ग्राउंड रिपोर्ट : औद्योगिक क्षेत्र और रेलवे स्टेशन के बाद अब डैम से खतरे में दुमका के 6 गांवों के 10 हजार आदिवासी
बड़ा धनेश्वर राय चश्मा वाले अन्य ग्रामीणों के साथ अपनी पीड़ा बताते हुए।
दुमका से राहुल सिंह की ग्राउंड रिपोर्ट
जनज्वार। झारखंड के दुमका जिले के सदर प्रखंड के बाबूपुर गांव के करीब 65 साल के बुजुर्ग बड़ा धनेश्वर राय गर्व से बताते हैं कि उन्होंने गांव में स्कूल के लिए अपनी जमीन दी। स्कूल गांव के बच्चों की पढाई-लिखाई के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही उसके भवन का उपयोग अन्य जरूरी कार्याें के लिए भी होता है। यहां तक की 2002 में आयी बाढ में भी गांव में सबसे ऊंची जगह पर होने के कारण लोगों ने उसमें ही शरण ली थी। नया मदनपुर रेलवे स्टेशन निर्माण और गांव में बाबूपुर औद्योगिक क्षेत्र निर्माण के लिए भी उनकी जमीन ली गई। स्कूल के लिए जमीन देने की बात वे जहां उत्साह व खुशी से बताते हैं, वहीं इन परियोजनाओं के लिए जमीन देने को लेकर उनका लहजा शिकायती हो जाता है।
तीन दशक पहले बाबूपुर औद्योगिक क्षेत्र का निर्माण शुरू हुआ और आज उसके लिए ली गई उनकी जमीन को लेकर उन्हें अफसोस होता है। इसकी वजह है उससे होने वाला प्रदूषण जिसे वातावरण के साथ उर्वर खेतिहर भूमि भी खराब हो रही है। उस पर औद्योगिक इकाइयों में स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं मिला, भले दूसरों के लिए रोजगार के कई विकल्प उपलब्ध हो गए।
बाबूपुर औद्योगिक क्षेत्र से फैल रहा कचरा और प्रदूषण गांव की बहुसंख्यक आदिवासी आबादी को असहज करती है, क्योंकि ये प्रकृतिजीवी हैं। स्वच्छ वातावरण व हरियाली इनके जीवन के प्रमुख आधार हैं।
दरअसल, बाबूपुर गांव झारखंड की उपराजधानी का दर्जा प्राप्त दुमका शहर के बिल्कुल बाहरी इलाके में दुमका-देवघर मुख्यमार्ग पर मयूराक्षी नदी के तट पर बसा है। राजनीतिक रूप से यह शहर राज्य का सबसे हाइप्रोफाइल शहर है, क्योंकि सूबे के बड़े नेताओं शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी और मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की राजनैतिक कर्मभूमि यही शहर रहा है। बीते दो दशकों में तेज शहरीकरण, रेल कनेक्टिविटी सें इस गांव ने अर्धशहरी स्वरूप ले लिया है और भविष्य में पूर्ण शहरीकरण के बाद स्थानीय लोगों की आजीविका छिन जाने व विस्थापन जैसी स्थितियां उत्पन्न की पूरी संभावना है।
इंडस्ट्रियल एरिया के बाद डैम निर्माण से बढेगा संकट
बाबूपुर गांव में बाबूपुर इंडस्ट्रियल एरिया बसाया गया है और कई मिल, फैक्टरियां आदि यहां बीते दो दशकों खुल गई हैं। यह सिलसिला जारी है और आने वाले सालों में इस औद्योगिक क्षेत्र के अधिक गहन होने की संभावना है। इन कारखानों से निकलने वाले प्रदूषण से गांव के लोग परेशान हैं ही कि इस बीच उनके सामने एक और समस्या आ गई है।
गांव में मयूराक्षी नदी पर वियर डैम का निर्माण करने की योजना है। इस डैम का निर्माण बासुकीनाथ धाम में पानी आपूर्ति के लिए किया जा रहा है। बासुकीनाथ दुमका जिले का ही एक कस्बाई शहर है जो प्रसिद्ध शिव मंदिर बाबा बासुकीनाथ के लिए जाना जाता हैं, जहां सालों भर बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का जाना लगा रहता है।
वियर डैम के निर्माण ने बुजुर्ग बड़ा धनेश्वर राय की चिंता को बढा दी है। वे कहते हैं कि इस डैम के निर्माण से बारिश के दिनों में पानी का प्राकृतिक प्रवाह रूक जाएगा और वह हमारे खेतों में चला आएगा और हमारी खेती खत्म हो जाएगी।
बाबूपुर गांव के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन खेती ही है। ग्रामीण ज्योतिष मुर्मू कहते हैं कि इस डैम के निर्माण से सिर्फ बाबूपुर ही नहीं आसपास के आधा दर्जन गांव के लोगों के अस्तित्व पर संकट पैदा हो जाएगा। इन छह गांवों में करीब दस हजार की आबादी है और सभी लोग खेती के जरिए ही जीविकोपार्जन करते हैं। ज्योतिष के अनुसार, डैम का निर्माण होने पर बाबूपुर के अलावा बांदो, पिपरा, सरसाबाद, हररखा, ताराटीकर गांव की खेतिहर जमीन बर्बाद हो जाएगी और फिर उसके बाद वहां के लोगों का क्या होगा?
आइटीआइ कर प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे 26 साल के बसंत सोरेन कहते हैं, बेतरतीब ढंग से बनाए गए चेकडैम से पहले से ही हमारी खेती प्रभावित हुई है। चेकडैम का निर्माण इतने गलत ढंग से किया गया कि उससे होकर पानी नहीं गुजरता उलटे अवरोध पैदा होता है और गाद जमा होने के कारण पानी अपने बहाव के लिए दूसरा रास्ता खोज लेता है और वह हमारे खेतों की ओर होता है, जिससे हमारे जमीन का काफी कटाव हुआ है और हर साल फसलें बर्बाद होती हैं।
कई गांव के लोग बैठक कर कर चुके हैं विरोध
मयूराक्षी पर बनने वाली वियर डैम के निर्माण को लेकर कई गांव के लोग अलग-अलग बैठकें कर अपना विरोध पिछले दो महीने से जताते रहे हैं। ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और डीसी राजेश्वरी बी को इस संबंध में ज्ञापन भी सौंपा है और तकै देकर बताया है कि वे इसका विरोध क्यों कर रहे हैं?
जामा प्रखंड में पड़ने वाली टेंगधोवा पंचायत के बांदो गांव में लोगों ने मीटिंग कर इस डैम निर्माण का विरोध अगस्त में जताया था। लोगों का कहना है कि डैम बनने से यहां का जलस्तर ऊंचा हो जाएगा और आसपास का इलाका डूब क्षेत्र में तब्दील हो जाएगा। आसपास के इलाके जलमग्न हो जाएंगे और पशुओं के लिए चारा की भी दिक्कत हो जाएगी। ग्रामीणों को दुमका शहर आने-जाने में भी दिक्कत होगी। सरसाबाद के ग्रामीण भी विरोध जता चुके हैं और उनका कहना है कि 2000 व 2002 में आयी बाढ में एक टोला पूरी तरह डूब गया था उसे लोगों ने फिर से बसाया। जब बाढ और गलत ढंग से चेकडैम के निर्माण से यह हालात हुआ था तो ब डैम बनने से हालात कितने भयावह हो सकते हैं, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
ग्रामीणों का कहना है कि आसपास के इलाकों से चार सहायक नदी मयूराक्षी में मिलती है जिससे जलस्तर पहले ही बढा रहता है और जब वियर डैम का निर्माण हो जााएगा तो इस क्षेत्र में पानी जमाव होगा जिससे हमारी जमीन को डूबने से कोई नहीं बचा सकता है।
औद्योगिकीकरण ने कैसे बदल दी बाबूपुर की सूरत
औद्योगिकीकरण से आमतौर पर लोग खुश होते हैं, लेकिन बाबूपुर के ग्रामीण इससे खुश नहीं हैं। लोगों का कहना है कि बाबूपुर औद्योगि क्षेत्र में जो मिल या कारखाने लगे हैं उसमें बाहर से आए लोग काम करते हैं, जबकि स्थानीय लोगों को 150-200 की दिहाड़ी पर मजदूर का काम मिलता है। वह रोजगार भी गांव के 15-20 लोगों को ही मिला है। इससे उलट उन मिलों से नुकसान कई गुणा अधिक है।
गांव में सात राइस मिल, तीन आटा मिल और दूसरे कारखाने
बाबूपुर गांव में बनाए गए औद्योगिक क्षेत्र में सात राइस मिल, दो आटा मिल, कपड़ा कारखाना सहित दूसरी औद्योगिक इकाइयां हैं। राइस मिल से निकलने वाले कचरे को गांव की खाली जमीन पर या सड़कों पर यूं ही यहां-वहां फेंक दिया जाता है। उसके निबटारे के लिए कोई सिस्टम नहीं है।
मिलों से निकलने वाला प्रदूषित पानी औद्योगिक क्षेत्र के पीछे कृषि भूमि में प्रवाहित हो रहा है और धीरे-धीरे एक छोटा तालाब बन गया है। भविष्य में औद्योगिक प्रदूषित जल का यह तालाब विशाल आकार लेगा, क्योंकि जैसे औद्योगिक इकाइयां बढ रही हैं प्रदूषित पानी का प्रवाह भी बढ रहा है। इस प्रदूषित जल से खेती भूमि बर्बाद हो रही है। भविष्य में इस प्रदूषित जल का प्रवाह और अधिक होने पर उसके मयूराक्षी नदी में जाने का भी खतरा है। फिलहाल मयूराक्षी नदी का पानी स्वच्छ है और औद्योगिक कचरों से मोटे तौर पर यह बची हुई है।
ज्योतिष मुर्मू कहते हैं कि गर्मी के दिनों में मिलों से निकलने वाले कचरे से अधिक तकलीफ होती है और वातावरण में नमी नहीं होने के कारण खेतों व सड़कों पर गिराये गए डस्ट हवा में मिल जाते हैं, जिससे आंखों में जलन होती है और यहां तक कि किसी मेहमान को पीने के लिए पानी देने पर मिनट भर में उसमें कचरा गिरने से वह प्रदूषित हो जाता है।
ज्योतिष मुर्मू बताते हैं कि औद्योगिक इकाइयों के कचरे को खाने से गांव के करीब 15 पशुओं की मौत भी अबतक बीमार होने से हो चुकी है। कचरे के ढेर पर पशु खुद के लिए आहार ढूंढते हैं और कई बार ऐसी चीजें खा लेते हैं जिससे वे बीमार हो जाते हैं और फिर उनकी मौत हो जाती है।
प्रदूषित जल के कारण आसपास के उर्वर भूमि खराब हो रही हैं और उसका दायरा बढता जा रहा है। दरअसल, अंधे विकास से प्रकृति के सबसे करीब रहने वाले आदिवासी समाज को सबसे ज्यादा तकलीफ होती है। इससे उनकी पारंपरिक आजीविका छिन जाती है और आधुनिक विकास में उन्हें ठीक से हाशिये की हिस्सेदारी भी नसीब नहीं होती है।
ग्रामीणों को उम्मीद है कि जल, जंगल और जमीन की राजनीति करने वाले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन उनकी बातों को समझेंगे और कोई वियर डैम निर्माण व औद्योगिक कचरे को लेकर कोई बेहतर रास्ता निकालेंगे।