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जनज्वार विशेष

जलवायु आपातकाल के दौर से गुजर रहा है पर्यावरण, भूमि को नष्ट करता जलवायु परिवर्तन

Prema Negi
3 Sep 2019 6:05 AM GMT
जलवायु आपातकाल के दौर से गुजर रहा है पर्यावरण, भूमि को नष्ट करता जलवायु परिवर्तन
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कोरोना के साथ जलवायु संकट को दोहरी मार झेलता विश्व (file photo)

आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार भूमि और जंगलों को स्वतः पनपने का मौका दिया जाना चाहिए, जिससे अधिक मात्रा में कार्बन को वायुमंडल में मिलने से रोका जा सके, मांसहार के बदले लोगों को शाकाहार अपनाना चाहिए और भोजन को नष्ट नहीं करना चाहिए...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

इन्टर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार तापमान वृद्धि के साथ-साथ जीवन को संभालने की पृथ्वी के क्षमता ख़त्म होती जा रही है। तापमान वृद्धि से सूखा, मिट्टी के हटने (मृदा अपरदन) और जंगलों में आग के कारण कहीं कृषि उत्पादों का उत्पादन कम हो रहा है तो कहीं भूमि पर जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है।

न सबसे भूख बढ़ेगी, लोग विस्थापित होंगे, युद्ध की संभावनाएं बढ़ेंगी और जंगलों को नुकसान पहुंचेगा। भूमि का विनाश एक चक्र की तरह असर करता है – जितना विनाश होता है उतना ही कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ता है और वायुमंडल को पहले से अधिक गर्म करता जाता है।

ईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार भूमि और जंगलों को स्वतः पनपने का मौका दिया जाना चाहिए, जिससे अधिक मात्रा में कार्बन को वायुमंडल में मिलने से रोका जा सके, मांसहार के बदले लोगों को शाकाहार अपनाना चाहिए और भोजन को नष्ट नहीं करना चाहिए। इन सबसे मनुष्य का स्वास्थ्य सुधरेगा, गरीबी कम होगी और जंगलों की आग पर काबू पाया जा सकेगा।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ एडिनबर्ग के प्रोफ़ेसर डेव रे के मुताबिक पृथ्वी का क्षेत्र वही है, पर निर्बाध गति से जनसंख्या बढ़ती जा रही है और दूसरी तरफ इसके चारों तरफ का वायुमंडल घुटन भरा हो गया है। कुल मिलाकर ऐसी स्थिति है जिसे जलवायु आपातकाल कहा जा सकता है। हालत ऐसे हैं कि पृथ्वी भी अब छोटी पड़ने लगी है और इसका पारिस्थितिकी तंत्र और वातावरण कभी इतने खतरे में नहीं था।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीड्स के प्रोफ़ेसर पिएर्स फोरस्टर कहते हैं, आईपीसीसी की रिपोर्ट से स्पष्ट है की पृथ्वी पर वनों का क्षेत्र बढ़ाना पड़ेगा और चारागाहों का क्षेत्र कम करना पड़ेगा। आईपीसीसी की रिपोर्ट के एक लेखक प्रोफ़ेसर जिम स्केया के अनुसार पृथ्वी पहले से ही संकट में थी, पर जलवायु परिवर्तन ने इस संकट को कई गुना अधिक बढ़ा दिया है।

पृथ्वी के तीन-चौथाई से अधिक क्षेत्र में मानव की गहन गतिविधियाँ चल रहीं हैं। अवैज्ञानिक भूमि-उपयोग, जंगलों का नष्ट होना, अनगिनत पालतू मवेशियों का बोझ और रासायनिक उर्वरकों के अनियंत्रित उपयोग के कारण वायुमंडल में मिलाने वाले कुल कार्बन डाइऑक्साइड में से एक-चौथाई का योगदान है।

पृथ्वी के 72 प्रतिशत क्षेत्र में सघन मानव-जनित गतिविधियाँ चल रहीं हैं और केवल 28 प्रतिशत भू-भाग ऐसा है जिसे प्राकृतिक कहा जा सकता है। इसमें से 37 प्रतिशत क्षेत्र में घास का मैदान या चारागाह है, 22 प्रतिशत पर जंगल हैं, 12 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है और केवल एक प्रतिशत भूमि का उपयोग बस्तियों के तौर पर किया जाता है। पर पृथ्वी के केवल एक प्रतिशत क्षेत्र में बसने वाला मनुष्य पूरी पृथ्वी, महासागरों और वायुमंडल को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है।

भूमि की सबसे उपजाऊ परत, जो सबसे ऊपर का हिस्सा होता है, वह एक साल में जितना बन पाता है उससे 100 गुना तेजी से उसका नाश हो रहा है। मांस और दूध उद्योग के लिए मवेशियों की इतनी बड़ी संख्या हो गयी है कि चारागाह के चलते बड़े वन क्षेत्र नष्ट कर दिए गए हैं। आईपीसीसी के वरिष्ठ लेखक डेविड विनर कहते हैं, भूमि जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण है और हमें सतत भविष्य के लिए इसकी देखभाल करनी ही पड़ेगी।

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