पर निर्भर करती है। कमजोर मानसून और तेज़ बारिश के कारण देश में बाढ़ आई, जिससे फसल उत्पादन, खाद्य कीमतें और निर्यात प्रभावित हुआ है।

जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि में होने वाले नुकसान में चावल की फसल और गेहूं की पैदावार में कमी शामिल है। विश्लेषण से पता चलता है कि ग्रीनहाउस गैसों और मानव-जनित प्रदूषण को सीमित करने से 1985-1998 के दौरान चावल की फसल में 14.4% की वृद्धि हो सकती थी। अध्ययन में कई राज्यों में 1981-2001 तक गेहूं की पैदावार में 5.2% की कमी का अनुमान लगाया गया है, और माना जाता है कि ग्रीनहाउस गैसों के कारण 1980 से 2010 तक गेहूं और चावल की पैदावार में काफी कमी आई है।

साल 2000 के बाद से हिमालय क्षेत्र में बर्फ की क्षति दोगुनी हो गई है, जिससे सेब की खेती प्रभावित हुई है। असम, बिहार, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, जलवायु परिवर्तन ने 1966-2002 की अवधि में संचयी चावल की फसल को लगभग 6% (लगभग 75 मिलियन टन) कम कर दिया है। इसके अतिरिक्त, जून और जुलाई 2023 में अनियमित मानसून के कारण खरीफ फसल की बुआई में देरी हुई, जिसके परिणामस्वरूप पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 9% कम क्षेत्र में बुआई हुई।

रीडिंग यूनिर्सिटी में अनुसंधान वैज्ञानिक डॉ. अक्षय देवरस चेतावनी देते हैं कि मौसम की स्थिति में थोड़ी सी विसंगतियां कृषि को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। ग्लोबल वार्मिंग चरम मौसम की घटनाओं को बढ़ा रही है, जिससे कृषि क्षेत्र नुकसान के प्रति अधिक संवेदनशील हो गया है।

पुणे विश्वविद्यालय में भूगोल के सहायक प्रोफेसर राहुल टोडमल कहते हैं कि गर्म जलवायु परिस्थितियाँ कृषि उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, विशेष रूप से ज्वार, बाजरा, दालें, गन्ना, प्याज और मक्का जैसी पारंपरिक वर्षा आधारित और सिंचित नकदी फसलों के लिए। बढ़ते तापमान का असर गेहूं की गुणवत्ता और पैदावार पर भी पड़ सकता है।

अपनी प्रतिक्रिया देते हुए क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला बढ़ती जलवायु परिवर्तनशीलता के गंभीर परिणामों पर जोर देती हैं। जहां लंबी अवधि में मानसूनी बारिश में 10% की कमी आई है, वहीं गर्मी, सूखा और बाढ़ जैसी चरम घटनाओं ने कृषि के लिए चुनौतियां बढ़ा दी हैं। चावल और गेहूं की फसलें, जो कुल वार्षिक अनाज उत्पादन का 85% हिस्सा बनाती हैं, जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। इन पैटर्न में कोई भी बदलाव भारत की अर्थव्यवस्था और खुशहाली को वृहद और सूक्ष्म दोनों स्तरों पर प्रभावित करता है।

भारत भर के किसान जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की बात स्वीकारते हैं। इनमें कुल्लू जिले में खराब सेब उत्पादन से लेकर उत्तराखंड में अनियमित वर्षा और घटती पैदावार शामिल हैं। कंचनजंगा बायोस्फीयर रिजर्व में भी किसानों को बढ़ते तापमान और अप्रत्याशित वर्षा पैटर्न का एहसास होता है। वहीं पश्चिम त्रिपुरा में किसान बढ़ती बीमारियों और कम बारिश के दिनों की बात से जुड़ी अपनी परेशानियाँ बताते हैं, जबकि कांचीपुरम जिले के किसानों को मानसून में देरी और मिट्टी की नमी में कमी का सामना करना पड़ रहा है, जिससे फसलें प्रभावित हो रही हैं।

खाद्य नीति विश्लेषक, देविंदर शर्मा, अनियमित वर्षा के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए हरियाणा में फसल की कमी और पंजाब में बाढ़ की भविष्यवाणी करते हैं। वो कहते हैं कि पूर्वी भारत में असमान रूप से वितरित बारिश चावल की पैदावार को प्रभावित कर सकती है, जिससे अनुकूलित सिंचाई उपायों की आवश्यकता पर बल दिया जा सकता है, जो भूजल के उपयोग और पुनर्भरण को प्रभावित कर सकता है।

इस बीच ध्यान देने वाली बात ये है कि खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ रही है, टमाटर की कीमतें 700% से अधिक बढ़ गई हैं, जिससे प्याज पर 40% निर्यात शुल्क लगाया गया है। MoSPI के अनुसार, जुलाई 2023 में कुल खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति 11.51% तक पहुंच गई, जिसका असर सब्जियों, दालों, अनाज, मसालों और दूध पर पड़ा।

अत्यधिक गर्मी फसल की पैदावार पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है, और अकेले 2022 की हीट वेव से भारत और पाकिस्तान में कम से कम 90 मौतें होने का अनुमान है। मानव-जनित जलवायु परिवर्तन से जुड़े बढ़ते तापमान से खाद्य फसल की पैदावार में और कमी आने का अनुमान है, जिससे खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।

चूँकि भारत जलवायु संकट की कड़ी पकड़ से जूझ रहा है, इसलिए देश की कृषि विरासत, इसकी अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा को सुरक्षित करने के लिए तत्काल उपायों की आवश्यकता है। अंततः, एक टिकाऊ भविष्य के लिए फसलों का विविधीकरण और लचीली कृषि पद्धतियाँ अब बेहद महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो गयी हैं।

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