BJP के आक्रामक अभियान के खिलाफ बंगाल में ममता को मिला ऐतिहासिक जनादेश
वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण
जनज्वार। पश्चिम बंगाल चुनाव के परिणाम वास्तव में ऐतिहासिक हैं। इससे पहले बिहार चुनावों में भाजपा पराजय के करीब पहुंच गई थी। पश्चिम बंगाल में भाजपा की यह शिकस्त संविधान, लोकतंत्र और भारत के संघीय ढांचे को बचाने के लिए संघर्ष और विविध और बहुल भारतीय पहचान को मजबूत और प्रेरित करेगा। नंदीग्राम सीट की अंतिम घोषणा में ममता बनर्जी की हार चुनावी नतीजे के निहितार्थ को कमजोर नहीं करती है।
यह पश्चिम बंगाल के लोगों द्वारा राज्य को जीतने के लिए भाजपा के आक्रामक और अन्यायपूर्ण अभियान के खिलाफ जनादेश है। यह नतीजा बंगाल की प्रगतिशील और समावेशी विरासत द्वारा कट्टरता, संप्रदायवाद और घृणा की राजनीति के खिलाफ एक संदेश है। यह लोगों की आजीविका के कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ अस्तित्व, गरिमा और अधिकारों के लिए संघर्ष का एक मजबूत दावा है।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम की घोषणा के बाद एक ओर जहां बीजेपी का विजय रथ रुक गया है, वहीं उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस के पैर लगभग हर जगह से उखड़ रहे हैं। इसी बीच पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस की अभूतपूर्व जीत के बाद राजनीतिक पंडितों को लग रहा है कि एक बार फिर क्षेत्रीय दल और नेता राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत बनकर उभरेंगे।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) भारी बहुमत के साथ तीसरी बार सत्ता में वापसी कर ली है। हालांकि, टीएमसी प्रमुख और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी सीट नहीं बचा पाईं। बीजेपी ने दावा किया था कि बीजेपी 200 से ज्यादा सीटें बंगाल में जीतेगी। इस बार पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में मोदी की छवि और चुनावों के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह भी राज्य की हवा अपने पक्ष में नहीं कर पाए।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में इस बार ध्रुवीकरण को बड़े मुद्दे के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल, भाजपा अपनी हर रैली व सभा में जय श्री राम के नारे पर हुए विवाद को मुद्दा बनाती रही। इस बार तृणमूल भी पीछे नहीं रही। ममता बनर्जी ने पहले सार्वजनिक मंच पर चंडी पाठ किया, फिर अपना गोत्र भी बताया और हरे कृष्ण हरे हरे का नारा दिया।
ऐसे में कहा जा रहा था कि बंगाल के हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए बीजेपी का दांव उनके पक्ष में जाएगा, हालांकि ये दाव उल्टा पड़ गया। हालांकि राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि बंगाल में जमीनी स्तर पर राजनीतिक ध्रुवीकरण देखने को मिला है।
बीजेपी की उम्मीदों पर पानी फिर जाने का एक अहम कारण यह भी है कि किसी भरोसेमंद स्थानीय सीएम चेहरे का न होना। बंगाल के लोगों के लिए बनर्जी हमेशा से मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर एक ज़्यादा स्वीकार्य चेहरा रही हैं। बीजेपी ने पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ा।
लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को प्रदेश के जमीनी और बड़े चेहरे चाहिए थे। इसके चलते भाजपा ने दूसरे दलों में सेंधमारी शुरू की और सत्ताधारी दल के कई बड़े नेताओं को अपने पाले में मिला लिया। इनमें सबसे बड़ा नाम सुवेंदु अधिकारी का माना जाता है, जो ममता बनर्जी के करीबी सहयोगी रहे।
इस बार विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दूसरे दलों के नेताओं को पार्टी में शामिल कराया। इसके साथ ही उन्हें बड़े पैमाने पर टिकट भी दिया, जिसके चलते पार्टी के कई नेताओं ने नाराजगी भी जताई। टिकट बंटवारे के साथ ही बंगाल भाजपा यूनिट में असंतोष की खबरें आईं और कई जगह भाजपा के दफ्तर में तोड़फोड़ भी हुई, जिसके बाद कई बार संशोधन भी करना पड़ा।
बीजेपी सूत्रों का दावा है कि पश्चिम बंगाल में बनर्जी नीत तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण, मतदान प्रतिशत में कमी, खासतौर से कोविड-19 के कारण अंतिम कुछ चरणों में मतदान की कमी आदि ने राज्य में पार्टी की हार में मुख्य भूमिका निभाई है।
पश्चिम बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष का हालांकि कहना है कि तृणमूल छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए नेताओं का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है, वहीं पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय ने तृणमूल कांग्रेस के शानदार प्रदर्शन का श्रेय ममता बनर्जी को दिया है।
विजयवर्गीय ने कहा, 'तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी के कारण जीती है। ऐसा लगता है कि जनता ने दीदी को चुना है। हम आत्मविश्लेषण करेंगे, कहां गलती हुई है, क्या यह संगठन का मुद्दा था या चेहरे की कमी या भीतरी-बाहरी का विवाद। हम देखेंगे कि कहां गलती हुई है।'
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर मणिन्द्र नाथ ठाकुर इस बारे में कहते हैं, पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम बनर्जी के साथ नए गठजोड़ को बढ़ावा दे सकते हैं। उन्होंने बनर्जी को इंदिरा गांधी के बाद सबसे मजबूत महिला नेता बताया।