पूंजीपतियों के हित में पर्यावरण प्रभाव के निर्धारण प्रक्रिया में बदलाव कर रही मोदी सरकार
पर्यावरण संरक्षकों के लिए भारत बन चुका है सबसे खतरनाक देश (file photo)
सरकार तथा कम्पनियों की इस क्रूर चाल के विरोध में लोगों की न्यायपूर्ण एवं लोकतांत्रिक संघर्ष को गोलबंद करने की जरूरत है...
राज कुमार सिन्हा का विश्लेषण
जनज्वार। वर्तमान लॉकडाउन में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने एक बार फिर 12 मार्च 2020 को पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्रकिया 2006 में संशोधन के लिए ईआईए 2020 प्रस्तावित किया है, जिसमें पर्यावरणीय मंजूरी के पहले ही परियोजना निर्माण कार्य करने की छूट, कई परियोजनाओं को पर्यावरण जन सुनवाई से मुक्ति, खदान परियोजनाओं की मंजूरी की वैलिडिटी अवधि में बढोतरी, मंजूरी के बाद नियंत्रण और निगरानी के नियमों में भारी ढील आदि जैसे बदलाव प्रस्तावित है।
मंत्रालय ने साफ साफ यह कह दिया है कि व्यवसायी और कम्पनियों के लिए व्यापार सुगम करना इस प्रस्ताव का उद्देश्य है, जबकि देश की पर्यावरणीय हालत पहले ही खराब है। वायु, जल और मिट्टी प्रदूषण से शहर और गांव त्रस्त हैं और प्राकृतिक संपदा निरंतर नष्ट हो रही है। पर्यावरणीय और जलवायु संकट के चलते आपदाएं बढ रही हैं और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समुदाय अपनी आजीविका और जीने के स्रोत खोते जा रहे हैं।
इनमें देश के किसान, मछुआरे, वन आधारित आदिवासी समुदाय, पशुपालक, दलित और कई अन्य समुदाय शामिल हैं, जो विस्थापन और प्रदूषण की मार झेल रहे हैं। ऐसे में मंत्रालय को पर्यावरण सुरक्षित करने और प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने के लिए जनता की भागीदारी मजबूत करते हुए प्रकिया और नियम लागू करना चाहिए, न कि पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए संसाधनों को कौड़ियों के दाम पर बेचना।
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इन सभी परिस्थितियों को लेकर राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाता है, परन्तु इस नई परिस्थिति में न्यायाधिकरण के अधिकार को सीमित करने की कोशिश किया जाएगा। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल ने 1984 में यूनियन कार्बाइड की त्रासदी झेल चुका और अभी हाल में विजाग आंध्र प्रदेश की घटना से सबक लेने की जरुरत है।
पर्यावरण आंकलन अधिसूचना को पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986 के अन्तर्गत सबसे पहले 1994 में जारी किया गया था। इसके पहले यह कार्य महज प्रशासनिक जरूरत होता था, लेकिन 27 जनवरी 1994 में पर्यावरण प्रभाव नोटीफिकेशन के जरिये एक विस्तृत प्रकिया शुरू किया गया।
इस नोटीफिकेशन के अन्तर्गत 29 औधोगिक एवं विकासात्मक परियोजनाओं (बाद में संशोधन कर इस संख्या को 32 किया गया) को शुरू करने के लिए केन्द्र सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से मंजूरी लेना अनिवार्य कर दिया गया, जिसमें बड़े बांध, माइंस, एयरपोर्ट, हाइवे, समुद्र तट पर तेल एवं गैस उत्पादन, पेट्रोलियम रिफाइनरी, कीटनाशक उद्योग, रासायनिक खाद, धातु उद्योग, थर्मल पावर प्लांट, परमाणु उर्जा परियोजना आदि शामिल हैं।
परियोजनाओं को एक विस्तृत प्रकिया से गुजरना आवश्यक बनाया गया, जिसके तहत पर्यावरण प्रभाव निर्धारण रिपोर्ट (ई.आई.ए) तैयार कर सार्वजनिक करना एवं जन सुनवाई महत्वपूर्ण माना गया। ईआईए रिपोर्ट अंग्रेजी तथा प्रादेशिक और स्थानीय भाषा में जिला मजिस्ट्रेट, पंचायत व जिला परिषद, जिला उद्योग कार्यालय और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के संबंधित क्षेत्रीय कार्यालय में उपलब्धता सुनिश्चित किया गया।
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इसका मुख्य उद्देश्य था कि सभी विकास परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों का केवल सही सही आंकलन ही न हो, बल्कि इस आंकलन प्रकिया में प्रभावित समुदायों का मत भी लिया जाए और उसी के आधार पर परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देना या नहीं देने का फैसला लिया जाए। इस अधिसूचना के अन्तर्गत ही प्रभावित क्षेत्रों में पर्यावरणीय जन सुनवाई जैसा महत्वपूर्ण प्रावधान रखा गया।
किसी भी परियोजना को मंजूरी देने से पहले उसके प्रभावों को पैनी नजर से आंकने और जांचने के रास्ते भी खुले और निर्णय प्रकिया में जनता की भूमिका भी बढी। इस प्रकिया में परियोजना चार चरणों से गुजरती है। जब परियोजना निर्माता आवेदन करता है, उसे टर्म्स ऑफ रेफरेंस प्रतीक्षारत अवस्था कहते हैं। इसके बाद एक विशेषज्ञ आकलन समिति द्वारा परियोजना की छानबीन की जाती है। छानबीन के अन्तर्गत पर्यावरण प्रभाव आंकलन हेतु बिंदु (टर्म्स ऑफ रेफरेंस) तैयार किए जाते हैं।
इसी के साथ परियोजना टर्म्स ऑफ रेफरेंस स्वीकृत अवस्था में आ जाती है। पर्यावरण प्रभाव आंकलन का मसौदा तैयार होने के बाद जन सुनवाई आयोजित की जाती है और उसके बाद पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रतिवेदन तथा पर्यावरण प्रबंधन योजना को अंतिम रूप दिया जाता है। ये सारे चरण पुरा होने के बाद रिपोर्ट पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को प्रस्तुत की जाती है। यह अवस्था पर्यावरण मंजूरी प्रतीक्षारत अवस्था है। इसके उपरांत विशेषज्ञ आकलन समिति द्वारा सबंधित दस्तावेजों की छानबीन की जाती है और परियोजना को स्वीकृत या ख़ारिज की करने की सिफारिश करती है। एक बार पर्यावरण मंजूरी मिल जाने के बाद परियोजना पर्यावरण मंजूरी अवस्था में आ जाती है।
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पूंजी एवं कम्पनियों के सामने झुकने वाली सरकार की मंशा विपरीत होने के कारण 1994 से 2006 तक 12 सालों में 13 बार संशोधन किया गया। 14 सितम्बर 2006 को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा 1994 के नोटीफिकेशन को बदल कर पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्रकिया 2006 बनाया गया। ये नोटीफिकेशन भी गोविंद राजन के नेतृत्व वाली समिति की सिफारिशें और मंत्रालय द्वारा विश्व बैंक की मदद से चलाए गए "पर्यावरण प्रबंधन दक्षता विकास कार्यक्रम" के आधार पर लाया गया, जिसमें कम्पनियों द्वारा परियोजना को स्वीकृति देने की प्रकिया को शीघ्र व सरल और सरकारी नियंत्रण को सरल करने जैसे सुझाव को शामिल कर लिया गया, जबकि स्वीकृति प्रकिया में शर्तों की मानिटरिंग तथा शर्तों की कार्य योजना महत्वपूर्ण है।
लेकिन 2006 का नोटीफिकेशन अधिक जोर नहीं देता है। केवल इतना ही कहा गया है कि छह मासिक प्रतिवेदन देना होगा। प्रकिया कमजोर करने के बावजूद लोग आज भी उस जन सुनवाई में विरोध करने जाते हैं।नर्मदा घाटी के बरगी बांध से विस्थापित गांव चुटका में प्रस्तावित परमाणु उर्जा परियोजना की जन सुनवाई स्थानीय समुदाय के विरोध के कारण दो बार अंतिम वक्त पर रद्द करना पड़ा।
तीसरी बार भारी पुलिस बल के साये में जन सुनवाई का आयोजन किया गया। परन्तु स्थानीय समुदाय जन सुनवाई स्थल पर हजारों की संख्या में विरोध करने जुट गये। इसके पहले लोगों ने ईआईए रिपोर्ट के विभिन्न बिन्दुओं पर लिखित शिकायत दर्ज कराया था। सरकार तथा कम्पनियों की इस क्रूर चाल के विरोध में लोगों की न्यायपूर्ण एवं लोकतांत्रिक संघर्ष को गोलबंद करने की जरुरत है। यह प्रस्तावित संशोधन इस जनपक्षीय अधिसूचना के लिए अंतिम कील साबित होने वाला है।