क्या है समान नागरिक संहिता, इसको लेकर नये सिरे से बवाल क्यों?
क्या है समान नागरिक संहिता, इसको लेकर नये सिरे से बवाल क्यों?
UCC को लेकर नये सिरे से जारी बहस पर धीरेंद्र मिश्र की रिपोर्ट
इससे पहले जुलाई 2022 में दिल्ली हाईकोर्ट ने देश में एक समान नागरिक संहिता ( Uniform civil code ) की वकालत करते हुए केंद्र को इसे लागू करने के लिए समुचित कदम उठाने के लिए कहा है। सुप्रीम कोर्ट भी इस दिशा में आगे बढ़ने की सिफारिश कर चुकी है। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि देश जाति, धर्म और समुदाय से ऊपर उठ रहा है। ऐसे में समान नागरिक संहिता समय की मांग और जरूरत है। जब कोर्ट इसकी वकालत कर रहा है तो ऐसे में हमें इसके सभी पहलुओं को जानने की जरूरत है। समान नागरिक संहिता का मतलब धर्म और वर्ग आदि से ऊपर उठकर पूरे देश में एक समान कानून करने से होता है।
खास बात यह है कि समान नागरिक संहिता ( Uniform civil code ) लागू हो जाने से पूरे देश में शादी तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे सामाजिक मुद्दे एक समान कानून के अन्तर्गत आ जाएंगे। इसमें धर्म के आधार पर कोई अलग कोर्ट या अलग व्यवस्था नहीं होगी।
यहां पर इस बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि भाजपा के तीन कोर मुद्दे रहे हैं। राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता। इनमें राम मंदिर का निर्माण जारी है। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 समाप्त हो चुका है। जहां तक यूसीसी की बात है कि लोकसभा चुनाव 2019 के घोषणापत्र में सत्ता में आने पर समान नागरिक संहिता ( UCC ) लागू करने का वादा किया गया था।
समान नागरिक संहिता पर संविधान क्या कहता है?
भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत समान नागरिक संहिता आती है और यह ऐसे व्यक्तिगत कानूनों को पेश करने का प्रस्ताव रखती है जो धर्म, लिंग, जाति आदि से हटकर सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू हों.अनुच्छेद 44 में कहा गया है – राज्य को पूरे देश में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुनिश्चित करने का प्रयास करना होगा.अब क्योंकि अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत आता है, इसलिए इनको केवल दिशानिर्देश माना जाता है और उनका उपयोग करना अनिवार्य नहीं है.
क्या है पर्सनल लॉ
परिभाषा के अनुसार, किसी व्यक्ति और उसके परिवार से संबंधित मामलों से जुड़े कानून पर्सनल लॉ के तहत आते हैं. देश में अलग-अलग धर्म अपने व्यक्तिगत कानूनों द्वारा चलते हैं. उदाहरण के लिए - हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख धर्म के अनुयायियों के बीच विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत शासित होते हैं. इसी तरह ईसाई और पारसियों की शादियां क्रमश: भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872 और पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936 के तहत शासित होती हैं. वैसे ही मुसलमानों में निकाह मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम 1937 के तहत शासित होते हैं.वर्तमान में भारत भर में विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानून बड़े पैमाने पर उनके धर्म द्वारा शासित होते हैं. हालांकि, ये कानून गोवा में रहने वालों और विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाहित लोगों पर लागू नहीं होते हैं.
क्या यूसीसी से सिर्फ मुसलमान ही प्रभावित होंगे?
समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी ( ( UCC ) ) के लागू होने बाद शादी, तलाक, विरासत, गोद लेने और अन्य संबंधित मुद्दों पर सभी धार्मिक समुदायों को प्रभावित करेगी। राजनीतिक कारणों से इस मुद्दे को ऐसे उठाया जाता रहा है। उसी के तहत राज्यसभा में यूसीसी बिल का विरोध भी किया गया है। विरोधी दलों का कहना है कि ये सिर्फ मुस्लिम समुदाय को प्रभावित करेगा।
मुसलमान क्यों करते हैं इसका विरोध
मुस्लिम पर्सनल लॉ, जो पवित्र कुरान और हदीस (पैगंबर मोहम्मद की परंपरा) पर आधारित है, को भारत में सबसे पहली बार शरीयत आवेदन अधिनियम 1937 में संहिताबद्ध किया गया था. व्यक्तिगत मामलों में तब से समुदाय इस अधिनियम के तहत शासित है और शादी, तलाक, विरासत, गोद लेने, संरक्षकता और दहेज से जुड़े मामलों का फैसला दारुल कज़ा (शरीयत अदालतें) कर रही हैं. चूंकि इन दारुल कज़ाओं को कोई कानूनी मंजूरी नहीं दी गई थी, लिहाजा इन धार्मिक अदालतों द्वारा लिए गए कई मामलों का फैसला अक्सर पारिवारिक अदालतों में पहुंच जाता है. इस प्रकार, मुस्लिम समुदाय विवादों को सुलझाने के लिए शरीयत अदालतों और पारिवारिक अदालतों के बीच झूलता रहता है.इसके अलावा, शरीयत अदालतों को दीवानी (राजस्व) और आपराधिक मामलों को लेने का अधिकार नहीं है.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ( All India Muslim Personal Law Board ) समान नागरिक संहिता से खुद को बचाने की बात करता है। दूसरी तरफ भारत के अन्य नागरिकों की तरह मुस्लिम समुदाय के लोग भी नागरिक प्रक्रिया संहिता, भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, परिवार न्यायालय अधिनियम, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम, दहेज निषेध अधिनियम, अभिभावक और वार्ड अधिनियम, भारतीय तलाक अधिनियम 1869 और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम में उचित मुआवजा और पारदर्शिता जैसे कानूनों के तहत शासित हैं और अपना हक पा रहे हैं। हनफी, मलाकी, शफई और हनबली ( सुन्नी संप्रदाय से जुड़े ) और जाफरी न्यायशास्त्र ( शिया संप्रदाय से जुड़े ) जैसे विभिन्न न्यायशास्त्रों द्वारा संहिताबद्ध व्यक्तिगत मुद्दे एक व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े हैं।
सरकार का रुख
कानून और न्याय मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया है कि न्यायालय संसद को कोई कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकता है और इसने देश में समान नागरिक संहिता (UCC) की मांग करने वाली जनहित याचिकाओं (PIL) को खारिज करने की मांग की है। केंद्र सरकार का कहना है कि न्यायालय इस मामले में कोई मार्गदर्शन नहीं दे सकती क्योंकि यह नीति का मामला है जिसका फैसला जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को करना चाहिये। विधायिका को कानून पारित करने या वीटो करने की शक्ति है। विधि मंत्रालय ने विधि आयोग से सामान नागरिक संहिता से संबंधित विभिन्न मुद्दों की जांच करने और समुदायों को शासित करने वाले विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों की संवेदनशीलता, उनके गहन अध्ययन के आधार पर विचार करते हुए सिफारिशें करने का अनुरोध किया था। 21वें विधि आयोग ने अगस्त 2018 में 'परिवार कानून में सुधार' शीर्षक से एक परामर्श पत्र जारी किया था लेकिन 21वें विधि आयोग का कार्यकाल अगस्त 2018 में ही समाप्त हो गया।
UCC का इतिहास
समान नागरिक संहिता (UCC) की अवधारणा का विकास औपनिवेशिक भारत में तब हुआ, जब ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1835 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों जैसे विभिन्न विषयों पर भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता लाने की आवश्यकता पर बल दिया गया, हालाँकि रिपोर्ट में हिंदू व मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस एकरूपता से बाहर रखने की सिफारिश की गई। ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की संख्या में वृद्धि ने सरकार को वर्ष 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये बीएन राव समिति गठित करने के लिये मजबूर किया।
बीएन राव समिति की सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिये निर्वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित एवं संहिताबद्ध करने हेतु वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में एक विधेयक को अपनाया गया। हालांकि, मुस्लिम, इसाई और पारसी लोगों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे। कानून में समरूपता लाने के लिये विभिन्न न्यायालयों ने अक्सर अपने निर्णयों में कहा है कि सरकार को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये। शाह बानो मामले (1985) में दिया गया निर्णय सर्वविदित है। सरला मुद्गल वाद (1995) भी इस संबंध में काफी चर्चित है, जो कि बहुविवाह के मामलों और इससे संबंधित कानूनों के बीच विवाद से जुड़ा हुआ था।
यूसीसी को लेकर अमूमन यह तर्क दिया जाता है 'ट्रिपल तलाक' और बहुविवाह जैसी प्रथाएं एक महिला के सम्मान तथा उसके गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, केंद्र ने सवाल उठाया है कि क्या धार्मिक प्रथाओं को दी गई संवैधानिक सुरक्षा उन प्रथाओं तक भी विस्तारित होनी चाहिये जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
भारत में समान नागरिक संहिता की स्थिति
वर्तमान में अधिकांश भारतीय कानून, सिविल मामलों में एक समान नागरिक संहिता का पालन करते हैं, जैसे- भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882, भागीदारी अधिनियम, 1932, साक्ष्य अधिनियम, 1872 आदि । हालांकि, राज्यों ने कई कानूनों में संशोधन किये हैं परंतु धर्मनिरपेक्षता संबंधी कानूनों में अभी भी विविधता है। हाल ही में कई राज्यों ने एक समान रूप से मोटर वाहन अधिनियम, 2019 को लागू करने से इनकार कर दिया था। वर्तमान में गोवा, भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ UCC लागू है।
UCC की चुनौतियां
विभिन्न समुदायों के बीच रीति-रिवाज़ बहुत भिन्न होते हैं। यह भी एक मिथक है कि हिंदू एक समान कानून द्वारा शासित होते हैं। उत्तर में निकट संबंधियों के बीच विवाह वर्जित है लेकिन दक्षिण में इसे शुभ माना जाता है। पर्सनल लॉ में एकरूपता का अभाव मुसलमानों और ईसाइयों के लिये भी सही है। संविधान द्वारा नगालैंड, मेघालय और मिज़ोरम के स्थानीय रीति-रिवाजोंं को सुरक्षा दी गई है। व्यक्तिगत कानूनों की अधिकता और विविधता किसी भी प्रकार की एकरूपता को प्राप्त करना बहुत कठिन बना देते हैं। विभिन्न समुदायों के बीच साझे विचार स्थापित करना जटिल कार्य है। कई विश्लेषकों का मत है कि समान नागरिक संहिता की मांग केवल सांप्रदायिकता की राजनीति के संदर्भ में की जाती है। समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक सुधार की आड़ में इसे बहुसंख्यकवाद के रूप में देखता है।
संवैधानिक बाधा
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है। परस्पर विश्वास के निर्माण के लिये सरकार और समाज को कड़ी मेहनत करनी होगी, किंतु इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि धार्मिक रूढ़िवादियों के बजाय इसे लोकहित के रूप में स्थापित किया जाए। एक सर्वव्यापी दृष्टिकोण के बजाय सरकार विवाह, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे अलग-अलग पहलुओं को चरणबद्ध तरीके से समान नागरिक संहिता में शामिल कर सकती है। सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना आवश्यक है, ताकि उनमें से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जा सके।
क्या है अनुच्छेद 44
संविधान के आर्टिकल 44 के रूप में शामिल कर दिया गया और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। अनुच्छेद 44 राज्य को उचित समय आने पर सभी धर्मों लिए 'समान नागरिक संहिता' बनाने का निर्देश देता है। कुल मिलाकर अनुच्छेद 44 का उद्देश्य कमजोर वर्गों से भेदभाव की समस्या को खत्म करके देशभर में विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बीच तालमेल बढ़ाना है।
क्यों पड़ी जरूरत
1. अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे।
2. शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं।
3. समान नागरिक संहिता पर अमल से सभी के लिए कानून में एक समानता से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति में भी सुधार की उम्मीद है।
4. समान संहिता विवाह, विरासत और उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानूनों को सरल बनाएगी। परिणामस्वरूप समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होंगे, चाहे वे किसी भी धर्म में विश्वास रखते हों।
5. यदि समान नागरिक संहिता को लागू होता तो यह लैंगिक न्याय को बढ़ावा मिलेगा। वर्तमान में मौजूद सभी व्यक्तिगत कानून समाप्त हो जाएंगे, जिससे उन कानूनों में मौजूद लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी निपटा जा सकेगा।
6. यूसीसी का मकसद महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, जबकि एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को भी बल मिलेगा।
7. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द सन्निहित है और एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य को धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिये एक समान कानून बनाना चाहिए।
विरोध में दिये जा रहे हैं ये तर्क
1. समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है।
2. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है।
3. सेक्युलर देश में पर्सनल लॉ में दखलंदाजी नहीं होना चाहिए। समान नागरिक संहिता बने तो धार्मिक स्वतंत्रता का ध्यान रखा जाए।
दुनिया के इन देशों में लागू है यूसीसी
अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट जैसे कई देश हैं जिन्होंने समान नागरिक संहिता लागू किया है। इनमें से कुछ देशों की समान नागरिक संहिता से तमाम मानवाधिकार संगठन सहमत नहीं हैं।