विष्णु खरे और विजय कुमार की परंपरा में अच्युतानंद मिश्र
अच्युतानंद मिश्र को उनको कविता 'बच्चे धर्म युद्ध लड़ रहे हैं' के लिए भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार 2017 दिया जा रहा है। यह कविता 'हंस' पत्रिका में जनवरी 2016 में प्रकाशित हुई थी।
पुरस्कार समिति के निर्णायक मंडल में अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, अनामिका और पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं, जो हर वर्ष बारी-बारी से वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन करते हैं। इस बार की निर्णायक वरिष्ठ कवियत्री अनामिका थीं।
अच्युतानंद की कविताएं गांधी के अंतिम आदमी की पीड़ा से साक्षात कराती हैं। विष्णु खरे और विजय कुमार की परंपरा में अच्युतानंद की कविताओं का सच आपकी आंखों में आंखें डाल सवाल करता नजर आता है -
शोर लगाते लड़के
जब सचमुच का भूख-भूख चिल्लाने लगे
तो पुलिस ने कहा वे खूंखार थे
नक्सली थे तस्कर थे...
किसी ने यह नहीं कहा वे भूखे थे
और जवान हो गये थे
बूढ़े हो रहे देश में
इस तरह मारे गए जवान लड़के।
वर्तमान में अपने समय के कड़वे सचों को इतने मार्मिक ढंग से ‘रात की पाली’ की कविताओं में विजय कुमार ही दर्ज कर पाते हैं। जहां उम्र और अनुभव से आया सधाव विजय कुमार के यहां ज्यादा है, वहीं कथ्य की साफगोई अच्युतानंद के यहां अधिक है।
विकास के इस दौर में खानों में बंटती मनुष्यता पर सवाल खडे करती है अच्युतानंद की कविताएं - ‘कि दूध की बोतलें लटकाता छोटुआ दरवाजे की मनुष्यता से बाहर’ क्यों रह जाता है कि ‘क्या दूध की बोतलें, अखबार के बंडल/ सब्जी की ठेली ही/ उसकी किताबें हैं...’
अपने समय की दुश्वारियां कवि के अंतर को इस तरह व्यथित करती हैं। कवि की बेचैनी पाश और गोरख वाली है। वह चाहता है कि चीजें हिलें, बदलें स्थितियां - ‘कोई चूहा ही गिरा जाए/ पानी का ग्लास/ कुछ कुछ तो हिले।'
'बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं' कविता के लिए अच्युतानंद मिश्र को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान किया गया है। आइए पढ़ते हैं उनकी कविता -
बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं
(अमेरिकी युद्धों में मारे गये, यतीम और जिहादी बना दिए गये उन असंख्य बच्चों के नाम)
सच के छूने से पहले
झूठ ने निगल लिया उन्हें
नन्हे हाथ
जिन्हें खिलौनों से उलझना था
खेतों में बम के टुकड़े चुन रहे हैं
वे हँसते हैं
और एक सुलगता हुआ
बम फूट जाता है
कितनी सहज है मृत्यु यहाँ
एक खिलौने की चाभी
टूटने से भी अधिक सहज
और जीवन, वह घूम रहा है
एक पहाड़ से रेतीले विस्तार की तरफ
धूल उड़ रही है
वे टेंट से बाहर निकलते हैं
युद्ध का अठ्ठाइसवां दिन
और युद्ध की रफ़्तार
इतनी धीमी इतनी सुस्त
कि एक युग बीत गया
अब थोड़े से बच्चे
बचे रह गये हैं
फिर भी युद्ध लड़ा जायेगा
यह धर्म युद्ध है
बच्चे धर्म की तरफ हैं
और वे युद्ध की तरफ
सब एक दूसरे को मार देंगे
धर्म के खिलाफ खड़ा होगा युद्ध
और सिर्फ युद्ध जीतेगा
लेकिन तब तक
सिर्फ रात है यहाँ
कभी-कभी चमक उठता है आकाश
कभी-कभी रौशनी की एक फुहार
उनके बगल से गुजर जाती है
लेकिन रात और
पृथ्वी की सबसे भीषण रात
बारूद बर्फ और कीचड़ से लिथड़ी रात
और मृत्यु की असंख्य चीखों से भरी रात
पीप,खून और मांस के लोथड़ों वाली रात
अब आकार लेती है
वे दर्द और अंधकार से लौटते हैं
भूख की तरफ
भूख और सिर्फ भूख
बच्चे रोटी के टुकड़ों को नोच रहे हैं
और वे इंसानी जिस्मों को
कटे टांगों वाली भूख
खून और पीप से लिथड़ी भूख
एक मरियल सुबह का दरवाजा खुलता है
न कोई नींद में था
न कोई जागने की कोशिश कर रहा है
टेंट के दरवाजे
युद्ध के पताकों की तरह लहराते हैं
हवा में, बच्चे दौड़ रहे हैं
खेतों की तरफ
रात की बमबारी ने
कुछ नये बीज बोये हैं।