मुजफ्फरनगर दंगे के 8 साल : सिर्फ 7 दोषी करार, 1117 आरोपी जांच के बाद बरी, मगर पीड़ित नहीं भुला पा रहे खौफनाक लम्हे
मुजफ्फरनगर के लिसाड़ गांव की दंगा पीड़ित महिलायें (photo : janjwar)
वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार की रिपोर्ट
जनज्वार। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर (Muzaffarnagar) में 7 सितंबर वर्ष 2013 में हुई सांप्रदायिक हिंसा (Communal Violence) को हुए आठ साल का लंबा अरसा बीत चुका है, लेकिन आज भी घर-गांव छोड़कर विस्थापित हुए दंगा पीड़ित उन खौफनाक लम्हों को नहीं भूल पा रहे हैं। आज भी बड़ी संख्या में दंगा पीड़ित विस्थापित कॉलोनी में रह रहे हैं। पीड़ितों ने दर्द बयां करते हुए कहा कि गांव की गलियां याद तो बहुत आती हैं, लेकिन घर वापसी की कोशिशों को दंगे का खौफ रोक लेता है।
इस दंगे में दर्ज हुए 510 में से 175 मुकदमों में स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम (एसआईटी) चार्जशीट दाखिल कर सकी है। अदालत में 119 मुकदमें विचाराधीन हैं। यूपी के गन्ना मंत्री सुरेश राणा (Suresh Rana), बीजेपी विधायक संगीत सोम (Sangeet Som) आदि पर दर्ज मुकदमे समेत 77 केस बिना ठोस कारण बताए सरकार वापस ले चुकी है। सबूतों के अभाव में 1117 लोग बरी हो गए हैं, सिर्फ सात लोगों को सजा हो सकी। गौरतलब है कि इस दंगे में करीब 60 मौतें हुईं थीं और 40 हजार लोग विस्थापित हुए थे।
मुजफ्फरनगर की जानसठ कोतवाली क्षेत्र के गांव कवाल में 27 अगस्त 2013 को शाहनवाज और मलकपुरा के सचिन-गौरव की हत्या कर दी गई थी। यहीं कवाल कांड दंगे की वजह बना था। सात सितंबर 2013 को नंगला मंदौड़ में पंचायत बुलाई गई थी। बहू-बेटी सम्मान बचाओ पंचायत से लौटते वक्त कई जगह हमले करने का आरोप था। उसी रात देहात क्षेत्र के गांवों में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी। हिंसा की आग में मुजफ्फरनगर का बुढ़ाना और शामली क्षेत्र के आधा दर्जन गांवों प्रभावित हुए थे।
मुजफ्फरनगर-शामली जनपद के करीब 900 परिवार पलायन कर गए थे। दंगों से जुड़े 510 मुकदमे अलग अलग थानों में दर्ज हुए थे। एसआईटी ने जांच कर हत्या, रेप, हत्या के प्रयास, डकैती, आगजनी तोड़फोड़ आदि धाराओं के 175 मुकदमे में कोर्ट में चार्जशीट पेश कर दी थी। 165 में फाइनल रिपोर्ट लगाई थी। 170 मुकदमे खारिज कर दिए थे। अभी तक सिर्फ कवाल में सचिन-गौरव हत्याकांड में ही आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा हुई है। विशेष लोक अभियोजक के मुताबिक सेशन कोर्ट में दंगे के 119 मुकदमे अभी लंबित है। एक मुकदमे में सजा हुई है।
यूपी सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगों से जुड़े 77 मुकदमे जब बिना कोई उचित कारण बताए वापस लेने की सुप्रीम कोर्ट में जानकारी पहुंची, तब कोर्ट ने उचित कारण बताते हुए दोबारा रिपोर्ट मांगी। कहा कि सभी आदेशों की इलाहाबाद हाईकोर्ट समीक्षा करे। निर्देश दिया गया था कि बिना हाई कोर्ट की अनुमति लिए सांसदों और विधायकों के खिलाफ पेंडिंग मुकदमे राज्य सरकार वापस नहीं ले। दरअसल, वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया ने कोर्ट को जानकारी दी थी कि यूपी सरकार कई वर्तमान और पूर्व जनप्रतिनिधियों के ऊपर मुजफ्फरनगर दंगे में लंबित मुकदमों को वापस लेने की तैयारी कर रही है।
जमीयत उलमा-ए-हिंद द्वारा दंगा पीड़ितों को जनपद में कई स्थानों पर विस्थापित कॉलोनियां बनाकर वहां घर मुहैया करा दिए थे। तभी से पीड़ित ये परिवार विस्थापित कॉलोनियों में सीमित दायरे में रहकर गुजर-बसर कर रहे हैं। गांव परासौली स्थित ऐसी ही विस्थापित कॉलोनी फलाह-ए-आम के दंगा पीड़ित अपनी व्यथा बताते हुए रो पड़े।
विस्थापित कॉलोनी में रहने वाले बुढ़ाना क्षेत्र के गांव हसनपुर निवासी इमरान का कहना है कि दंगे के बाद परिवार के साथ राहत शिविर में शरण ली थी, तभी से आज तक गांव की यादें जेहन से नहीं जाती। पैतृक घर-बार व गांव छोड़कर परिवार आज तक मूलभूत सुविधाओं के लिए भटक रहा है। घर लौटने को मन करता है, लेकिन उस रात का खौफ चैन से सोने नहीं देता।
शाहपुर क्षेत्र के गांव कुटबी निवासी मंजूरा का कहना है कि अपना घर-बार व गांव छोड़कर पूरा परिवार परेशान है। कभी मजदूरी नहीं मिलने के कारण भूखे पेट सोना पड़ता है। गांव में रहते हुए कभी ऐसी स्थितियां सामने नहीं आईं, लेकिन यहां कोई पूछने वाला नहीं है। आज भी गांव की बहुत याद आती है, लेकिन दंगे की वो रातें जेहन से नींद तक छीन लेती हैं।
गांव फुगाना निवासी यामीन का कहना है कि अपने गांव में रहते हुए कभी भी मान-सम्मान में कमी नहीं रही। वह गांव में रहकर मजदूरी करता था, लेकिन इसके बावजूद सभी लोग उनके परिवार के सुख-दुख में शामिल होते थे। वह अब भी मजदूरी करता है, लेकिन गांव छूटने के बाद वह मान-सम्मान कहीं खो गया है। कभी-कभी मन करता है कि फिर से पुराने घर लौट जाऊं, पर दंगे का खौफ लौटने नहीं देता।
गांव लिसाढ़ निवासी तैय्यब को गांव की याद आते ही आंखों में पानी आ गया। उसने बताया कि उसका गांवों में कपड़े का कारोबार था। लेनदेन अच्छा था। गांव वालों से समय पर काम का पैसा मिल जाता था। सांप्रदायिक दंगे की आग में सबकुछ खत्म हो गया। गांव की बहुत याद आती है। उसके बताया कि एक वर्ष पहले उसकी पत्नी की मौत की खबर सुनकर लिसाढ़ गांव के दर्जनों ग्रामीण उसकी खैर-खबर लेने आए थे।
कुछ यही कहानी विस्थापित कॉलोनी में रहने वाले दंगा पीड़ितों गांव फुगाना निवासी यामीन, इशाक, सद्दाम के साथ ही गांव हसनपुर निवासी शहीद, अनीस, तैय्यब, मुस्तकीम, वकार व नौशाद और गांव बहावड़ी निवासी मोहसिन व नौशाद की है। ये सभी लोग गांव के पुराने मंजर को तो याद करते हैं, लेकिन वहां फिर से लौटने की बात पर इंकार कर देते हैं।
सांप्रदायिक दंगे में अपने घर-बार छोड़कर राहत शिविरों में गए सैकड़ों परिवारों से इतर ऐसा भी परिवार है, जो उन हालातों में भी अपना घर छोड़कर नहीं गया। गांव फुगाना निवासी शकूरा का कहना है कि वह भी गांव छोड़ना चाहता था, लेकिन ग्रामीणों ने सुरक्षा का भरोसा देते हुए उसे रोक लिया। आज भी उसे गांव में वही पहले जैसा प्यार व सम्मान मिल रहा है। उसके पास काम की भी कोई कमी नहीं है। सभी लोग उसका व परिवार का ख्याल रखते हैं। समय के साथ-साथ दोनों वर्गों के लोगों में फिर से एक-दूसरे के प्रति प्यार-सद्भाव बढ़ रहा है। ऐसे में वो दिन दूर नहीं, जब फिर से दोनों वर्गों के लोग एक-दूसरे की खुशियों में शामिल होंगे।