Hindi Poems on Roti/Chapati रोटी अपने आप में एक महाकाव्य है
महेंद्र पाण्डेय
Hindi Poems on Roti/Chapati: रोटी जिन्दगी है, अपने आप में एक महाकाव्य है – गोल, पतली, कहीं जली, कहीं पकी रोटी को देखकर और खाकर पता नहीं कितने किस्से और कवितायें लिखी गयी होंगीं| पर, अब माहौल बदल गया है, ज़माना पस्त और बर्गर का आ गया है| आज के दौर में रोटी खाने वाले भी जिस अन्न से रोटी बनती है, उस अन्न को पैदा करने वालों को अपनी गाडी से कुचल रहे हैं, पैरों तले रौंद रहे हैं और उनपर गोलियों की बौछार कर रहे हैं| चार महीनों की कठिन तपस्या के बाद अन्न की एक पैदावार कर पाने वालों को सत्ता के नशे में चूर नेता केवल 2 मिनट में ठीक करने की बात कर रहे हैं| रोटी के टुकड़ों पर पलती पुलिस भी अन्नदाताओं को कुचल रही है और सत्ता की रखैल बन बैठी है| जाहिर है, रोटी का समाज में रुतबा कम होता जा रहा है, और अब यह धीरे-धीरे साहित्य से भी और कला के दूसरे आयामों (in literature and art) से ओझल होती जा रही है|
कवि हेमंत जोशी (Hemant Joshi) की एक कविता का शीर्षक है, रोटी| इस कविता में कवि ने शायद ही रोटी का कोई आयाम छोड़ा हो – इसमें रोटी का इतिहास है, समाजशास्त्र है, रोटी के सन्दर्भ में बदलती मानसिकता है और रोटी को लेकर सत्ता की सोच भी है|
रोटी/हेमंत जोशी
याद रखें कि मेरा पेट भरा है
कहीं कोई बंजर नहीं, हर तरफ़ हरा-भरा है
पेट को हमेशा-हमेशा रखने के लिए भरा-पूरा
जंगल से शहरों और शहरों से महानगरों तक फिरा मैं मारा-मारा|
जानवरों के शिकार से
आदमख़ोरी से भी पेट भरा है|
जब दिखे बंजर मैदान
बदला उनको खलिहानों में
और एक दिन ईजाद की रोटी
रोटी ज्वार की
रोटी बाजरे की
रोटी मडुवे की
रोटी मक्के की और गेहूँ की
रोटी गोल-गोल जैसे पृथ्वी
रोटी चाँद हो जैसे
रोटी सूरज की छटाओं सी
अलग-अलग रंगों की
अलग-अलग स्वाद सी|
जबसे बनाई रोटी
पेट भरता नहीं केवल बोटी से
दीगर है बात कि राजे-रजवाड़े और उनके दरबारी
सदा से खाते रहे हैं छप्पन भोग
पर हमने तो रोटी ही खाई
रोटी की ही गाई
दो रोटी पेट पाल
दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ
पता नहीं प्रभु कौन है अब
रोटी पर इतना सोचा
नया अर्थ ही दे डाला
रोटी तब नहीं रह गई केवल रोटी
हो गई रोज़ी-रोटी
हो गई मजबूरी इतनी
हाय पापी पेट क्या न कराए
चोरी-चकारी, हत्याएँ, हमले, प्रपंच
जेब काटना, बाल काटना
पेड़ काटना, कुर्सी बनाना
कपड़े बनाना, पढ़ना-पढ़ाना
बहुत विकास किया भाई
नई-नई चीज़ें बनाईं
बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी
कारें, बसें, रेल की सवारी
ढेरों नशे, ढेरों बीमारी
ढेरों दवाएँ और महामारी
विकास ही विकास चहुँ ओर
नए-नए हथियार, टैंक, युद्धपोत, विमान
अमीरी और ग़रीबी
ऐय्याशी और मज़दूरी
खाए-अघाए लोग और भुखमरी
पता ही नहीं चला
कब सत्ता के दलालों ने
लोकतन्त्र के नाम पर रोटी की बहस को
बदल दिया विकास की बहस में
ज्ञान-विज्ञान-अनुसन्धान और प्रबन्धन की बहस में|
आज जब कोई भूखा
यहाँ आदमी कहना ज़रूरी नहीं क्योंकि भूख
को स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में बाँटना ठीक नहीं
जब कोई भूखा कहता है आज
रोटी दो, मुझे रोटी दो
तो वो उससे पूछते हैं
जीने का मतलब क्या केवल रोटी होता है?
देखो, देखो हमने विमान बनाए हैं जिनसे हम पुष्प वर्षा करते हैं
ठीक उसी तरह जैसे धरा पर ईश्वर के अवतरण पर
करते थे देवता
पुष्प वर्षा करते हैं हम
लोगों पर, जो जाते हैं सावन में गंगाजल लेने
लोगों पर, जो करते हैं सेवा तुम्हें महामारी से बचाने के लिए|
तुम्हें, मूर्ख तुम्हें बचाने के लिए
और तुम्हें रोटी की पड़ी है
जब जीवन ही नहीं होगा
तो रोटी का क्या करेगा
तू बचेगा भी या नहीं, पता नहीं
हम सुरक्षित रहेंगे
और हमारे खज़ाने भरे रहेंगे
हम रोटी के बिना ज़िन्दा रहते हैं
वह और बात है कि हम जीते जी मरे हुए हैं
तू जिसे कहता है रोज़ी-रोटी
वह रोज़ की रोटी है
मिले तो सही
न मिले तो खोटी है
रोटी नहीं तेरी क़िस्मत
जा, अब हमें पुष्प वर्षा करने दे|
प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह (Kedarnath Singh) की भी एक कविता का शीर्षक है, रोटी| इस कविता की खासियत यह है कि इसका शीर्षक भले ही रोटी हो, पर कविता में कहीं भी रोटी शब्द नहीं आता – फिर भी स्पष्ट है कि कविता किसके बारे में है|
रोटी/केदारनाथ सिंह
उसके बारे में कविता करना
हिमाक़त की बात होगी
और वह मैं नहीं करूँगा
मैं सिर्फ़ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आएँ और मेरे साथ सीधे
उस आग तक चलें
उस चूल्हे तक—जहाँ वह पक रही है
एक अद्भुत ताप और गरिमा के साथ
समूची आग को गंध में बदलती हुई
दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़
वह पक रही है
और पकना
लौटना नहीं है जड़ों की ओर
वह आगे बढ़ रही है
धीरे-धीरे
झपट्टा मारने को तैयार
वह आगे बढ़ रही है
उसकी गरमाहट पहुँच रही है आदमी की नींद
और विचारों तक
मुझे विश्वास है
आप उसका सामना कर रहे हैं
मैंने उसका शिकार किया है
मुझे हर बार ऐसा ही लगता है
जब मैं उसे आग से निकलते हुए देखता हूँ
मेरे हाथ खोजने लगते हैं
अपने तीर और धनुष
मेरे हाथ मुझी को खोजने लगते हैं
जब मैं उसे खाना शुरू करता हूँ
मैंने जब भी उसे तोड़ा है
मुझे हर बार वह पहले से ज़्यादा स्वादिष्ट लगी है
पहले से ज़्यादा गोल
और ख़ूबसूरत
पहले से ज़्यादा सुर्ख़ और पकी हुई
आप विश्वास करें
मैं कविता नहीं कर रहा
सिर्फ़ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ
वह पक रही है
और आप देखेंगे—यह भूख के बारे में
आग का बयान है
जो दीवारों पर लिखा जा रहा है
आप देखेंगे
दीवारें धीरे-धीरे
स्वाद में बदल रही हैं|
मंगलेश डबराल (Manglesh Dabral) की एक छोटी कविता है, रोटी और कविता| इस कविता में मंगलेश जी रोटी और कविता में सम्बन्ध स्थापित करते हुए बताते हैं कि रोटी और कविता में कोई सम्बन्ध नहीं है|
रोटी और कविता/मंगलेश डबराल
जो रोटी बनाता है, कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है, रोटी नहीं बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखता|
लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पढ़ रहे हैं
और कोई कविता पढ़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे हैं|
बंगला के सुप्रसिद्ध कवि सुकांत भट्टाचार्य (Sukant Bhattacharya) की छोटी कविता है, हे महाजीवन| इसका अनुवाब बंगला से हिंदी भाषा में कवि, लेखक और अनुवादक यादवेन्द्र (translation by Yadavendra) ने किया है| इस कविता की खासियत है कि यह एक कालजयी रचना है और इसमें रोटी का जिक्र कविता की अंतिम पंक्ति में आता है|
हे महाजीवन/सुकांत भट्टाचार्य/यादवेन्द्र
हे महाजीवन, अब और काव्य नहीं|
इस बार कठिन, कठोर गद्य ले आओ|
पद्य-लालित्य झंकार मिट जाए|
गद्य की कठोर हथौड़ी को आज पीटो|
कविता की स्निग्धता का प्रयोजन नहीं —
कविता आज हमने तुम्हें छुट्टी दी|
भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है|
पूर्णिमा का चाँद जैसे जली हुई रोटी|
इस लेख के लेखक की एक कविता है, लूट. इसमें रोटी की लूट से सत्ता के शिखर तक पहुँचने का वर्णन है|
लूट/महेंद्र पाण्डेय
पांच जोड़ी आँखें निहार रही थीं
रोटी के आधे टुकडे को
चार जोड़ी कातर दृष्टि से
एक गिद्ध दृष्टि से|
कहीं दूर नेता जी माइक थामे
उत्सव मना रहे थे
आजकल प्रजातंत्र उत्सव और तमाशा
में तब्दील हो गया है|
नेता जी हाथ हवा में लहराकर चिल्ला रहे थे
हमने भूखमरी ख़त्म कर दी
हमने कुपोषण की जड़ काट दी|
भाड़े के श्रोता थे
जोर-जोर से तालियाँ बजा रहे थे|
मीडिया पर लाइव कवरेज था
स्टूडियो में जय श्री राम का जयकारा था
एंकर कुर्सी पर उछल रहा था
पैनलिस्ट कुटिल मुस्कान से लैस थे
अब कहीं भूख नहीं, कोई कुपोषित नहीं
आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ है|
तभी, रोटी के आधे टुकडे को
निहारने वाली आँखों में हलचल होने लगी
पकड़ो-पकड़ो चिल्लाते चार भाग रहे थे
पांचवा सबसे आगे रोटी के टुकडे के साथ
चार भूखे थे, कब तक भागते
साँसे उधड़ने लगीं
गिरते चले गए
पांचवां ने रोटी को इत्मीनान से मरोड़ा
और, दूर फेंक दिया
उसका पेट भरा था
रोजी-रोटी लूटना उसका शौक था|
पांचवां, आज सत्ता के शिखर पर है
रोजी-रोटी की लूट को नए आयाम दे रहा है
जाहिर है,
पूरा देश रोजी-रोटी के पीछे
भागने को मजबूर है|
यह इतिहास में दर्ज सबसे बड़ी लूट है
नरसंहार का पहला उदाहरण है|