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उद्योंगों के मामले में स्वर्णिम इतिहास वाला बिहार आज प्रवासी मजदूरों और बेकारी का बना सबसे बड़ा सेंटर

Janjwar Desk
11 Jun 2020 9:35 AM GMT
उद्योंगों के मामले में स्वर्णिम इतिहास वाला बिहार आज प्रवासी मजदूरों और बेकारी का बना सबसे बड़ा सेंटर
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बिहार पहले उद्योग प्रधान राज्य हुआ करता था जो अब उद्योगविहीन होकर दूसरे राज्यों को अपनी श्रमशक्ति का उपयोग करते हुए बेबस निगाहों से देख रहा है।

जनज्वार ब्यूरो पटना। अभी बिहारी मजदूरों का पलायन और बिहार में रोजगार और उद्योग-धंधों का अभाव सुर्खियों में है लेकिन बिहार कभी बड़े उद्योगों का केंद्र हुआ करता था। यहां इतने बड़े-बड़े कल-कारखाने थे जिनके कारण कई जिलों में उद्योग नगरियां बसीं हुईं थीं। आज हम बिहार के उस काल के उद्योग-धंधों की चर्चा करते हुए उन कारकों का विश्लेषण करने की भी कोशिश करेंगे जिनके कारण इन सभी उद्योगों का शटडाउन हो गया।

वैसे वर्ष 2005 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सत्ता में आते ही बिहार में एक बार फिर से उद्योग-धंधे स्थापित करने की सुगबुगाहट शुरू हुई थी। देश विदेश कई प्रस्ताव भी आए। खासकर पॉवर प्रोजेक्ट पर और खाद्य प्रोसेसिंग पर। कुछ उद्योग जैसे हाजीपुर में साइकिल फैक्ट्री, पटना के बिहटा में सूत का कारखाना, सासाराम में सीमेंट कारखाना आदि स्थापित होने की प्रक्रिया भी हुई लेकिन यहां भी पुराने कारक फिर से उभर गए और ये उद्योग असमय ही काल-कलवित हो गए। उद्योग यहां पनप नहीं पाया। कई जिलों में राइस मिल भी लगे लेकिन चावल घोटाला के रूप में एक बड़ा घोटाला सामने आ गया और एक-एक कर ये मिल भी बंद होते चले गए।

भागलपुर एक समय में सिल्क सिटी के नाम से जाना जाता था। उस दौर में यहां सिल्क उद्योग और हैंडलूम के 10 हजार से अधिक केंद्र थे। लाखों बुनकर इससे रोजगार पाते थे। अप्रत्यक्ष रूप से भी एक बड़ी आबादी को रोजगार मिला हुआ था लेकिन उस दौर की सरकारी नीतियों, बिजली की अनुपलब्धता, कार्यशील पूंजी के अभाव आदि ने भागलपुर सिल्क सिटी को समाप्त कर दिया। बांका जिला में भी सिल्क के कीड़े से धागा बनाया जाता था और हजारों लोग इस उद्योग से जुड़े थे लेकिन चाइनीज सिल्क ने यहां के उद्योग का बंटाधार कर दिया। सिल्क की खेती बंद हो गई, बुनकर बाहर जाने को मजबूर हो गए और उनपर प्रवासी का तमगा लग गया।

बिहार का बेगूसराय जिला भी कभी बड़े और मध्यम उद्योग-धंधे का केंद्र हुआ करता था। खाद कारखाना, रिफाइनरी, रेल यार्ड आदि हुआ करते थे लेकिन खाद कारखाना अब बंद हो चुका है। स्थानीय लोग खाद कारखाना बंद होने के पीछे जो कारण बताते हैं, वह हमारे नीति नियंताओं की गैर तकनीकी समझ को दर्शाता है। खाद कारखाना में गैस का प्रयोग होता है। जहां गैस इस्तेमाल होगा वहां की कोई पाइप ज्यादा दिनों तक नहीं टिकती, उसे बदलना पड़ता है। इस खाद कारखाने के पाइप को भी बदलते रहने की जरूरत थी लेकिन तंत्र ने ध्यान नहीं दिया। कहा गया कि पीतल या तांबे के पाइप में लागत ज्यादा आ रही थी। उत्पादन धीरे-धीरे कम होते-होते बंद हो गया और इसी के साथ बिहार का एक बड़ा कारखाना लचर सरकारी नीतियों की भेंट चढ़ गया।

बिहार का रोहतास जिला एक जमाने में डालमिया नगर के नाम से देश भर में विख्यात था। सोन नदी के किनारे बसा ये शहर औद्योगिक हब के रूप में बसा हुआ था। यहां वनस्पति, सीमेंट, कागज आदि के बड़े कारखाने थे। छोटी-बड़ी चार दर्जन से ज्यादा और फैक्ट्रियां भी थीं जो बड़े उद्योगों के लिए पूरक का काम करतीं थीं। यहां फैक्ट्री के कामगारों- मजदूरों के लिए सुविधायुक्त कॉलोनियां बसीं हुईं थीं। लाखों लोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रोजगार से जुड़े हुए थे। स्थानीय जानकार लोग बताते हैं कि राजनैतिक दखलंदाजी और वैध-अवैध मजदूर संघों की यूनियनबाजी ने धीरे-धीरे यहां के उद्योगों को ग्रहण लगाना शुरू किया और उद्यगपति डालमिया परिवार की तीसरी पीढ़ी के समय कारोबार को समेट लिया गया। आज इस क्षेत्र से हजारों की संख्या में लोग पलायन करते हैं और बेरोजगारी चरम पर है।

बिहार के मुंगेर में देश के मशहूर आईटीसी ग्रुप के कारखानों के अतिरिक्त भी कई छोटे-बड़े कारखाने थे। बन्दूक फैक्ट्री थी। बंदूक और आईटीसी कारखाना अभी भी है लेकिन बंदूक कारखाने में जहां पहले 39 कारखाने थे,अब महज 9 ही बचे हैं। अब यह जिला अवैध आग्नेयास्त्रों के निर्माण के केंद्र के रुप में जाना जाने लगा है। कभी आईटीसी के कारखाने में ब्रांडेड सिगरेट का बड़े पैमाने पर निर्यात होता था। यहां तैयार सिगरेट विदेशों तक जाते थे।पर समय के गर्त में यह कारखाना भी अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में में लगा हुआ है और आटा आदि बना कर कारखाने को बचाने की कोशिश हो रही है।

बिहार के सारण जिले का मढौरा भी कभी औद्योगिक हब हुआ करता था। सारण इंजीनियरिंग, सारण डिस्ट्रिलरी, मॉर्टन मिल, चीनी मिल आदि दर्जनों कल-कारखाने थे। ये सब कारखाने आजादी के पहले के थे और सारण इंजीनियरिंग के बने औजार उस समय भी पानी के जहाज से विदेशों में भेजे जाते थे। मॉर्टन मिल के चॉकलेट भी 70 के दशक तक विदेशों में जाते थे। इन कारखानों से हजारों लोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रोजगार से जुड़े हुए थे लेकिन स्थानीय लोग इन कारखानों के बर्बाद होने के पीछे समय-समय पर लागू किए सरकारी नीतियों को जिमनेदार मानते हैं जिनके कारण उद्यगपतियों ने धीरे-धीरे हाथ खींच लिए।

राज्य के सीमांचल के जिले भी उद्योग-धंधों में पीछे नहीं थे। कटिहार,पूर्णिया आदि जिलों में जूट मिल हुआ करते थे जो स्थानीय समस्याओं और राजनीति की भेंट चढ़ चुके हैं। बिहार के छपरा, सीवान, गोपालगंज, चंपारण सहित करीब दर्जनभर जिलों में चीनी मिल भी थे। चीनी मिलों के कारण इन जिलों एवं आसपास के जिलों के किसान प्रचुर मात्रा में गन्ना उत्पादन करते थे। गन्ना नकदी फसल होती थी। ये चीनी मिल हजारों लोगों के प्रत्यक्ष रोजगार से जुड़े हुए थे।

न्ना किसानों के फसल के खरीददार होने के कारण कृषि भी उन्नत अवस्था मे थी लेकिन जानकार बताते हैं कि सरकारी नीतियों ने सबका बेड़ा गर्क कर दिया। आज ये चीनी मिल जर्जर अवस्था में आ गए हैं। इनकी बेशकीमती जमीनें भूमाफियाओं के कब्जे में जा रहीं हैं। इन मिलों पर किसानों के करोड़ों रुपए बकाया हैं। कई मिलों पर विभिन्न प्रजार के केस-मुकदमे भी चल रहे हैं।

गर इन सारे मामलों पर गौर करें तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि बिहार पहले उद्योग प्रधान राज्य हुआ करता था जो अब उद्योगविहीन होकर दूसरे राज्यों को अपनी श्रमशक्ति का उपयोग करते हुए बेबस निगाहों से देख रहा है। इन उद्योगों के बन्द होने के लिए कोई एक कारक जिम्मेदार भी नहीं।राजनैतिक,स्थानिक परिस्थितियां तो जिम्मेदार हैं ही, वैध-अवैध मजदूर संगठनों की यूनियनबाजी,कारखानों का अपग्रेडेशन न होना भी जिम्मेदार हैं। साथ ही बिजली,परिवहन, विधि-व्यवस्था की कमी ने भी भूमिका निभाई है।

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